हाल ही में मध्यप्रदेश सरकार ने बच्चों का तनाव कम करने, अवसाद से बचाने और आत्महत्या की प्रवृत्तियों को रोकने के लिए एक समिति का गठन किया गया है.
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हाल ही में मध्यप्रदेश सरकार ने बच्चों का तनाव कम करने, अवसाद से बचाने और आत्महत्या की प्रवृत्तियों को रोकने के लिए एक समिति का गठन किया. इस समिति ने चार पन्नों में अपने सुझाव दिए हैं. इसमें स्कूल, शिक्षा प्रणाली, परिवार, समाज और मीडिया के लिए एक एडवाइजरी जारी की है. इसके साथ ही शिक्षा विभाग ने अपने सभी जिलों के शिक्षाधिकारियों को पत्र लिखकर कहा है कि स्कूलों में प्रेरक उद्धरण लिखवाए जाएं, साथ ही ऐसे लोगों के बारे में बताया जाए जो पढ़ाई में तो ठीक नहीं थे, लेकिन उन्होंने दूसरे क्षेत्रों में सफलता अर्जित की, जैसे धीरूभाई अंबानी, सचिन तेंदुलकर, अक्षय कुमार, बिल गेट्स, स्टीव जॉब्स आदि.
अच्छी बात है कि सरकार बच्चों के तनाव और आत्महत्याओं को लेकर चिंतित है और इसके लिए वह कुछ पहल करने जा रही है, पर सवाल यह है कि क्या इतना भर कर देने से आत्महत्या के मामले रुक जाएंगे. यह कोई नई बात तो नहीं है कि स्कूल की दीवारों पर प्रेरक उद्धरण लिखे जाते हों, या फिर बच्चों को एक दो ऐसे लोगों के बारे में बताया जाए जो पढ़ाई में अच्छे नहीं थे.
इस बात से सहमत हुआ जा सकता है क्योंकि हर बच्चे में भिन्न किस्म की क्षमता होती है, और उसकी उसी रचनात्मकता को आयाम मिले तो वह बेहतर करेगा ही, अलबत्ता हमारा स्कूल, शिक्षा प्रणाली, परिवार और समाज उसे वह माहौल दे पाते हैं या नहीं दे पाते हैं. भारत जैसे देश में जहां कि सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को लगातार कमजोर होते देखा जा रहा हो, वहां अब न सचिन तेंदुलकर बनने के लिए ढंग के मैदान और खेलसामग्री है, न ही वहां एक्टिंग की कक्षाओं को किसी नियमित पाठ्यक्रम में ठीक उसी तरह शामिल किया जाता है. क्लास में भी सम्मान के नजरिए से उसी को देखा जाता है जो मार्कशीट में सबसे बेहतर नंबर लाता हो, पर सम्मान तो कक्षा में सबसे तेज दौड़ने वाले बच्चे का, अच्छा चित्र बनाने वाले बच्चे का, अच्छा गाना गाने वाले का भी तो होना चाहिए, यही हम नहीं कर पाते. यह केवल एक राज्य का विषयभर नहीं है, यह ऐसी समस्या है जो हर कहीं व्याप्त है, और इसका हल भी इतना आसान नहीं है.
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आंकड़ों के नजरिए से देखें तो 2001 से 2015 के बीच देश में 18 लाख 41 हजार 62 लोगों ने विभिन्न कारणों से आत्महत्याएं की हैं. एनसीआरबी के मुताबिक इनमें से 99591 विद्यार्थी थे. इनमें से भी यदि परीक्षा में असफल होने की वजह से देखा जाए तो 34525 का बड़ा आंकड़ा हमारे सामने आता है. यह बहुत गंभीर आंकड़े हैं, यह बहुत गंभीर बीमारी है इसे इतने आसानी से हल नहीं किया जा सकता है. देश के बच्चों को एक तनावमुक्त, स्पर्धामुक्त पाठ्यक्रम चाहिए. उनके बस्ते का बोझ कम किया जाना चाहिए. उनके पाठ्यक्रम को उनके आसपास से जोड़कर अनुकूल बनाया जाना चाहिए, पर ऐसा हो रहा होता, तो यह बीमारी घटने की बजाए बढ़ती क्यों.
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सबसे बड़ी बात तो यह भी है कि इसे बाजार से बचाया जाना चाहिए. बाजार की मुनाफे की नीतियों से संचालित होता निजी स्कूलों का पाठ्यक्रम एक और बड़ा संकट लेकर आ रहा है. आखिर क्या कारण है कि किसी स्कूल में तो बच्चों को छह—सात किताबों में पूरा नॉलेज मिल जाता है और किन्हीं स्कूलों में बच्चे 16—17 किताबें लेने को मजबूर हैं. एक स्कूल की किताबें पांच सौ रुपए में आ जाती हैं और उसी कक्षा के एक दूसरे स्कूल के लिए पांच हजार रुपए चुका कर आना पड़ता है. इसे कौन देखेगा? इस पर नियंत्रण कौन करेगा ? यदि किताबों और स्कूलों में ही इतनी गैरबराबरी रहेगी तो हमारा समाज आगे जाकर कैसे बनेगा, सोच लीजिए. सोच लीजिए हम जैसी बुनियाद गढ़ते हैं इमारत भी वैसी ही खड़ी होती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)