अगर आपके पास पारखी निगाह और संवेदना से भरा मन है तो रेखाकृतियों में बनती संवरती लोक छवियों का सुहाना संसार आपको देर तक घेर सकता है. कागज पर उभरी इन रेखाओं में एक कलाकार की कल्पित दुनिया हमारा ध्यान उस बिछुड़ते और ओझल किंतु ललित और आत्मीय जीवन-प्रसंगों की ओर ले जाती है जो हमारी बुनियादी पहचान, तरक्कियों, दुश्वारियों और खुशियों की कहानी कहते हैं.


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इस इबारत के आसपास फैला है ब्रजेश बड़ोले का सृजन. मध्यप्रदेश के पश्चिमी छोर पर बसे निमाड़ के एक छोटे से देहात में ब्रजेश सरकारी मुलाजिम हैं, लेकिन कला-साहित्य के जगत में उनके रेखाचित्रों और जनपदीय बोली (निमाड़ी) में रची गई कविताओं ने उन्हें नया कद और प्रसिद्धि दी है. बेशक, ब्रजेश ने पहचान के पंख पसार लिए हैं और उनके रेखाचित्रों के आसपास उमड़ता कौतुहल उन्हें गर्वोचित प्रसन्नता देता है लेकिन उनकी रेखागतियों, बिंबों, प्रतीकों, आशयों और विषय-वस्तु को ठीक संदर्भों में अंकित कर लेने के प्रतिभा-कौशल को देख जरा हतप्रभ होना पड़ता है.



हैरत के साथ ही भला भी लगता है कि इतने परिष्कार के साथ अपनी रचना में प्रकट हुए गांव के इस वाशिंदे ने न तो कभी कला की विधिवत तालीम के नाम पर किसी स्कूल में दाखिला लिया और न ही, किसी गुरुकुल या मठ की शरण ली. ब्रजेश आत्म प्रशिक्षित कलाकार हैं. परंपरा ही उनकी गुरु है जिसकी पूंजी पूर्वजों से हासिल है. ब्रजेश को अपनी निमाड़ की धरती और वहां की लोकरंगी संस्कृति से अगाध प्रेम है. यह बहुत स्वाभाविक भी है, लेकिन इस प्रगाढ़ आत्मीयता को अभिव्यक्त करने और धीरे-धीरे धूसर पड़ती जा रही उसकी असल छवि के दस्तावेज तैयार करने की मंशा से उन्होंने कोरे कागज पर काली रेखाओं का प्रकाश बिखेरना शुरू किया. इन रेखाओं में निमाड़ की मधुमय संस्कृति पूरे साज-श्रृंगार के साथ उभर आई है. धरती के छंद गाता-गुनाता किसानी जीवन, वहां की लोककलाएं, संस्कार, रीति-रिवाज परंपरा और प्रकृति ब्रजेश के चित्रावण का हिस्सा बनते रहे हैं. जीवन का उत्सव मनाती हैं ब्रजेश की रेखाएं. जटिलता के बोझ से निकलर सहज अपनापे का राग गाती हैं. स्मृतियों में लौटाती हैं. कभी सपनों की डोर थामती हैं, उमंग से छलछलाती हैं, तो कभी असंगति की खिलाफत करती दिखाई देती हैं. उनकी अभिव्यक्ति का जरिया रेखाचित्र हैं, कविता है, व्यंग्य है और हाल ही कोलाज़ चित्रों को लेकर भी हाथ साधने का उपक्रम उन्होंने किया है.


ब्रजेश की कला को समग्रता में देखें तो यह धारणा साफ होती है कि संसाधनों की गरज से परे मन की सच्ची लगन खामोशी से अपने उत्कर्ष का रास्ता तलाश लेती है. बकौल बड़ोले, 'बचपन गांव में बीता. जिस माहौल में जिया उसी की छाप मेरे काम में दिखाई देती है. अपनी कला को निखारने और दूसरों के काम को समझने के लिए हर विधा के कलाकार और विद्वानों से संवाद बनाने में हिचका नहीं. मेरे सोच का दायरा बढ़ा. भीतर की आंखें खुलीं. जो किया, उससे बेहतर रचने की कोशिश जारी रखी.'



राहत की बात यह भी कि ब्रजेश की कला के पक्ष में उनका पूरा परिवार खड़ा रहा. मित्र भी सदाशयी मिले. महत्वाकांक्षी होना किसी भी कलाकार का नैसर्गिक गुण है, लेकिन ब्रजेश ने अपनी स्थापना के लिए राजनीतिक गठजोड़ या मौकापरस्ती को प्रश्रय नहीं दिया. वे अपनी काबिलियत और व्यक्तित्व के सहारे कामयाबी की पायदान तय करते रहे हैं. दुश्वारियां राहों में कम तो नहीं, बावजूद सफर जारी रखना चाहता है यह चितेरा, इस कौतुहल के साथ कि हर मोड़ पर जिंदगी का कोई पोशीदा रंग उसका दामन थामे और उसे वे किसी कोरे कागज पर थाम ले.


(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)