भारत की न्याय प्रणाली बच्चों को न्याय नहीं दिला पाती है. इसमें तीन महत्वपूर्ण पहलू हैं; पहला-मामलों का दर्ज नहीं होना, दूसरा-मामले दर्ज होना, किन्तु उन पर निर्णय होने में बहुत देरी होना और तीसरा-अदालती प्रक्रिया के अंत में लभग 70 प्रतिशत मामलों में किसी का दोषी साबित न होना. जरा कल्पना कीजिये किसी ना किसी ने तो बच्चों के साथ अपराध किया है. बच्चे उसे अभिव्यक्त कर रहे हैं और मामले सामने आ रहे हैं, किन्तु जब 70 प्रतिशत लोग अपराध करके छूट जा रहे हैं, तो बच्चों के साथ होने वाली अपराधों की रोकथाम कैसे होगी?


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

एक तरफ तो समाज की विकृतियां बच्चों को असुरक्षित बना रही हैं, तो वहीं दूसरी ओर न्याय व्यवस्था भी अपनी जरूरी भूमिका नहीं निभा रही है. परिणामस्वरुप वर्ष 2001 से 2016 के बीच बच्चों के प्रति अपराधों में जबरदस्त वृद्धि हुई. अब हमें यह भी सोचना होगा कि मामले तो दर्ज हो रहे हैं, किन्तु अदालतों में परीक्षण की कार्यवाही बेहद धीमी गति से चल रही है और जिन मामलों में परीक्षण पूरा हो रहा है, उनमें से ज्यादातर दोषमुक्त करार दिए जा रहे हैं.


21 वीं सदी के पहले 16 वर्षों में बच्चों के प्रति अपराध से संबंधित अदालत में लंबित मामलों की संख्या में भारत में 973 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 1420 प्रतिशत, राजस्थान में 3519 प्रतिशत, बिहार में 15015 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 10690 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 828 प्रतिशत और कर्नाटक में 10927 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.


जब हम गंभीर अपराधों की बात करते हैं, तब पता चलता है कि इस अवधि में बच्चों की हत्या के लंबित प्रकरणों की संख्या में 239 प्रतिशत, बलात्कार के लंबित मामलों में 1311 प्रतिशत और अपहरण के लंबित मामलों की संख्या में 1431 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.


यह भी पढ़ें- बच्चे नहीं, समाज और व्यवस्था के विवेक का अपहरण हुआ है!


भारत में वर्ष 2001 में बच्चों की हत्या के 2482 प्रकरणों में से 354 में परीक्षण पूरा हुआ और इनमें से 193 लोगों को सजा हुई. किन्तु 161 लोग छूट गए. इसी तरह बच्चों से बलात्कार के 4546 मामलों में से 726 में परीक्षण पूरा हुआ, 281 लोगों को सजा हुई और 445 लोग छूट गए. बच्चों के अपहरण के 4837 मामलों में से 701 में परीक्षण पूरा हुआ और 326 को दोषी पाया गया. शेष 375 लोग छूट गए.


वर्ष 2016 में बच्चों की हत्या के 7915 मामले अदालतों में दर्ज थे. इनमें से 640 में परीक्षण पूरा हुआ, किन्तु 283 मामलों में ही किसी को दोषी पाया गया. वर्ष 2016 में बच्चों के अपहरण के 74052 मामले दर्ज थे, इनमें से 6077 में ही परीक्षण पूरा हुआ और महज 1381 मामलों की किसी को दोषी पाया गया. बच्चों से बलात्कार के लंबित 64138 मामलों में से 6626 में ही परीक्षण पूरा हुआ और 1879 को दोषी पाया गया. 


60 फीसदी मामलों में दोषमुक्त
जरा विचार कीजिए कि जब बच्चों की हत्या, बलात्कार और अपहरण के मामलों में 50 से 70 प्रतिशत आरोपी दोषमुक्त कर दिए जा रहे हों, तब क्या बच्चों को देश की न्याय व्यवस्था में किसी भी तरह का विश्वास बचा रहेगा? जब बच्चों के साथ हिंसा-अपराध करने वाले आरोपी मुक्त कर दिए जा रहे हों, तब बच्चे किस हद तक सुरक्षित रहेंगे और किस हद तक भविष्य में वे अपने साथ होने वाले अपराधों को दर्ज करवाने के लिए सामने आयेंगे? भारत में सामान्यतः अनुभव यही है कि कोशिश करो कि पीड़ित होने के बाद भी पुलिस और कोर्ट के आँगन में पैर न रखना पड़े! वहां पीड़ित की पीड़ा दोहरी हो जाती है.


यह भी पढ़ें- तरक्‍की के झांझ-मजीरें बाद में, पहले बीमार शिक्षा की फिक्र कर लें


बच्चे से अपराध के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. 16 वर्षों में मामलों की संख्या 10,814 से बढ़ कर 1,06,958 हो गए. इन सालों में ऐसे कुल 5,95,089 मामले दर्ज किए गए. यह तो सामाजिक व्यवस्था का भी सवाल है कि बच्चों का उत्पीड़न लगातार बढ़ने पर भी समाज शांत भाव में है और विकास का आनंद ले रहा है, और न्याय व्यवस्था भी हरसंभव तरीके से उदासीन है. सरकार की भरसक कोशिश रही है कि बच्चों के साथ होने वाले अपराधों को दर्ज किया जाए ताकि उन पर कार्यवाही हो सके, किन्तु क्रियान्वयन के स्तर पर बच्चों और उनके परिजनों को उपेक्षा और दबाव की गहरी मार झेलना पड़ रही है.


वर्ष 2001 की स्थिति में भारत में बच्चों के साथ अपराध के 21,233 मामले अदालतों में लंबित थे. इन प्रकरणों का परीक्षण किया जाना बाकी था. इनमें से साल भर में 3231 मामलों का ही परीक्षण पूरा हुआ. यानी बच्चों से अपराध के मामलों में परीक्षण पूरा होने की दर महज 15.2 थी. जिन मामलों में सुनवाई पूरी हुई, उनमें से भी केवल 1531 मामलों में ही सजा हुई, शेष 53 प्रतिशत मामलों में आरोपी छूट गए.


मध्य प्रदेश में 2065 लंबित प्रकरणों में से 404 (19.2 प्रतिशत), राजस्थान में 250 में से 29 (11.6 प्रतिशत), कर्नाटक में 63 में से 2 (3.2 प्रतिशत) और महाराष्ट्र में 3999 में से 262 (6.6 प्रतिशत) मामलों में ही सुनवाई पूरी हुई. इन स्थितियों में मध्यप्रदेश में 157, राजस्थान में 11, कर्नाटक में 0 और महाराष्ट्र में 37 मामलों में ही आरोपी हो दोषी पाया गया.


भारत के स्तर पर बच्चों के खिलाफ़ अपराध के लंबित मामलों की संख्या वर्ष 2004 में बढ़कर 30,316, और वर्ष 2010 में 72,315 हो गई. इनमें से भी लगभग एकतिहाई मामलों में ही आरोपियों को सजा हुई और शेष मुक्त हो गए.


लंबित मामलों में इजाफा
वर्तमान स्थिति (वर्ष 2016) में भारत में बच्चों से अपराध के अदालत में लंबित मामलों की संख्या वर्ष 2001 के 21233 लंबित प्रकरणों से से लगभग 11 गुना बढ़कर 2,27,739 हो गई. बच्चों के अधिकारों का हनन केवल उनके साथ होने वाले अपराधों से ही नहीं जुड़ा हुआ है, बल्कि हमारी न्यायिक व्यवस्था के लचरपन और कमज़ोर होती न्याय प्रणाली से भी सीधे सीधे जुड़ा हुआ है.


आधुनिक भारत में भले ही अन्याय होता रहे और न्याय न मिले, किन्तु माहौल ऐसा बना दिया गए है कि इस तरह की स्थितियों में भी न्यायिक व्यवस्था और उसके स्वभाव की आलोचनात्मक समीक्षा करने का अधिकार भारत के नागरिकों नहीं है. ऐसी समीक्षा को न्यायपालिका के विशेषाधिकार का हनन और अवमानना माना जाता है.


मध्य प्रदेश में वर्ष 2001 में बच्चों के प्रति अपराध से सम्बंधित 2065 मामले अदालत में परीक्षण के लिए लंबित थे, जो वर्ष 2016 तक बढ़कर 31392 हो गए. यानी केवल अपराध ही नहीं बढ़े, बल्कि लंबित मामलों में ही 1420 प्रतिशत की वृद्धि हो गई. वर्ष 2016 में एक साल में राज्य में कुल 5444 मामलों में परीक्षण पूरा हो पाया और इनमें से 30 प्रतिशत यानी कि 1642 की अपराधी पाए गए.


महाराष्ट्र में 16 वर्षों में अदालतों में लंबित प्रकरणों की संख्या 3999 से बढ़कर 37,125 हो गई, यानी 828 प्रतिशत की वृद्धि हुई. वर्ष 2016 में कुल 1847 मामलों का ही परीक्षण पूर्ण हो पाया, जिसमें से केवल 21 प्रतिशत मामलों में ही किसी को सजा हुई और शेष दोष-मुक्त हो गए. उत्तर प्रदेश में लंबित प्रकरणों की संख्या 275 प्रतिशत बढ़ी और संख्या 10597 से बढ़कर 39749 हो गई. इसी तरह गुजरात में यह संख्या 830 से बढ़कर 12035 हो गई.


अभी कई अपराध मान्यता प्राप्त हैं
बच्चों के खिलाफ होने वाले कुल दर्ज अपराधों (595089) में 68 फीसदी हिस्सा (बलात्कार 153701 और अपहरण 249383) तो बच्चों के साथ बलात्कार और उनके अपहरण के मामलों का ही है. अभी ज्यादातर ध्यान केवल गंभीर हिंसा और बड़े अपराधों पर केन्द्रित है. इसका अर्थ यह भी है कि बच्चों के साथ मारपीट, उनके साथ होने वाली छुआछूत और अन्य शोषण के मामले सामान्यतः दर्ज ही नहीं होते हैं. कुछ व्यवहारों को, जिन्हें कानून की नजर से अपराध माना जाता है, उन्हें सामाजिक मान्यता मिली हुई है और वे दर्ज ही नहीं होते हैं.


वर्ष 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (चक्र-4) की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2011 से 2015 के बीच भारत में 26.8 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में कर दी गयी. भारत में लगभग 1.2 करोड़ शादियां हर साल होती हैं. इसका मतलब है कि हर साल लगभग 29 लाख मामलों में लड़कियों की कम उम्र में शादी होती है.


मध्य प्रदेश में 32.4 प्रतिशत, बिहार में 42.5 प्रतिशत, राजस्थान में 35.4 प्रतिशत, गुजरात में 24.9 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 26.3 प्रतिशत लड़कियों की शादी वैधानिक उम्र से कम में हुई; लेकिन 21वीं सदी के शुरूआती 16 वर्षों में पूरे भारत में बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत कुल 2243 मामले ही दर्ज हुए.


वास्तव में इस तरह के मामलों में सामाजिक व्यवहार और रीति-रिवाजों के सन्दर्भ में सामाजिक समूह और कानूनी संस्थाएं भी बाल विवाह को अपराध के रूप में स्वीकार नहीं करती हैं, बल्कि इसे सहज व्यवहार की मान्यता दे दी गई है, जिसे बदलने में अलग तरह की जद्दोजहद जारी है.


चरम उपेक्षा का ठीक यही हाल बाल मजदूरी के व्यवहार पर भी लागू होता है. जनगणना-2011 के मुताबिक 1 करोड़ से ज्यादा बच्चे बाल मजदूरी में लिप्त हैं. इनमें से 10 लाख बच्चे नुकसानदायक कामों में शामिल हैं. दिक्कत यह है कि नए बाल मजदूरी निषेध कानून में 14 साल से ज्यादा उम्र के बच्चों को घरेलू उपक्रमों और गैर-नुकसानदायक उपक्रमों में मजदूरी करने की अनुमति दे दी गई है. वर्ष 2016 में देश भर में बाल मजदूरी कानून के तहत केवल 204 मामले दर्ज हुए. 36 में से 23 राज्यों में तो बाल मजदूरी का एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ.


भुखमरी का जाल
भारत में व्याप्त गैर-बराबरी और चरम गरीबी के चलते बच्चों को खतरनाक श्रम से बचाने की पहल भी आसान नहीं है. हम यदि उन्हें मजदूरी से रोकेंगे तो भुखमरी के जाल में भी तो धकेलेंगे. बच्चों को बाल मजदूरी से तब तक सुरक्षित नहीं बनाया जा सकता है, जब तक कि हम अपनी आर्थिक नीति और नियत में बुनियादी बदलाव नहीं कर लेते.


इसी तरह इंटरनेट पर और इंटरनेट के जरिये बच्चों के शोषण के मामलों में जबरदस्त वृद्धि हो रही है. यह माना जाता है कि इंटरनेट पर हर रोज़ बच्चों की सहभागिता वाली यौन सामग्री की 116 हज़ार खोजें होती हैं. वर्ष 2015 से 2017 के बीच सरकार ने इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को 7574 ऐसी वेबसाइट्स/पेज बंद करने के निर्देश दिए हैं, जिन पर बच्चों के यौन शोषण/उत्पीड़न से सम्बंधित सामग्री मौजूद थी. लेकिन सामाजिक निष्क्रियता और समझ के अभाव के चलते इंटरनेट पर और इसके जरिये होने वाले शोषण के सम्बंधित मामलों के दर्ज होने की संख्या लगभग नगण्य ही है.


(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)