पुणे के 22 साल के एक युवक का कहना है कि “जब मैं पांच साल का था, तब लगातार दो साल तक एक पुरुष ने मेरे साथ यौनिक दुराचार किया. मैं अपने माता-पिता को यह कभी बता ही नहीं पाया क्योंकि मुझे डर था कि मुझे डांटा जाएगा”. जबलपुर में एक किशोर से उसके मध्यमवर्गीय पिता ने कहा कि अपनी पढ़ाई के साथ वह आजीविका के विकल्प के रूप में एक कारखाने में जाना शुरू करे, जिससे उसे व्यावहारिक अनुभव होगा. इसके लिए पिता ने किसी कारखाने के मालिक से बात की और वे इसके लिए तैयार हो गए.


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पिता ने अपने बेटे को इस काम की गंभीरता बताने के मकसद से कहा कि यह कारखाने के मालिक बहुत बड़े व्यक्ति हैं, उनका बहुत सम्मान है. यह उनका बड़प्पन है कि वे तुम्हे अपने कारखाने में काम सीखने दे रहे हैं. जो वो कहें, उससे मानना. किशोर बालक के मन में उस व्यक्ति के बड़े होने के बारे में एक छवि बन गई. उसे यह समझ आया कि कारखाने में काम सीखते हुए उसे सबकुछ स्वीकार करना है, क्योंकि उसके मालिक पिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं. काम के दौरान किशोर बालक के साथ बैठकर मालिक दोपहर का भोजन करने लगे, उसे अपने साथ रखते. इसी तरह उन्होंने बालक के शरीर को छूना शुरू किया और उसका यौन शोषण करने लगे. पिता के सामने इस व्यक्ति की छवि और पिता के भावनात्मक विश्वास को ध्यान में रखते हुए, वह किशोर बालक अपने पिता को यह बता नहीं पाया कि उसके साथ एक साल तक क्या हुआ?  


बच्चों के साथ परामर्श सेवाओं के तहत संवाद करने वाले शोधकर्ता कहते हैं कि लड़कों के साथ होने वाले यौन दुराचार और उत्पीडन के मामलों में परिवार एक ही सोच रखता है – घटना को छिपा कर रखना, परिजन मानते हैं कि लड़का है, समय के साथ इसके असर और और दबाव से ऊबर जाएगा. इसका किसी को पता थोड़े चलेगा, यदि इसके बारे में शिकायत की तो बदनामी होगी और इज्ज़त को ठेस पंहुचेगी. भारत सरीखे पितृसत्तात्मक समाज में लड़कों को जन्म से ही खास तरह की शिक्षा में ढाला जाता है, लड़के मज़बूत होते हैं, वे रो नहीं सकते, वे अपनी भावनाओं को प्रदर्शित नहीं कर सकते, उन्हें हर परिस्थिति में खड़े रहना होता है, दर्द होने पर वे पीड़ा की अभिव्यक्ति नहीं कर सकते हैं, वे निडर होते हैं, लड़के ही परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करते हैं, उन पर परिवार, कुटुंब और समुदाय को बनाए रखने और उसके प्रबंधन की जिम्मेदारी होती है, लड़कियों को इसके शिक्षा मिलती है कि उन्हें पुरुष पर निर्भर रहना है, लड़कियों को कमज़ोर माना जाता है, उनका सम्मान कौमार्य की झिल्ली के साथ जुड़ा होता है, उनके सम्मान से परिवार और समुदाय का सम्मान भी जोड़ दिया गया है.


यही कारण है कि उसे लड़कियों को छिपाकर बंधन में रखा जाता है. लड़कियों के साथ होने वाला यौनिक दुराचार भी परिवार छिपाकर ही रखना चाहता है – गरिमा के लिए, इसके छिपे रहने की एक सीमा है-जब तक कि लड़की गर्भवती न हो, तब घटना सामने आ जाती है. लड़कों के मामले में न तो कौमार्य झिल्ली फटती है, न ही उसके गर्भवती होने का खतरा होता है. यह एक तरह की सामाजिक चरित्र के निर्माण की प्रक्रिया होती है, जिसमें इंसान को पुरुष और स्त्री बनाया जाता है. इस व्यवस्था में स्त्री को पुरुष की सम्पत्ति के रूप में स्थापित किया जाता है. परिवार और समाज की शिक्षा से यह सुनिश्चित होते है कि आगे चल कर लड़के या लड़कियां, दोनों ही इस व्यवस्था को चुनौती न दें.


लैंगिक भेदभाव और पितृसत्ता की पीड़ा और आघात केवल लड़कियां ही नहीं भोगती हैं, वास्तव में पुरुष भी इसकी आग में उतनी ही जलते हैं क्योंकि उन्हें बुनियादी मानवीय स्वभाव के विपरीत आचरण करना पड़ता है. उनके हृदय में प्रेम भी होता है, उन्हें संताप भी होता है, वे गहरे अपराध बोध में भी रहते हैं, उनके साथ भी बलात्कार भी होता है, किन्तु समाज उन्हें ये अभिव्यक्त नहीं करने देता है, क्योंकि इस अभिव्यक्ति से समाज का पितृसत्तात्मक चरित्र में दरार आ सकती है. हिंसा, भेदभाव और गैर-बराबरी की नीव पर निर्मित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर सवाल खड़े हो सकते हैं, सम्प्रदाय की सत्ता को भी चुनौती मिल सकती है, अतः यह बात सामने नहीं आने दी जाती है कि लड़कों के साथ भी यौनिक दुराचार और बलात्कार होते हैं, ये थोड़ी सी या असामान्य घटनाएं नहीं है.   


भारत में लड़कों के साथ यौनिक दुराचार की स्थिति 
वर्ष 2007 में भारत सरकार द्वारा बाल शोषण पर एक राष्ट्रस्तरीय अध्ययन करवाया गया. इसके निष्कर्ष डराने वाले थे. उनमें से एक खास निष्कर्ष विस्मृत कर दिया गया, भुला दिया गया. 12447 बच्चों में से 53.22 प्रतिशत बच्चों यह स्वीकार किया कि उनके साथ किसी न किसी तरह का “यौन शोषण” हुआ है. जिन बच्चों के साथ यौन शोषण हुआ था, उनमें से 52.94 प्रतिशत “लड़के” थे. यानी इस अध्ययन के मुताबिक लड़कों से ज्यादा लड़कियों के साथ यौन शोषण हो रहा है. राज्यों की बात करने पर पता चलता है कि दिल्ली में जितने बच्चे यौन शोषण का सामना करते हैं, उनमें से 65.64 प्रतिशत “लड़के” होते हैं. बिहार में 52.96 प्रतिशत, गुजरात में 36.59 प्रतिशत, केरल में 55.04 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 42.54 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 49.43 प्रतिशत, राजस्थान में 52.50 प्रतिशत, उत्तरप्रदेश में 55.73 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 43.71 प्रतिशत यौन शोषण के मामले “लड़कों” के साथ घटित होते हैं. 
12 से 15 साल की उम्र के 51.03 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि उनके साथ गंभीर किस्म का यौन शोषण (बलात्कार, निजी अंगों को पुचकारना, यौनिक प्रदर्शन आदि) हुआ है.  


यूं तो राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की रिपोर्ट लड़कों के साथ होने वाले “यौन दुराचार/बलात्कार” के मामलों की अलग से पहचान नहीं दिखाती है, किन्तु जब हम महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कारों के उम्रवार आंकड़ों और बच्चों के साथ होने वाले दुराचार/बलात्कार के आंकड़ों (जो कि भारतीय दंड संहिता और पोक्सो के तहत दर्ज हुए हैं) के एकसाथ रख कर विश्लेषण करते हैं, तब हमें कुछ स्पष्ट आंकड़े नज़र आते हैं. 


बच्चों से बलात्कार के मामले भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और यौन (लैंगिक) अपराधों से बच्चों की सुरक्षा अधिनियम, 2012 की धारा 4 और 6 के अंतर्गत दर्ज किये जाते हैं. इसके साथ ही जब लड़कों के साथ बलात्कार या यौन शोषण होता है, तब कुछ मामले भारतीय दंड संहिता की धारा 377 (इस क़ानून को अंग्रेजों ने 1862 में लागू किया था. इसके तहत अप्राकृतिक यौन संबंध को गैरकानूनी ठहराया गया है. इसमें समलैगिक संबंधों को अप्राकृतिक कृत्य माना गया है) के तहत भी दर्ज होते हैं. 


राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) वर्ष 2014 में भारत में 18763 बच्चों के साथ बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे. उसी वर्ष महिलाओं के साथ बलात्कार के जितने मामले दर्ज हुए थे, उनमें से 14535 महिलाओं की उम्र 18 वर्ष से कम थी. इस तरह 4228 लड़कों के साथ बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे. सबसे ज्यादा, 1942 मामले उत्तरप्रदेश में दर्ज हुए थे. इस साल धारा 377 के तहत 769 मामले दर्ज हुए. वर्ष 2015 में बच्चों के 19767 बच्चों के साथ बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे, इनमें से 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों की संख्या 11393 थी, यानी 8374 लड़कों के साथ बलात्कार हुआ था.  धारा 377 के तहत वर्ष 2015 में 820 मामले दर्ज हुए.वर्ष 2016 में भारत इसी आंकलन से पता चलता है कि 3057 लड़कों के साथ बलात्कार के मामले दर्ज हुए. इस साल धारा 377 के तहत 1254 मामले दर्ज हुए.


आंकलन है कि तीन सालों में भारत में 18502 लड़कों से बलात्कार मामले संज्ञान में लाये गए और दर्ज हुए. इससे कहीं गुना अधिक लड़कों के साथ घटी घटनाएं गलियों, परिवारों, धार्मिक स्थानों, खेल के मैदानों में खुले आम बिखरी पड़ी हुई हैं, वर्ष 2007 के अध्ययन के तारतम्य में देखने पर हमें पता चलता है कि जिस पैमाने पर लड़कों के साथ वास्तव में दुराचार और गंभीर यौन शोषण होता है, उसका बहुत छोटा हिस्सा सामने आ पा रहा है. इस सच्चाई को समाज, व्यवस्था और राजनीति, तीनों मिलकर दबाने-छिपाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं.


लड़के यौनिक दुराचार के लिए आसान शिकार है?
क्योंकि परिवार और समाज इसे स्वीकार नहीं करते हैं और छिपाते हैं! समाज में विद्दमान कुछ परम्पराओं में भी लड़कों का यौन शोषण शुमार है. जब लड़के किसी सांकृतिक व्यवहार या कला में स्त्री की भूमिका निभाते हैं, तब भी उनका शोषण होने की आशंका होती है. सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि पूर्वी भारत में “लौंडा नाच” के तहत भी शोषण होता है. अब इंटरनेट पर लड़कों के साथ यौन व्यवहार के चित्र और वीडियो उपलब्ध हैं. इतना ही नहीं हमें इस सच को भी समझना होगा कि समाज का एक तबका लड़कियों के यौन शोषण को जोखिम भरा काम मानता है, तब उसे “लड़के” आसान शिकार लगते हैं, क्योंकि समाज “लड़कों से बलात्कार” के सच को स्वीकार ही नहीं करता है. दुनिया में जहां भी हिंसक टकराव चल रहे हैं, वहां लड़कों के साथ यौन व्यवहार की पूरी व्यवस्था गढ़ी जा चुकी है.


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घरों के भीतर परिवारों में जिस तरह से आपसी विश्वास की कड़ी टूट रही है, उसका सबसे गहरा असर बच्चों पर पड़ता है और लड़के “यौन व्यवहार” के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, क्योंकि उनकी बात सुनने, उन्हें महसूसने और सुरक्षा देने वाला कोई नहीं होता है. इस पहलू पर समाज और सरकार की तरफ से अध्ययन और शोध की बहुत कम पहल हुई है, इसलिए इसकी व्यापकता का सही-सही अंदाजा लगा पाना मुश्किल होता है. बहुत जरूरी है कि बाल अधिकार, लोक स्वास्थ्य, सामाजिक विकास, आर्थिक नीतियों, कानूनी व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था के सन्दर्भ में बच्चों, खास तौर पर लड़कों के साथ होने वाले यौनिक दुराचार की स्थिति और कारकों पर गहरे अध्ययन हों.


भारत में बच्चों के साथ होने वाले उत्पीडन और शोषण को सामने लाने के लिए वस्तुतः मनौवैज्ञानिक सेवाएं और व्यवस्थाएं ही उपलब्ध नहीं है. यहाँ आम तौर पर घटना घटने के बाद हलकी सी हलचल होती है. और मामलों को सुलझाने की कोशिश होती है, मामलों को सुलझाने की इस प्रक्रिया में घटना को छिपाना, उसके प्रमाणों को कमज़ोर करना, उसे महत्वहीन साबित करना या समझौता करने जैसे समाधान होते हैं. बच्चों के जीवन में चार स्थान सबसे ज्यादा अहम् होते हैं – घर, वह स्थान जहां वे खेलते हैं, कार्यस्थल और स्कूल, वस्तुतः समाज के भीतर ही इस विषय को खोलने और उस पर बात करने की सबसे बड़ी जरूरत है. इसे छिपाए जाने की परंपरा को बंद किया जाना चाहिए. हमें यह सच स्वीकार करना होगा कि लड़कों का यौन शोषण करने वाले भी ज्यादातर परिचित और जान-पहचान के लोग हो सकते हैं. सूचना प्रोद्योगिकी और यौन चित्र प्रदर्शन के इस “घातक रूप से विकसित होते” समाज में, बच्चे असुरक्षित हैं.


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उनके साथ होने वाले यौन शोषण को हम “सम्मान, गरिमा, छवि, धर्म और रिश्तों” की आड़ में छपाने की कोशिश न करें. राजनीतिक विचारधारों ने बच्चों की शिक्षा में शरीर शिक्षा, यौन शिक्षा और व्यक्तित्व विकास के पाठों को शामिल करने का कई अवसरों पर विरोध किया है. उन्हें लगता है कि किशोर स्वास्थ्य और लैंगिक शोषण से सुरक्षा से जुड़े सन्देश अनैतिक होते हैं. वे यह समझने में नाकाम रहे हैं कि उन्होंने सबसे पहले राज्य की ऐसी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक नीतियों को मान्यता दे दी है, जो सबसे ज्यादा अनैतिक थी. बाकी सबकुछ तो उन नीतियों के स्वाभाविक परिणाम मात्र हैं.


जब हमने अपनी सामाजिक अर्थव्यवस्था को दांव पर लगाकर बाज़ार-पूंजी केंद्रित अर्थव्यवस्था को शिरोधार्य किया, तब हम इस सच से अनजान बने रहे है कि ये आर्थिक नीतियां बच्चों के शोषण को भी बढाएंगी. बाल व्यापार, बच्चों का यौन प्रदर्शन (चाइल्ड पोर्नोंग्राफी), हिंसक टकरावों में बच्चों का उपयोग और यौन शोषण के नए रूप आर्थिक विकास की नीतियों की देन हैं. हमारे राष्ट्रवादी और उदारवादी – दोनों तरह के सिद्धांतकार यह समझ पाने में नाकाम रहे कि हमें घर, समुदाय और स्कूल में बच्चों के स्वास्थ्य और व्यक्तित्व के संरक्षण के लिए ठोस परामर्श सेवाओं की स्थापना करने की जरूरत है. इन सेवाओं के अभाव में किसी भी तरह का यौन शोषण होने पर घर, समुदाय और स्कूल उसे बस छिपाने का रास्ता खोजते हैं. वे बच्चे का श्रेष्ठ हित महसूस करने के लिए तैयार ही नहीं हुए हैं. इस तरह की उपेक्षा बच्चों को हिंसक बना रही है. इतना ही नहीं भारत में बाल संरक्षण व्यवस्थाएं, अदालतें और पुलिस भी लड़कों के साथ होने वाले दुराचारों/बलात्कारों पर कार्यवाही करने के मामले में संवेदनशील नहीं हैं. 


(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)