किसके हित में है शी जिनपिंग का चीनी अधिनायकवाद?
जिनपिंग के लंबे शासन का चीन के पड़ोसियों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा. बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के कारण भले ही क्षेत्र के कुछ देशों को फायदा हो जाए, लेकिन दक्षिण चीन सागर में चीन की विस्तारवादी नीति के कारण आसपास के कुछ देश आतंकित महसूस करेंगे.
चीनी संसद द्वारा राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अनंत काल के लिए वहां का राष्ट्रपति बनाया जाना 21वीं सदी की एक महत्वपूर्ण घटना है. आजीवन राष्ट्रपति होने का मतलब एक तरह से वहां के सम्राट होने जैसा है. लेकिन इसके पहले ही जिनपिंग ने माओत्से तुंग को छोड़कर अपने पूर्ववर्ती शासकों से ज्यादा ताकत हासिल कर ली थी. राजनीति, अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति पर जिनपिंग की ही चलती थी. हालत यहां तक पहुंच गई थी कि उनके विचारों को पार्टी के घोषणा-पत्र में शामिल किया गया. यह स्थिति उन्हें अपने आप माओ के समकक्ष और देंग शियाओ फेंग के ऊपर खड़ा करती थी. इसके बावजूद उन्हें आजीवन राष्ट्रपति बनाया गया, तो यह सवाल पूछा जा सकता है कि ऐसा क्यों किया गया? इसमें चीन और वैश्विक राजनीति के लिए क्या निहितार्थ छिपे हैं?
यह कहने मात्र के लिए था कि चीन में एकदलीय लोकतंत्र है, लेकिन चीनी संसद के इस फैसले ने इस अलंकरण को भी उससे छीन लिया है. चीन में अब एकदलीय शासन के बजाय एक व्यक्ति का शासन स्थापित हो गया है. यानी पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र पर ताला लगा दिया गया है. शासन का यह स्वरूप माओ के जमाने में था. इसमें एक व्यक्ति के तानाशाही का खतरा छिपा हुआ था, जिसका अहसास उनके उत्तराधिकारी और चीनी बाजारवाद के जनक देंग को था. इसलिए उन्होंने राष्ट्रपति की उम्र और अवसर तय करके यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया था कि माओवाद की पुनरावृत्ति न हो. लेकिन जिस एक व्यक्ति के हाथ में सत्ता के केन्द्रीकरण को रोकने के लिए देंग ने पहल की थी, भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ चुके शी जिनपिंग ने उसे पलट दिया है.
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इससे आधुनिक चीन के निर्माण में जिनपिंग को फैसला लेने में मदद मिलेगी, लेकिन यह मॉडल जिनपिंग और चीन दोनों के लिए घातक है. चूंकि इस मॉडल के तहत सामूहिक नेतृत्व के बजाय एक व्यक्ति फैसला लेगा, इसलिए अगर उससे कोई भूल-चूक हुई, तो व्यक्ति-पूजा के कारण उन्हें कोई रोकने वाला नहीं होगा. जब वे वृद्ध या बीमार हो जाएंगे, तो शासन-प्रशासन के क्षेत्र में शून्य की स्थिति पैदा हो सकती है. अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा, तो भी जिनपिंग के सामने उत्तराधिकारी के चयन की चुनौती होगी. राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच उत्तराधिकार के लिए गुटबाजी का पैदा होना अप्रत्याशित नहीं है. ऐसे में दुनिया के एक ऐसे देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो सकती है, जहां दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी निवास करती है और जो दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है.
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शी जिनपिंग अगर एक सीमित अवधि तक शासन करते, तो संभव था कि उनके राजनीतिक कैरियर का चमकदार अंत होता. पर अनंत काल तक राष्ट्रपति बने रहने का विकल्प चुनकर उन्होंने अपने लिए बड़ी चुनौती मोल ले ली है. यह सही है कि जिनपिंग चीन को आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से महाशक्ति बनाना चाहते हैं, लेकिन जिनपिंग की कार्य-शैली को देखते हुए घरेलू स्तर पर विकास दर को तेज रख पाना आसान नहीं होगा. पर झंझावातों का सामना कर रहे वैश्वीकरण के दौर में अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां जिनपिंग जैसे तानाशाहों के उभरने के अनुकूल हैं. ऐसा देखा जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षों से पूरी दुनिया में उदार लोकतंत्र खतरे में है. दुनिया के कई देशों में अधिनायकवादी शासन अपनी जड़ें जमा रहा है. यह रूस, तुर्की जैसे उन देशों में भी हुआ है, जहां लोकतांत्रिक रीति से सत्ता प्राप्त की गई थी.
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चीन का उभार भी लोकतांत्रिक पैटर्न पर नहीं हुआ है. ऐसे में कुछ विश्लेषक ऐसा भी मानने लगे हैं कि लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था में मजबूत नेता पैदा होने की ज्यादा संभावना नहीं है. इस लिहाज से खुद डोनाल्ड ट्रंप के मातहत अमेरिका भी परीक्षा की घड़ी से गुजर रहा है. ट्रंप के तहत अमेरिका की नैतिक शक्ति में इस कदर गिरावट आई है कि वह लोकतंत्र का हनन करने वाले देशों की प्रभावी तरीके से निंदा करने लायक भी नहीं रह गया है. दूसरी ओर अमेरिका को चुनौती देने की महत्वाकांक्षा रखने वाला चीन डालर डिप्लामेसी के जरिये अपनी आलोचना रोकने का प्रयास कर रहा है. उसके इस दायरे में तानाशाही शासन के साथ-साथ उदार लोकतांत्रिक देश भी हैं.
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जिनपिंग के लंबे शासन का चीन के पड़ोसियों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा. बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के कारण भले ही क्षेत्र के कुछ देशों को फायदा हो जाए, लेकिन दक्षिण चीन सागर में चीन की विस्तारवादी नीति के कारण आसपास के कुछ देश आतंकित महसूस करेंगे. अमेरिका के ट्रंप प्रशासन की नीति भी ऐसी नहीं है, जो क्षेत्र के देशों को आश्वस्त कर सके. भारत पर भी चीन की इस घटना का प्रभाव पड़ेगा. चीन-पाक आर्थिक गलियारे और भारत के पड़ोसियों को कर्ज देकर भारत की घेरने की उसकी रणनीति को और बल मिलेगा.
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अगर इस प्रक्रिया में कोई व्यवधान उत्पन्न हुआ, तो भारत के साथ तनाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है. फिर सीमा पर दूसरे डोकलाम जैसी स्थिति पैदा हो सकती है. एक व्यक्ति के शासन में इसके खतरे ज्यादा हैं, क्योंकि इसमें उसकी निजी महत्वाकांक्षा और प्रतिष्ठा जुड़ी होती है. कोई आश्चर्य नहीं कि चीन में एक मजबूत शासक के उदय के मद्देनजर भारत में भी ऐसी आकांक्षा प्रकट की जाए कि यहां भी एक मजबूत शासक हो. दरअसल, कारपोरेट जगत ने अपनी कमाई सुनिश्चित रखने के लिए पूरी दुनिया में अपना नेता खड़ा करना शुरू कर दिया है.
जिनपिंग का समाजवाद भी कारपोरेट पूंजीवाद का ही अभिन्न हिस्सा है. ऐसी स्थिति में बात-बात पर लोकतंत्र और समाजवादी की दुहाई देने वाले भारतीय वामपंथियों की जिनपिंग के आजीवन राष्ट्रपति बनने के मसले पर चुप्पी खलने वाली है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)