36 फीट गहरे बोरिंग का गड्ढ़े, 36 घन्टे मौत से संघर्ष, 4 साल के बच्‍चे को बचाने के लिए जुटी सेना, देशभर में प्रार्थनाओं के दौर,... और जीत की जिंदगी. हम 2006 से अखबारों और टीवी चैनल्‍स में ऐसी हैड लाइन्‍स देखने के आदि हो गए है. भारत में बोरवेल एक ऐसा जानलेवा शब्द बनता जा रहा है, जिसने गुजरे सालों में कई मासूम बच्चों की जान ली है. 2006 की सीमा रेखा इसलिए मानी गई कि क्‍योंकि जुलाई 2006 में हरियाणा के कुरुक्षेत्र में प्रिंस नामक बच्चे के बोरवेल में गिरने का मामला देश भर में चर्चा का विषय बना था. तब प्रिंस की जान बचा ली गई लेकिन बोरवेल में बच्‍चों के गिरने का सिलसिला नहीं रूका.


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साल 2012 में हरियाणा के ही मानेसर में 5 वर्षीय बच्ची की बोरवेल में गिरकर मौत हो गई थी. ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी देख वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने बोरवेल से जुड़े कई दिशा-निर्देशों में सुधार करते हुए कई नई बातों को भी जोड़ा. लेकिन आज भी कई ऐसी जगहे हैं, जहां गड्ढे खोदकर यूं ही छोड़ दिए गए हैं और उस पर ढक्कन नहीं लगा है. इसी कारण बोरवेल के लिए खोदे गए उन गड्ढों में बच्चों के गिरने का सिलसिला आज भी जारी है. 11 मार्च को आधी रात मप्र के देवास जिले के उमरिया गांव में बोरिंग के 36 फीट गहरे गड्ढ़े में गिरे चार बरस के रोशन को 36 घंटे बाद सुरक्षित बाहर निकला गया. बच्‍चे के कुशल बचने के बाद ज़िन्दगी की जंग जीत लेने का जश्‍न जरूर मना मगर यह शासन-प्रशासन की लापरवाही को एक ओर तमगा है कि आखिर वह सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन तो ठीक बच्‍चों की जान को लेकर भी गंभीर नहीं है. जब तक यह लापरवाही बनी रहेगी बच्‍चों के प्राण ऐसे ही संकट से घिरते रहेंगे और हम बच्‍चों को बचा लेने पर बहादुरी के गीत गाते रहेंगे.


यहां यह बताना उचित होगा कि खातेगांव के उमरिया में शनिवार 10 मार्च की दोपहर 11 बजे अन्य बच्चों के साथ खेलते खेलते 4 वर्षीय बालक रोशन एक सूखे बोरिंग के 30 फीट गहरे होल में जा गिरा था जबकि उसकी माँ वहीं पास के खेत में गेंहू कटाई का काम कर रही थी. शनिवार दोपहर से शुरू हुआ रेस्क्यू आपरेशन रविवार रात साढ़े दस बजे तक निर्बाध रूप से चला. रविवार रात नौ बजे के करीब जब और खुदाई करना संभव नही हो पा रहा था तो सेना ने नई रणनीति अपनाते हुए रोशन को रस्सी के सहारे उपर खींचने की पहल की और गहरी सूझबूझ से हुए इस आपरेशन से मात्र आठ मिनट में ही रस्सी के सहारे रोशन गड्ढ़े से बाहर आ गया. बहुत खुशी है जब ऐसे ‘रोशन’ मौत की गहरी अन्धी सुरंग से ज़िन्दगी के उजाले में लौट आता है. मगर, सवाल यह है कि ऐसे संकट उपस्थित होते ही क्‍यों हैं?


हम ऐसे अवसरों पर प्रार्थनाएं करने में पीछे नहीं रहते मगर वे लोग भी तो हमारे ही समाज का हिस्‍सा हैं जो बोरवेल के मुंह को खुला छोड़ देते हैं. कुछ लोग चंद पैसा बचाने के लिए बोरवेल के मुंह पर लोहे का ढ़क्‍कन नहीं लगाते तो कुछ लगे ढ़क्‍कनों को चुरा कर ले जाते हैं. फिर प्रशासनिक स्‍तर पर भी घोर लापरवाही देखने में आती है. ऐसे कई हादसों के बाद स्‍थानीय प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिया. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश हैं कि बोरवेल खुदवाने के 15 दिन पहले डीएम, ग्राउंडवाटर डिपार्टमेंट, स्वास्थ्य विभाग और नगर निगम को सूचना देनी होती है.


गांवों में बोरवेल की खुदाई सरपंच और कृषि विभाग के अफसरों की निगरानी में करानी जरूरी है, जबकि शहरों में यह काम ग्राउंड वाटर डिपार्टमेंट, स्वास्थ्य विभाग और नगर निगम इंजीनियर की देखरेख में होना आवश्यक है. इसके साथ, बोरवेल खोदने वाली एजेंसी का रजिस्ट्रेशन भी होना चाहिए. बोरवेल खुदवाने वाले के लिए यह जरूरी है कि वह खुदाई की जगह बोर्ड लगाकर वहां खतरे की जानकारी दे. खुदाई की जगह को कंटीले तारों से घेरना होता है या बोरवेल के आसपास कंक्रीट की दीवार खड़ी करनी होती है. गड्ढे का मुंह लोहे के ढ़क्कन से ढंकना होता है.


गौर कीजिए, अगर इन निर्देशों का पालन हुआ हो तो कई बच्‍चों की जान बचाई जा सकती थी. होना यह चाहिए कि राज्य सरकारें तथा स्‍थानीय निकाय उन सभी बोरवेल की पहचान करें, जो आज भी खुले पड़े हैं. उन्हें तत्काल बंद करवाने की पहल करे. सवाल सिर्फ बोरवेल का ही नहीं है, शहरों में मैनहोल के ढक्कन खुले रहते हैं. उनमें गिरकर भी कई लोगों की जानें जा चुकी हैं. अक्सर सड़कें खोदी जाती हैं, लेकिन उस क्षेत्र को भी घेर कर रखने की कोई व्यवस्था नहीं होती. गड्ढे भी तत्काल नहीं भरे जाते, जिससे दुर्घटनाएं होती हैं. सरकारों को इस बारे में निर्माण एजेंसी से सख्ती के साथ पेश आना चाहिए. हमें भी एकजुट होकर शासन-प्रशासन और निर्माण एजेंसी की लापरवाही के खिलाफ एक मुहिम छेड़नी होगी ताकि बोरवेल खोदने वाले ही उस पर स्‍थाई ढ़क्‍कन लगाने का कार्य करें.


यदि ऐसा न हुआ तो मासूमों की जिंदगी के साथ ऐसे ही खिलवाड़ होता रहेगा. क्‍या हम यह खिलवाड़ वहन कर सकते हैं?


ट्यूबवेल और बोरवेल से होने वाले हादसों पर एक नजर


28 जनवरी 2006
इंदौर में तीन साल का दीपक बोरवेल के 22 फीट गहरे गढ्डे में खेलते-खेलते अचानक गिरकर फंस गया था. कई घंटे की मशक्कत के बाद दीपक को सकुशल बाहर निकाल लिया गया.


23 जुलाई 2006
हरियणा के प्रिंस को अब तक कोई नहीं भूला होगा जो खेलते-खेलते अचानक ट्यूबवेल के लिए खोदे गए गढ्डे में गिर गया था. बच्चे को बचाने के लिए 'ऑपरेशन प्रिंस' चलाया गया था. सेना ने बड़ी सावधानी से इस ऑपरेशन को अंजाम दिया और कुरुक्षेत्र के प्रिंस को बचा लिया गया.


2 जनवरी 2007
झांसी के पास एक गांव में 30 फीट गहरे गड्ढे में फंसे ढाई साल के बच्चे की मौत हो गई थी. 18 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद जब सेना ने बच्चे को गड्ढे से निकाला तब तक वो मर चुका था.


4 फरवरी 2007
मध्य प्रदेश के कटनी जिले में तीन साल का एक मासूम अमित 60 फीट गहरे गड्ढे में गिरकर फंस गया था. सेना की मदद से 5 फीट की दूरी पर दूसरा गड्ढा खोदकर उसे निकालने का काम शुरू हुआ. करीब 11 घंटे की मशक्कत के बाद अमित को गड्ढे से सकुशल निकाला जा सका था.


9 अक्टूबर 2008
आगरा के पास लहरापुर में 65 फीट बोरवेल में गिरने से दो साल के सोनू की मौत हो गई थी. दरअसल, सोनू खेलते-खेलते खुले मुंह वाले बोरवेल में गिर गया था. सेना और प्रशासन की टीम का अभियान भी उसकी जान न बचा सका था.


9 नवंबर 2008
कन्नौज में भगरवाड़ा गांव में 60 फीट गहरे बोरवेल में फंसे पुनीत को 18 घंटों की कोशिशों के बावजूद जिंदा बाहर नहीं निकाला जा सका था. पुनीत भी खेलते-खेलते ही खुले बोरवेल में गिर गया था.


21 जून 2009
राजस्थान के दौसा में 200 फीट गहरे एक बोरवेल में चार साल की अंजू गिर गई थी. 21 घंटे की जद्दोजहद के बाद अंजू को बचा लिया गया था.


17 सितंबर 2009
गुजरात के साबरकांठा जिले में 11 वर्षीय चिंतन 100 फीट गहरे बोरवेल में गिरा और 40 फीट की गहराई में फंसा गया. कई घंटों की कड़ी मशक्कत के बाद चिंतन को बाहर निकाल लिया गया. लेकिन अस्पताल ले जाते वक्त उसकी मौत हो गई.