नेहरू को वंदना और आलोचना की नहीं, जानने की जरूरत है
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी उच्च शिक्षा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से ग्रहण की थी. अपने छात्र जीवन से ही वह फेबियन समाजवाद (fabian socialism) और सोवियत संघ की विचारधारा से कुछ हद तक प्रभावित थे जिसकी झलक प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके द्वारा बनाई गई नीतियों में देखने को मिलती है.
“हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,
जिस को भी देखना हो कई बार देखना.”
जाने-माने उर्दू शायर और फिल्मी गीतकार निदा फ़ाज़ली का यह शेर स्वतंत्रता सेनानी और भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के ऊपर एकदम सटीक बैठता है, खास तौर पर आज के समय में जब उनको लेकर सोशल-मीडिया पर बहुत अधिक बहस होती है. अमूमन इस प्रकार की बहसों में तथ्य के बजाए व्यक्तिगत पसंदगी/नापसंदगी को प्राथमिकता दी जाती है, जिस कारण वो और भी ध्रुवीकरण पैदा करती है. एक तरफ़ नेहरू के समर्थक हैं जो उन्हें भगवान की तरह किसी भी प्रकार की जायज़ नुक़्ताचीनी से परे मानते हुए उनका अपार महिमा-मंडन करते हुए नहीं थकते हैं. वहीं दूसरी तरफ़ उनके अंध-आलोचक भी बिना कुछ सोचे-समझे उनको हर चीज़ के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं.
दिलचस्प बात यह भी है कि उनके कट्टर समर्थकों और आलोचकों के बीच एक चीज़ समान है. वह यह है कि दोनों ही पंडित नेहरू को उन अच्छी-बुरी चीज़ों का श्रेय तक देते हैं जिसमें उनका शायद कोई योगदान हो ही न. हमारी पीढ़ी में, जिसमें संतोष और सहिष्णुता की भारी कमी है, यह ध्रुवीकरण सबसे ज़्यादा देखने को मिलता है. पंडित नेहरू के बारे में किसी भी निर्णय पर पहुंचने के लिए आवश्यकता है उनके व्यक्तित्व के सभी पहलुओं को देखने-समझने की और फिर उसके ऊपर टिप्पणी करने की. और ऐसा करते हुए हम पाएंगे कि नेहरू किसी भी अन्य नेता और मनुष्य की तरह थे, जिन्होंने निश्चित ही देश के लिए बहुत कुछ किया लेकिन इस दौरान कुछ ग़लतियाँ भी कीं, जिसका दोष उनके ऊपर से हटाया नहीं जा सकता है. हालांकि उनकी ग़लतियों के पीछे उनकी क्या मंशा रही होगी ये कह पाना बहुत ही मुश्किल है.
पंडित नेहरू का जन्म 14 नवंबर, सन 1889 में इलाहाबाद में हुआ था. उनके पिता मोतीलाल नेहरू न सिर्फ कांग्रेस के बड़े नेता, स्वतंत्रता सेनानी थे बल्कि एक प्रसिद्ध अधिवक्ता भी थे. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका बहुत ही बड़ा योगदान रहा है. सन 1928 में उनके द्वारा निर्मित ‘नेहरू रिपोर्ट’ भारत के संविधान की इतिहास-यात्रा में मील के पत्थर के रूप में जानी जाती है. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी उच्च शिक्षा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से ग्रहण की थी. अपने छात्र जीवन से ही वह फेबियन समाजवाद (fabian socialism) और सोवियत संघ की विचारधारा से कुछ हद तक प्रभावित थे जिसकी झलक प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके द्वारा बनाई गई नीतियों में देखने को मिलती है. उन्होंने देश के विकास के लिए विज्ञान को बढ़ावा देने की खातिर इसरो, आईआईटी जैसे संस्थानों की आधारशिला रखी.
वह कट्टर धर्म-निरपेक्षता की परिभाषा भी इसी विचारधारा में गढ़ी थी, जिसकी बहुत आलोचना भी होती है. इसी धर्मनिरपेक्षता के चलते उन्होंने गुजरात के प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर पुनर्निर्माण के उद्घाटन समारोह में जाने से तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को मना किया था, जिसको वो नहीं माने.
एक तरफ़ उनके आलोचक उनको देश की खराब हालत, आर्थिक पिछड़ेपन और व्यापक गरीबी के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं, क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता के उपरांत पूंजीवादी व्यवस्था को न अपना के ‘मिश्रित आर्थिक प्रणाली’ को अपनाया जिसका झुकाव परोक्ष रूप से समाजवादी व्यवस्था की तरफ़ अधिक था. लेकिन वो लोग न तो उस समय की परिस्थिति को समझ पाते हैं और न प्रसंग को. भयानक गरीबी, अशिक्षा, बंटवारे, सामाजिक पिछड़ेपन और भुखमरी का दंश झेल रहे इतने बड़े देश के लिए अपनी जनता को उसके उत्थान के लिए बाज़ार के सहारे छोड़ देने से देश में यह समस्याएं और व्यापक हो जाती. ऐसे में उन्होंने ‘राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था’ को चुना ताकि देश में न केवल विकास हो सके, बल्कि उस विकास का फल भी सभी देशवासियों तक समान रूप से पहुंच सके.
नेहरू की आलोचना का एक बहुत बड़ा कारण है भारतीय विदेश-नीति में उनकी गुट-निरपेक्षता की विचारधारा को बढ़ावा देना. उनके आलोचक कहते हैं कि ऐसा करके एक तो भारत अमेरिका से दूर चला गया और विकास को दौड़ में इसलिए पीछे रह गया और दूसरा वो गुट-निरपेक्षता के नाम पर सोवियत संघ की ओर झुका रहा. वास्तव में इसके पीछे उनका आदर्शवाद नहीं बल्कि यथार्थवाद छुपा था. वे अच्छी तरह समझते थे कि यदि नया-नया स्वतंत्र भारत शीत-युद्ध में किसी भी गुट के साथ जाएगा तो उसको दूसरे गुट की शत्रुता मोल लेनी पड़ेगी और उसकी सामरिक स्वायत्तता पर प्रभाव पड़ेगा. इसी लिए उन्होंने गुट-निरपेक्षता को चुना ताकि भारत दोनों ही खेमों से लाभ अर्जित कर सके.
हालांकि दो मोर्चों पर उनका आदर्शवाद उन पर भारी पड़ गया, जिसका खामियाजा उनके साथ-साथ पूरे देश को उठाना पड़ा. यह मोर्चे थे कश्मीर और चीन. मुझे लगता है कि कश्मीर मुद्दे पर उन्होंने अपने आदर्शवाद और वैश्विकवाद के चलते भारतीय सेना के ऊपर भरोसा नहीं किया जो 1948 में पाकिस्तानी कबाइलियों को भगा कर पूरे जम्मू कश्मीर को भारत में विलय कराने में सक्षम थी, बल्कि वे इस मुद्दे को शांति से सुलझाने के नाम पर संयुक्त राष्ट्र ले गए जहां आज भी यह मामला लंबित है और जिसकी वजह से जम्मू कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान और चीन के कब्जे में है.
वहीं चीन को लेकर भी वो अपने आदर्शवाद, समाजवाद और ‘एशियाई एकजुटता’ की विचारधारा के चलते चीन की वास्तविक मंशा को कभी समझ न सके और बड़ा धोखा खा गए. इसका नतीजा यह हुआ कि 1962 में भारत को चीन के साथ युद्ध करना पड़ा और जिसमें भारत को हार का सामना करना पड़ा. वे ‘पंचशील’ और ‘हिंदी-चीनी, भाई-भाई’ का नारा देते रहे और चीनी भारत के अंदर घुस कर भारत से लड़ कर जीत गया.
नेहरू के 129वें जन्मदिवस पर उनको याद करते हुए न तो हम उनके गुणों को नकार सकते हैं और न ही उनकी खामियों को. लेकिन इस तथ्य को कोई झुठला नहीं सकता कि स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद लोकतंत्र को स्थापित करने में उनकी भूमिका बहुत ही खास रही है जिस कारण आज भी उनको याद किया जाता है.
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के शोधार्थी हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)