अपने शहर से किसी भी प्रतिनिधि का देश का प्रधान मंत्री बनना उस शहर के हर निवासी के लिए हमेशा गर्व की बात है और रहेगी. लेकिन यदि यह प्रतिनिधि कोई ऐसा व्यक्ति हो जो मूलतः उस शहर का निवासी न रहा हो, और उसके बावजूद उसे शहरवासियों का अपार प्रेम मिला हो, तो निश्चित तौर पर यह उसके व्यक्तित्व के आकर्षण का ही प्रतीक है. कुछ ऐसा ही व्यक्तित्व था अटल बिहारी वाजपेयी का, जो 16 अगस्त 2018 को यह दुनिया छोड़ गए, लेकिन लखनऊ के लोगों के ह्रदय में वे सदा अपने मुस्कुराते चेहरे और सहज व्यवहार के लिए हमेशा जीवित रहेंगे.


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लखनऊ में उनके निधन के समाचार से एक गहरी उदासी छा गई और शहर के चौराहों, सार्वजनिक स्थानों, काफी हाउस और राजनीतिक दलों के कार्यालयों में इस कदर सन्नाटा देखने को मिला जो वास्तव में एक राष्ट्रीय शोक का परिचायक था. कांग्रेस, समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं में भी इस विशाल हृदय वाले राजनेता के हमेशा के लिए चले जाने पर दुःख था.


करीब तीन साल पहले, जब 27 मार्च 2015 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किया था, तो वह शायद अंतिम बार था कि लखनऊ समेत शेष भारत के लोगों ने वाजपेयी की कोई फोटो देखी होगी. और उस फोटो में उनका जो शांत, स्थिर चेहरा दिखा था, उससे कहीं अलग वह छवि है जो आम लखनऊ वासी को याद है. इस सम्मान को मिलने पर सभी की राय यही थी कि यह वास्तव में उस सम्मान का भी सम्मान था की वह अटल जी को मिला. उनकी सहृदयता, सहज मुस्कान और लोगों से बिना किसी दिखावे के मिलना उन सभी लोगों को याद है जो वर्ष 1991 से 2004 के बीच उनसे लखनऊ में तमाम मौकों पर मिले होंगे. उनका मिठाई प्रेम, चाय का शौक, कविताओं की पंक्तियाँ सुना देना, और पुराने लखनऊ से ख़ास लगाव आज भी लखनऊ वासियों को याद है. पुराने लखनऊ की प्रसिद्द ठंडाई की दुकान पर वे अक्सर किसी सहयोगी के साथ यूँ ही पहुँच जाते थे, और एक बार तो वे यहाँ किसी सहयोगी के साथ साइकिल पर बैठ कर चले आये थे. इस ठंडाई का जिक्र वे उन दिनों लखनऊ व अन्यत्र अपनी सभाओं में भी अक्सर किया करते थे. चौक की ही कुछ दुकानों से मिठाई, ख़ास तौर पर पेड़ा उन्हें विशेष पसंद थी. लखनऊ से जो भी उनसे मिलने दिल्ली जाता था वह वाजपेयी के लिए इस दुकान से पेड़ा जरूर ले जाता था.


लखनऊ के मेयर रहे स्वर्गीय डा. एस.सी. राय भी वाजपेयी के काफी करीब रहे थे. कुछ वर्ष पूर्व डा. राय ने एक चर्चा में बताया था कि वाजपेयी को बागबानी का भी शौक था और वे


बोनसाई (गमलों में ख़ास तरीके से उगाये जाने वाले पेड़) पद्धति के बारे में रूचि रखते थे और पूछते थे.


पुराने लखनऊ के निवासी, कई बार विधायक और एक बार सांसद रहे भारतीय जनता पार्टी के नेता लालजी टंडन वाजपेयी के करीबी रहे हैं, और 90 के दशक में वाजपेयी की हर लखनऊ यात्रा पर लगातार उनके साथ रहते थे. वर्ष 2009 में जब वाजपेयी ने लोक सभा चुनाव लड़ने की अनिच्छा जताई थी, तो टंडन ही यहाँ से भाजपा सांसद चुने गए थे. कहना गलत नहीं होगा कि टंडन को वाजपेयी के प्रतिनिधि और निकटता की वजह से लोगों का समर्थन मिला था.


अपने लखनऊ प्रवास के दौरान वे पार्टी के पुराने लोगों को ख़ास तौर पर पूछते थे और पार्टी के अन्दर चल रहे घटनाक्रम के बारे में जानकारी रखते थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी वरिष्ठ सदस्य उनसे मिल कर चर्चा करने के लिए तत्पर रहते थे. प्रदेश भाजपा के पुराने नेता याद करते हैं कि वाजपेयी के लखनऊ आने के दौरान उनके कक्ष में गंभीर बातों के अलावा ठहाकों, कविताओं और चुटकुलों का भी दौर चलता रहता था. उस समय उनसे मिलने वाले तमाम पत्रकार साथी भी याद करते हैं कि वे दिल्ली की राजनीति के साथ लखनऊ जिले की भाजपा गतिविधियों के बारे में गहरी बाते बड़ी आसानी से किया करते थे.


लखनऊ से 1996 में समाजवादी पार्टी के राज बब्बर को हराने के बाद एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि वे लखनऊ के सुधार के लिए कुछ दीर्घ-कालीन योजनाओं पर विचार कर रहे थे. इसी के बाद उन्होंने लखनऊ को दो सौगातें दी थीं – एक है अमर शहीद पथ, जो लखनऊ से कानपुर, राय बरेली, सुल्तानपुर और फैजाबाद की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों (नेशनल हाईवे) को जोड़ने वाला एलिवेटेड रोड है, और दूसरा है पुराने लखनऊ में बना साइंटिफिक कन्वेंशन सेंटर, जो लखनऊ में होने वाले बहुत बड़े सम्मेलनों के लिए एक प्रतिष्ठित स्थान है. साथ ही, लखनऊ-गोरखपुर हाईवे को देश के प्रतिष्ठित स्वर्णिम चतुर्भुज (गोल्डन क्वाड्रीलेटरल) से जोड़ने में भी वाजपेयी की अहम् भूमिका थी.


वाजपेयी लखनऊ से लगातार पांच बार लोक सभा के लिए चुने गए थे. वर्ष 1991 में उन्होंने कांग्रेस के लगभग अपरिचित प्रत्याशी रंजीत सिंह को करीब 1.20 लाख वोट से हराया. गौरतलब है कि इस चुनाव में 1989 में जीते जनता दल के मान्धाता सिंह चौथे स्थान पर रह गए थे. वर्ष 1996 में वाजपेयी ने उस समय समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी राज बब्बर को भी करीब 1.20 लाख वोट से हराया था. वर्ष 1998 के चुनाव में भी वाजपयी ने सपा के ही एक और फिल्म जगत से जुड़े प्रत्याशी मुज़फ्फर अली को 2.20 लाख वोट से पराजित किया था. फिर 1999 में उन्होंने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डा करण सिंह को लगभग 1.23 लाख वोट से हराया. वर्ष 2004 में वाजपेयी ने अंतिम बार लखनऊ से चुनाव लड़ा, और सपा की मधु गुप्ता को 2 लाख से ज्यादा वोट से हराया. इस चुनाव में प्रख्यात वकील राम जेठमलानी भी एक प्रत्याशी थे. वाजपेयी ने 2009 का चुनाव नहीं लड़ा और उनकी जगह लालजी टंडन


मैदान में आये और जीत हासिल की. यह बात भी कम लोगों की जानकारी में है कि वाजपेयी ने वर्ष 1952, 1957 और 1962 का लोक सभा चुनाव भी भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में लड़ा था, लेकिन तीनो बार वे हार गए थे.


आने वाले समय में लखनऊ ही नहीं बल्कि देश के निवासी भी वाजपेयी को देश की राजनीति में एक सभ्य, सुसंस्कृत और सहनशील व्यक्तित्व के रूप में याद करेंगे.


(रतनमणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार है)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)