कर्नाटक में अंततः कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार बन गई. गठबंधन की ओर से एचडी कुमारस्वामी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है. इसके पूर्व कर्नाटक विधानसभा में विश्वास मत से पहले ही बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. उस समय बीजेपी के ऊपर कांग्रेस-जेडीएस द्वारा विधायकों की खरीद-फरोख्त की कोशिश के आरोप लगाये जा रहे थे. लेकिन विधानसभा के पटल पर ऐसा कुछ नहीं दिखा था. बाद में कांग्रेस के एक विधायक ने ऐसी किसी बात से इन्कार किया था. इसके बावजूद यह सवाल बना रहता है कि यह आरोप लगाया क्यों गया? क्या कांग्रेस-जेडीएस के पास इसका कोई अकाट्य सबूत है? अगर हां, तो क्या वे इसकी जांच कराएंगे? अगर नहीं, तो क्यों?


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कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला ने बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा की तरह ही कांग्रेस-जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी को भी विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय दिया. यहां कहा जा सकता है कि राज्यपाल ने एक ही मानदंड अपनाया, लेकिन उनके आलोचकों ने दोहरा रवैया अपनाया. येदियुरप्पा को सरकार बनाने का मौका दिए जाने के खिलाफ कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट चली गई. कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले पर रोक नहीं लगाई. उसने विश्वास मत हासिल करने के लिए येदियुरप्पा को दी गई अवधि घटाने के अलावा कांग्रेस को तत्काल कोई रियायत प्रदान नहीं की थी. इसके बावजूद कांग्रेस ने इसकी ऐसी व्याख्या की मानो कोर्ट का फैसला उसके पक्ष में आ गया हो. यही नहीं, राज्यपाल द्वारा प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति पर भी वह परंपरा के उल्लंघन की शिकायत लेकर कोर्ट चली गई थी.


इस बार कोर्ट ने यह कहते हुए उसकी याचिका खारिज कर दी कि परंपरा कानून नहीं होती. सवाल उठता है कि बार-बार इस मसले को लेकर कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट क्यों चली जा रही थी, जबकि खुद को सरकार गठन के लिए 15 दिन का समय मिलने पर चुप हो गई?


कांग्रेस की इस राजनीति के दो मायने हैं. एक तो राज्य की सत्ता में बने रहने की उसकी बेचैनी थी. वह किसी कीमत पर बीजेपी को कर्नाटक की सत्ता में नहीं आने देना चाहती थी. दूसरे यह कांग्रेस की उस रणनीति का हिस्सा थी, जिसके मुताबिक वह बीजेपी को संविधान और लोकतंत्र विरोधी दिखाना चाहती है. कोर्ट का फैसला बहुलांशतः उसके खिलाफ होने के बावजूद उसे अपने पक्ष में बताना उसकी इसी रणनीति का हिस्सा था. लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में लोकतंत्र में दल-बदल विरोधी कानून की प्रासंगिकता का सवाल दब गया. यह सही है कि विधायकों की खरीद-फरोख्त स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं हो सकता, लेकिन दल-बदल विरोधी कानून को भी लोकतांत्रिक भावना के अनुकूल मानना कठिन है.


राजनीतिक स्थिरता के नाम पर यह किसी व्यक्ति या पार्टी की सत्ता को स्थिरता प्रदान करने की कोशिश है, लेकिन इसकी कीमत लोकतांत्रिक चेतना को चुकानी पड़ती है. अगर समाज विभाजित है, तो राजनीतिक अस्थिरता रहेगी. सामाजिक आकांक्षा की अभिव्यक्ति ही राजनीतिक धरातल पर चुनावों में व्यक्त होती है. कर्नाटक का जनादेश विभाजित समाज का ही प्रतिबिंब है. ऐसे में इसकी क्या गारंटी है कि खरीद-फरोख्त का शोर मचाकर उन विधायकों की आवाज दबाने की कोशिश न की जा रही हो, जो चुनाव बाद किए गए कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन से असंतुष्ट हों?


कांग्रेस ने भले ही जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना ली हो, लेकिन कर्नाटक का जनादेश उसके लिए नहीं था. अगर जनता कांग्रेस के पक्ष में होती, तो उसे फिर बहुमत प्रदान करती. सरकार बनाने के शोर-शराबे में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन की बात दब गई. कांग्रेस ने चुनाव बाद जेडीएस के साथ गठबंधन करके सत्ता हासिल की, तो यह किसी आदर्श के तहत नहीं था. भले ही ये दल धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे रहे हों, लेकिन अब यह अवसरवाद को छिपाने का जरिया बन गया है. इस गठबंधन का मूल उद्देश्य था बीजेपी को किसी तरह


सत्ता से बाहर रखना. कांग्रेस को यह लगता है कि इससे राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी विरोधी गठबंधन बनाने में मदद मिल सकती है. कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में गैर-बीजेपी नेताओं के जमावड़े में इसकी संभावना तलाशी जा सकती है, लेकिन विपक्षी दलों में अब भी अंतर्विरोध दिख रहा है. कांग्रेस की घटती ताकत के कारण क्षेत्रीय दलों की बढ़ती महत्वाकांक्षा उनकी एकता में बाधक प्रतीत होती है. फिलहाल वे गैर-बीजेपीवाद के नकारात्मक नारे के तहत एक साथ आ सकते हैं. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ेगी या क्षेत्रीय दलों को भी साथ लेगी.


इसके पहले कांग्रेस-जेडीएस के ऊपर गठबंधन सरकार को जनता की अपेक्षा के मुताबिक चलाने की जिम्मेदारी होगी. देश इस गठबंधन को एक आदर्श के रूप में चलने की उम्मीद करेगा. इसकी विफलता विपक्षी पार्टियों के गठबंधन के दलील की हवा निकाल देगी. कम से कम 2019 तक तो इस सरकार को बिना किसी विवाद के चलाना होगा. इस गठबंधन सरकार को चलाना आसान नहीं है. अगर इसमें कोई दिक्कत नजर आई, तो इसकी प्रतिक्रिया राष्ट्रीय स्तर पर होगी.


यहां ध्यान रखना होगा कि बहुमत का अंक पार न करने के बावजूद नैतिक दृष्टि से जीत बीजेपी की ही थी. यह स्पष्ट नहीं हो सका कि बीजेपी ने सरकार बनाने का फैसला क्यों किया? क्या उसे कांग्रेस-जेडीएस के कुछ विधायकों के समर्थन मिल जाने की उम्मीद थी या उसकी रणनीति विपक्ष को सत्तालोलुप दिखाकर सहानुभूति बटोरने की थी? जो भी हो, इतना तो लगता है कि येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने पर जनता में उनके प्रति सहानुभूति बढ़ी होगी, खासकर लिंगायत समुदाय में. आगामी लोक सभा चुनाव के मद्देनजर बीजेपी के लिए यह फायदेमंद होगा. इस बीच बीजेपी भ्रष्टाचार, विकास, साम्प्रदायिकता जैसे मसलों को उठाकर गठबंधन के अंतर्विरोध को उजागर कर सकती है.