आज एक भारतीय आत्मा पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का जन्मदिन है. बड़ी-बड़ी मूर्तियां गढ़ने और स्थापित मूर्तियों को तोड़ने के इस दौर में उन्हें याद करना क्यों जरूरी लगता है. इसलिए कि उनके बारे में कहा जाता है कि वह कर्म से योद्धा, हृदय से कवि, बुद्धि से चिंतक और स्वभाव से संत थे. वह ऐसे राजनीतिज्ञ भी थे जो मुख्यमंत्री पद की दौड़ में होने के बाद भी कांग्रेस पार्टी से नाता तोड़ लेते हैं. वह ऐसे वक्ता भी थे जिनके ओजस्वी भाषण को सुनकर अंग्रेजी के प्रबल समर्थक लार्ड सच्चिदानंद सिन्हा भी उनके सम्मान में भोज कर देता है. क्या यह संभव नहीं था कि 'पुष्प की अभिलाषा' रचने वाला यह कवि अपने लिए दो-चार मूर्तियां ही गढ़वा लेता. आखिर पहली बार किसी कवि के घर जाकर उसका सम्मान करने का भी जतन तो माखन दादा के लिए ही किया गया. लेकिन देखिए कि फिर भी इस कवि की अंतिम इच्छा क्या कहती है…


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

चिमनियों, भट्टियों और रेल के इंजनों के धुएं से दूर किसी गांव में मेरी समाधि बने, जहां चाहे नागरिक मेरा जीवन चरित्र न गा सकें, वे मेरी पुण्य तिथि न मना सकें, किंतु थकी हुई ग्रामीण बहनें सिर पर पानी के घड़े तथा घास के बोझे को मेरी समाधि पर उतारकर थोड़ी देर विश्राम ले सकें. गांव के नन्हें खेलते बच्चे समय पर चरण धूलि जिस समाधि पर नित्य चढ़ा आया करें, वह हो मेरा गांव.


यह भी पढ़ें- सोचिए और ऐसी मिसालों से सबक लीजिए


वास्तव में 'पुष्प की अभिलाषा' के बहाने जीवन के तमाम ऐश्वर्य को देश के लिए न्योछावर कर देने वाला कवि अपने ​जीवन के बारे में भी ऐसी ही अभिलाषा रखता है. अलबत्ता उनकी इस ​अभिलाषा को कितना पूरा किया जा सका, इसका हिसाब हम एक भारतीय आत्मा को नहीं दे सकते. 'कर्मवीर' के जरिए पत्रकारिता को आयाम देने के लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया.


पंं. माखनलाल चतुर्वेदी को भारत सरकार ने 1963 में पद्मभूषण से सम्मानित किया था (फाइल फोटो)

यह भी पढ़ें- हम बुनियाद गढ़ने में ही तो गलती नहीं कर रहे


एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि…
सच पूछो तो गरीबी का व्रत लेकर ही प्रखर राष्ट्र सेवा सार्वजनिक सेवा की जा सकती है, यह सुधार समझौते वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली.


इस प्रखर पत्रकार के नाम पर एक पत्रकारिता विवि भी बनाया गया, लेकिन उस पर एक खास विचारधारा को लेकर तमाम विवाद खड़े हो गए. पत्रकारिता के इस विवि पर अपनी गुणवत्ता को खो देने का भी आरोप है. आरोप तो पत्रकारिता के पूरे चेहरे पर भी है. स्थिति इतनी बदतर मानी जा रही है कि अब फेक न्यूज पर नियंत्रण कर लेने के लिए सीधे तौर पर पत्रकारों को दायरे में लिया जा रहा है और उनकी अधिमान्यता को समाप्त तक कर देने के फरमान जारी किए जा रहे हैं. चिंता में फेक न्यूज आ जाती है, पर स्टिंग ऑपरेशन कर अपने पेशे को अंजाम दे रहे पत्रकारों को आवेदन के बाद भी सुरक्षा देने में सरकारें नाकाम हो जाती हैं. अब मसला केवल गरीबी का व्रत लेकर पत्रकारिता करने का नहीं है, मसला अपनी मौत को अपने हाथ में लेकर काम करने का है. आवाज उठाने की अब देश में क्या सजाएं मिल रही हैं, इससे सभी वाकिफ हो रहे हैं.


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)