पिछले एक महीने का दौर देश के सर्वाधिक विविधपूर्ण उद्वेलन का दौर रहा है. इसमें न केवल तीन तलाक तथा निजता संबंधी न्यायालय के ऐतिहासिक महत्व के निर्णय ही आये, बल्कि भारतीय समाज के स्वरूप तथा उसकी चेतना के विरोधाभास को दिखाने वाली तस्वीर भी सामने आई. मेरा संकेत तथाकथित बाबा राम-रहीम से जुड़ी घटनाओं की ओर है, जो “सच्चा” (डेरा सच्चा) के अब तक के अर्थ को बिल्कुल उलटकर रख देता है.


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तीन तलाक पर न्यायालय की संवैधानिक व्याख्या वही थी, जो सन् 1986 में थी. किन्तु राजनीतिक कदम सन् 2017 के बिल्कुल विपरीत था. तब संसद ने एक तलाकशुदा महिला के गुजारा भत्ता पाने जैसी मूलभूत आवश्यकता को दरकिनार करके अपने राजनीतिक हितों को तरजीह दी थी. स्पष्ट था कि उस राजनीति का कोई संबंध लोक के हित से नहीं था.


यदि आज सभी राजनीतिक दल दोनों बाहें फैलाकर न्यायालय के इस फैसले का स्वागत एवं मुक्त कंठ से प्रशंसा कर रहे हैं, तो जनता को इस भ्रम से बचना चाहिए कि वे अधिक उदार एवं मानवीय हो गये हैं. दरअसल, यह वक्त उनके अपने ही हाथ से अपनी पीठ थपथपाने का वक्त है कि उनकी संगठित शक्ति एवं सामूहिक इच्छा ने उन्हें ऐसा बनने को मजबूर कर दिया. यह समाज की चेतना का अत्यंत स्वागतयोग्य उज्ज्वल पक्ष है.


लेकिन दुर्भाग्य से इसी के समानान्तर उसका एक जबर्दस्त स्याह पक्ष भी है, जो बाबा राम-रहीम की घटनाओं के माध्यम से हमारे सामने आता है. यह कहना कि इनके लाखों अनुयायियों में बड़ी संख्या गाँव के गरीब और अनपढ़ लोगों की है, समस्या को बहुत छोटे रूप में देखकर उसे बट्टे खाते में डाल देना होगा. गरीबों और अनपढ़ों का शिष्यत्व इतनी जल्दी किसी के भी सामने समृद्धि का इतना विशाल पहाड़ खड़ा नहीं कर सकता.


वस्तुतः धर्म आरम्भ से ही भारतीय समाज के केन्द्र में रहा है. इसलिए इस पूरे प्रकरण को राजनीतिक तथा ‘पूंजीवाद के ओछे कृत्य‘ के रूप में ही, जिसे हम ‘धर्म का निगमीकरण‘ भी कह सकते हैं, न देखकर एक गहन मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्य दृष्टि से देखे जाने की जरूरत है. यहाँ सबसे चिंताजनक पहलू यह नजर आता है कि क्या आधुनिक शिक्षा पद्धति, वैज्ञानिक आविष्कार तथा हमारी उदारवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक प्रणाली हमारी चेतना को तर्कवादी बनाने में असफल रही है? साथ ही यह भी कि संवैधानिक मूल्यों से संचालित होने वाले राजनीतिक दलों का क्या समाज के साथ ऐसा जीवंत संबंध नही रह गया है कि ये उसमें सकारात्मक बदलाव लाकर उसका नेतृत्व कर सकें ? इसके विपरीत कहीं ऐसा तो नहीं कि वे स्वयं ही उनके द्वारा संचालित हो रहे हैं ?


यहाँ यह बात भी गौर करने की है कि डेरा सच्चा सौदा की जो विभत्स सच्चाई हम सबके सामने पेश है, इसका कारण न तो राजनीति है, न प्रशासन और न ही सामाजिक प्रयास. इसके केन्द्र में है, हमारी न्यायपालिका, जिसने इस मामले पर एक प्रकार के प्रशासन की सी भूमिका निभाई. लेकिन सबसे दुर्भाग्यजनक और सबसे चिंतित करने वाली बात यह है कि उस तथाकथित धार्मिक माफिया के विरोध में जनआक्रोश की कोई सामूहिक अभिव्यक्ति नहीं हुई, बावजूद इसके कि उस संगठन के कई घृणित चेहरे दिखाई दिये.


यहाँ समाज की वह चेतना बिल्कुल गायब दिखाई देती है, जो एक निर्भया (लड़की) के साथ हुए विभत्स दुष्कर्म के विरोध में पूरे राष्ट्रीय आक्रोश के रूप में फूटी थी. लगभग यही स्थिति हम पत्रकार गौरी लंकेष की हत्या के बारे में भी देेखते हैं. इतना महत्वपूर्ण यह मामला महज राजनीतिक दंगल की उठा-पटक तथा बुद्धिजीवियों के बौद्धिक विमर्श तक सिमटकर रह गया है. यहाँ सवाल यह है कि तीन तलाक वाली चेतना कहाँ है ?


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)