क्या हिंसक प्रतिस्पर्धा का दबाव मौत को आसान बना देता है?
जिस आर्थिक विकास की अवधारणा और नीति को हमने अपनाया है, उसमें सबसे आगे रहना ही मायने नहीं रखता है; इसमें जरूरी है सबको पीछे छोड़कर आगे बढ़ना. जीवन के पहले दूसरे साल में ही बच्चों को यह जता दिया जा रहा है कि आगे निकलो, सब कुछ रट डालो. चौबीसों घंटे कुछ न कुछ सीखते रहो. कुदरत से, समाज से, अपने आस-पड़ोस से कुछ मत सीखना. यह 100 प्रतिशत का दौर है, इससे कम पर जीवन संभव नहीं है.
बचपन और किशोरावस्था, जबकि हमारे व्यक्तित्व की बुनियाद पड़ती है, तब हम उन्हें हिंसक प्रतिस्पर्धा का सबक सिखा रहे होते हैं. इतना ही नहीं उन्हें यह भी समझा रहे होते हैं कि जंगल, संगीत, झरने, दोस्ती, गरिमा, सम्मान का कोई महत्व नहीं है. महत्व है पद का, ऊंचे वेतन का, शक्ति संपन्न होने का और ऐसा मुकाम हासिल करने का, जिसमें हम किसी तबके को अपना गुलाम बनाकर रख सकें. जो भी रचनात्मकता के साधन रहे हैं, उन्हें भी हमने यांत्रिक बना दिया है. जब किताबों पर बहुत जोर दिखने लगा, तो सबको जबरिया संगीत की कक्षा में घुसा दिया. किसी को खेल के मैदान में धकेल दिया. अचानक से योग जरूरी लगने लगा. वस्तुतः हम बच्चों को उनका व्यक्तित्व बनाने में मदद करने के लिए ये सब नहीं करते हैं, बल्कि हिंसा को स्वीकार्यता दिलाने के लिए 'योग' करवा रहे हैं.
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जरा सोचिए कि परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के कारण वर्ष 2001 से 2015 के बीच 34,525 बच्चों-किशोरवय व्यक्तियों ने आत्महत्या कर ली. ये आत्महत्याएं इस कारण हुईं, क्योंकि आत्महत्या करने वाला परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया था. हमारी भेदभाव से भरपूर असमान शिक्षा प्रणाली पर क्यों विचार नहीं होना चाहिए, जो हज़ारों बच्चों को आत्महत्या का प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए बाध्य करती हो.
शायद आप जानते हों कि राजस्थान के शहर कोटा को प्रतियोगी व्यावसायिक परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थानों का गढ़ माना जाता है, लेकिन पिछले एक दशक में यह छात्र-छात्राओं की आत्महत्या का गढ़ बन गया. हम प्रतियोगिता के उस भावनात्मक मुकाम तक पंहुच गए हैं, जहां दबाव अपने चरम पर है. किसी भी कीमत पर 'सफलता' चाहिए. यदि असफलता का कोई भी संकेत मिले तो युवा आत्महत्या करने से नहीं चूकते हैं. आज शायद वे खुद को खत्म कर रहे हैं, लेकिन यह तय है कि दबाव के अगले चरण में वे हत्याएं करने का विचार विकसित करेंगे. हम बच्चों और युवाओं के मन को पढ़ ही नहीं पा रहे हैं. उनके मन पर हमने यानी नए विकास के राजदूतों ने कब्ज़ा जमा लिया है. उन्हें प्रतिस्पर्धा के लिए इस हद तक सम्मोहित कर दिया गया है कि वे आत्मघाती दस्ते के रूप में तैयार हो रहे हैं. अपनी सरकार इस पर बस कागज़ काले करती रहती है और बच्चों को बिलकुल न समझने वाले नीति लेखक अपना ज्ञान बघारते रहते हैं. यह मसला नीति से नहीं, मानवनीति के निर्माण से सुलझेगा.
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जिस तरह की प्रतिस्पर्धा हमने शिक्षा व्यवस्था में डाली है. वह आखिर में 'फांसी का फंदा या जहर' की पैदा करती है. हमारे यानी आम लोगों के मन में यह सवाल क्यों नहीं खड़ा होता है कि शिक्षा जीवन का निर्माण करने वाली होनी चाहिए या जीवन को खत्म करने वाली! बात अब केवल उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने तक ही सीमित नहीं है; अब बच्चे हांके जाते हैं 100 फ़ीसदी अंकों की तरफ. अगर जीवन में कुछ बनना है तो 100 फीसदी अंक चाहिए. जीवन में कुछ बनने की परिभाषा क्या है? डॉक्टर, इंजीनियर, महाप्रबंधक या फिर अच्छा खिलाड़ी, कवि, साहित्यकार, चित्रकार भी इसमें शामिल हैं. बेहतर जीवन या बेहतर व्यापार का मतलब है खूब मुद्रा यानी धन हासिल करना. इस धन को हासिल करने के लिए हम अपने संसाधन यानी अपने इंसान होने की स्थिति को बलि पर चढ़ा देते हैं. आखिर जिस तरह की महत्वाकांक्षा और भारी अपेक्षाएं शिक्षा से जोड़ दी गई हैं, वे बच्चों को आत्महत्या की तरफ ही लेकर जाती हैं.
अनुत्तीर्ण होने के कारण भारत में जिन राज्यों से सबसे ज्यादा आत्महत्याएं हुईं, वे हैं- पश्चिम बंगाल (5,878), महाराष्ट्र (4,375), तमिलनाडु (3,857), आंध्र प्रदेश (2,973) और कर्नाटक (2493).
हमें यह तथ्य भी चौंकाता है कि इन 15 सालों में आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों की संख्या 99,591 हो गई. टीकमगढ़ जिले के ज्यौरामौरा गांव में फ़रवरी में एक साथ दो छात्राओं ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. वे यहां परीक्षाएं देने के लिए किराए के मकान में रहती थीं. वहीं ट्यूशन पढ़ाने वाले एक व्यक्ति ने उन पर शोषण स्वीकार करने के लिए दबाव डाला. ऐसा न करने पर उन्हें बदनाम करने की धमकी दी. इस दबाव में उन्होंने आत्महत्या कर ली. जरा विचार कीजिए कि ये दोनो छात्राएं अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार के बारे में अपने परिजनों और पुलिस को क्यों नहीं बता पाईं? शायद उन्हें भय लगता था कि समाज उनके साथ खड़ा नहीं होगा और उनके ही चरित्र पर सवाल खड़े करेगा. उनकी सोच सही ही रही, लेकिन परिणति दुखदाई रही. वास्तव में सुरक्षा के नाम पर लड़कियों को कैद में रखे जाने की परंपरा रही है. मर्दवादी समाज में शोषित को ही दोषी करार दिए जाने की व्यवस्था है.
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क्या भारत में युवाओं के लिए कोई प्रतिबद्ध नीति और व्यवस्था है? बिलकुल नहीं! इसके उलट हर कोई युवाओं पर अपनी इच्छाओं का गट्ठर रखता जा रहा है. जीवन में हर एक दिन में उनसे चार दिन जीने की उम्मीद की जा रही है. शिक्षा से लेकर कौशल निर्माण तक उन्हें प्रताड़ित ही कर रहा है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि परिवार, समाज और बाज़ार उनसे जीवन की हर विलासिता को जुटा लाने की उम्मीद करता है, इसके लिए युवाओं को अपना निजी व्यक्तित्व बनाने का अवसर ही नहीं मिलता है. ऐसे में
परीक्षा ने अनुत्तीर्ण होने या घरेलू समस्याएं होने या फिर प्रेम में असफल हो जाने पर वे तुरंत-फुरंत आत्महत्या का कदम उठाते हैं. यह वक्त की जरूरत है कि हम बच्चों को संयम और विचार करना सिखाएं. उन्हें हम आत्महत्या के लिए मजबूर न करें. विद्यार्थियों ने जिन राज्यों में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं की हैं, वे हैं- महाराष्ट्र (14,003), पश्चिम बंगाल (12,377), तमिलनाडु (8,492), आंध्र प्रदेश (8,021), कर्नाटक (7,876).
ऐसा क्यों है कि हमारे समाज में जीवन के बेहतर विकल्प मृत्यु को माना जाने लगा है. स्वतंत्रता के बाद सबसे बड़ी जरूरत यह थी कि 'व्यवस्था' में 'समाज' का विश्वास पैदा किया जाता. बर्तानिया उपनिवेश के बाद हमें अपनी व्यवस्था के मापदंड और चरित्र खुद गढ़ना था; जो हम नहीं कर पाए. शायद पिछले 30 सालों में हालात और नकारात्मक हुए हैं, क्योंकि एक तरफ व्यवस्था अपना चरित्र लोकोन्मुखी नहीं बना पाई और दूसरी तरफ समाज के भीतर की सह-अस्तित्व वाली व्यवस्थाएं भी टूटती गईं. संभवतः इसी का परिणाम है आत्मघात का विकल्प; जरा सोचिएगा!