अखबारों और टीवी पर कूड़े-कचरे की खबरें अचानक बढ़ गई हैं. दिल्ली और नोएडा में कचरा इस समय अदालती नज़र में है. जब-तब अफसरों को अदालती झाड़ पड़ जाती है. हाल ही में कूड़े-करकट को ठिकाने लगाने का जो भी काम सुनाई दे रहा है, वह अदालती डांट से ही होता दिख रहा है. और जो भी हो रहा है उससे अदालतें संतुष्ट नहीं हैं. अदालतें इस बारे में सरकारों से बार-बार रिपोर्ट मांगती हैं. जवाब दाखिल करने के लिए जरूरी है कि प्रशासन कुछ करता हुआ दिखे. लेकिन सिर्फ दिल्ली और नोएडा ही नहीं बल्कि देश का कोई भी प्रदेश या शहर यह दावा नहीं कर पा रहा है कि उसने वाकई इस समस्या से निजात पाने का कोई तरीका ढूंढ़ लिया है. ठोस कचरा प्रबंधन के अब तक सोचे गए तरीके कितने कारगर हैं? कितने व्यावहारिक हैं? उन तरीकों को अपनाने में क्या अड़चनें हैंं? यह भी पता नहीं चल पा रहा है. हर तरफ से एक ही खबर है कि काम चल रहा है. लेकिन ये खबरें नई नहीं हैं. दसियों साल से ठोस कचरा प्रबंधन में देश लगा है. लेकिन ऐसी कोई रिपोर्ट अब तक देखने में नहीं आई जो भविष्य को लेकर निश्चिन्त करती हो. बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव यह है कि कूड़े कचरे की समस्या बढ़ती ही दिख रही है. 


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कूड़े को कहां फेंकते आए अब तक 
कूड़े का निपटान आज अगर इतनी बड़ी समस्या बन गई है तो उसका समाधान खोजने के पहले एक नज़र इतिहास पर भी डाल लेनी चाहि. आज से कोई ढाई हजार साल पहले की प्रवृत्तियां भी हमें पता हैं. मसलन 300 ईसा पूर्व तक यूनान, रोम जैसे देशों के विकसित नगर राज्यों में भी कूड़े के निपटान की कोई निरापद व्यवस्था नहीं थीः लोग घर के बाहर ही कूड़ा डाल दिया करते थे और मात्रा में कम और क्षयशील होने के कारण ज्यादातर कूड़ा खुद ब खुद गल मिट जाया करता थाः उसके बाद के दौर में कूड़े को राज्य सीमाओं के बहार फेंकने का चलन शुरू हुआ. फिर सीमाएं बड़ी होने लगीं और कूड़े की ढुलाई का काम मुश्किल होता गया. तब नदियों में कूड़ा बहाने जैसे तरीके अपना कर देखे गए. और यह प्रवृत्ति पूरे विश्व में 19वीं सदी तक आते-आते इस तरह बदली दिखाई देती है कि कूड़े को जलाना शुरू हो गया. लेकिन बढ़ती जनसंख्या और विकास की होड़ में इस समस्या का आकार बढ़ता चला गया. बाद में हालात यह बने कि शहर अपना कूड़ा गांवों के सिर फेंकने लगे. इस कूड़े को ढोते-ढोते गांवों को परेशानी होने लगी. इस समय अपने देश में लगभग हर नगरीय क्षेत्र से सटे गांवों ने अपना असंतोष जताना शुरू कर दिया है. ऐसे में स्थानीय निकायों के सामने आज सबसे बड़ी समस्या कूड़े को गाड़ने या उसका ढेर बनाने के लिए अपने ही क्षेत्र में ज़मीन तलाशने की आन पड़ी है. हालत इतने खराब हो चले हैं कि जिस जगह भी कूड़ा जमा करने या उसके निस्तारण का उपक्रम लगाने की सरकारी कोशिश हो रही है, वहां आसपास के रिहाइशी इलाके के लोग एतराज जताने लगे हैं. सरकार के सामने आज की सबसे बड़ी समस्या यही है. किसी भी स्तर की सरकार हो वह अदालतों को कैसे बताए कि शहरी इलाकों में ठोस कचरा ट्रीटमेंट प्लांट लगाने में भी कितनी दिक्कत आ रही है. सरकार अगर यह दिक्कत बताएगी तो अदालत यही पूछेगी कि तो फिर यह बताइए कि दूसरे और क्या तरीके हैं.


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कूड़ा कचरा है कितनी बड़ी समस्या 
सुप्रीम कोर्ट ने यूं ही नहीं कहा कि दिल्ली कूड़े के बम पर बैठी है. जिस देश की राजधानी में ही कूड़े के ढेर अब और ऊंचे न बन पा रहे हों, पहाड़ बन चुके हों, वे भरभराकर गिर रहे हों, उनका कूड़ा बिखर रहा हो, राजधानी में ही कूड़ा जमा करने के लिए जब जगह न बची हो, तो यह मान लिया जाना चाहिए कि समस्या बेकाबू हो चली है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के एक और शानदार अट्टालिकाओं वाले नोएडा में अगर जनता अपने इलाके में ठोस कचरा प्रबंधन का उपक्रम लगाने का ही विरोध करने लगी हो तो इस समस्या की जटिलता को आसानी से समझा जा सकता है. और तो और पूरे देश में प्रतिदिन पैदा होने वाले कूड़े कचरे के आंकड़े दहशत पैदा कर रहे हैं. 


कितना कूड़ा पैदा हो रहा है हर साल 
एक अनुमानित आंकड़ा है कि देश में हर साल सवा छह करोड़ टन ठोस कचरा पैदा होता है. इस कचरे में प्लास्टिक, ई-वेस्ट और दूसरा खतरनाक कूड़ा भी शामिल है. और सबसे ज्यादा चौकाने वाली बात यह कि जहां यह कूड़ा पैदा होता है या निकलता है वहां से इसे पूरा का पूरा इकठठा करने का इंतजाम भी नगर पालिकाएं या नगर निगम नहीं कर पा रहे हैं. दावा यह किया जाता है कि पूरे देश के स्थानीय निकाय सिर्फ सवा चार करोड़ टन कूड़ा ही जमा कर पाती हैं. यानी दो करोड़ टन कूड़ा अपने उदगम स्थल पर ही इधर-उधर होता रहता है. या फिर बारिश में नालियों के जरिए नदियों में जा रहा है.


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जमा कूड़े का निस्तारण करने में भी अड़चन 
जिस सवा चार करोड़ टन कूड़े को जमा करने का दावा किया जा रहा है उसे आखिर फेंका कहां जाए या उसका निस्तारण कैसे किया जाए? फेंकने की जगह ही नहीं बचीं। कूड़े के नए ढेर बनाने की भी जगह नहीं बची. कूड़े को नदियों में बहाना भी अब मना है. वायु प्रदूषण की समस्या के कारण इस कूड़े को जलाने पर पाबंदी है. लिहाजा तरकीब खोजी गई कि इस कूड़े के ज्यादातर हिस्से को फिर से किसी काम के लायक बनाया जाए या जुगत लगाकर उससे बिजली बना ली जाए. बहरहाल यह तो पता नहीं कि देश में कितनी जगहों पर ऐसा हो रहा है और कितनी कामयाबी मिल पा रही है लेकिन दावे के मुताबिक यह आंकड़ा जरूर सामने आता है कि इस समय देश में सिर्फ एक करोड़ 20 लाख टन कूड़े का ट्रीटमेंट करके उसका निस्तारण किया जा रहा है. यानी जमा किए गए सवा चार करोड़ टन कूड़े में से सिर्फ सवा करोड़ टन कूड़े का निस्तारण. यानी हम हर साल कुल कूड़े के सिर्फ 20 फीसद कूड़े को ही प्रोसेस या ट्रीट कर पाते हैं. इस तरह एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि सरकारी स्तर पर ही तीन करोड़ टन कूड़े को किसी न किसी जगह या लैंडफिल साईट पर सड़ने-गलने के लिए डाल दिया जाता है. सड़ने से होने वाले नुकसानों पर आए दिन मीडिया में खबरें आती ही रहती हैं. और आजकल संयुक्त राष्ट्र की चिंता प्लास्टिक कचरे को लेकर है जो दशकों-सदियों तक गलता-मिटता नहीं. अतंरराष्ट्रीय स्तर पर प्लास्टिक की चिंता इस कारण से है कि यह प्लास्टिक आखिर में समुद्र में जाकर गिर रहा है. और इस कचरे ने सागरों महासागरों के लिए खतरा पैदा कर दिया है.


कूड़े को ट्रीट करने में क्या कोई दिक्कत है? 
बिल्कुल नहीं है. जब दावा किया जा रहा है कि हमने कूड़े से बिजली बनाने और कूड़े के पदार्थों को दुबारा इस्तेमाल करने की प्रौद्योगिकी इजाद कर ली है तो फिर सारे के सारे कूड़े को भी निस्तारित करके र्प्यावरण को नुकसान पहुंचाए बगैर ठोस कचरे की समस्या से निजात क्या नहीं पा सकते? बिल्कुल पा सकते हैं. यानी सैद्धांतिक तौर पर यह संभव तो है लेकिन व्यावहारिक तौर पर कठिन भी है. आइए प्रबंधन के लिहाज़ से देखें कि क्या कठिनाइयां हैं. 


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खर्चीला है काम 
कितना खर्चीला है यह तो देश के स्तर पर एक समग्र परियोजना का खाका बनाते समय पता चल पाएगा. लेकिन कोई भी प्रबंधन विशेषज्ञ एक मोटा अनुमान जरूर बता सकता है कि छह करोड़ टन कूड़े का निरापद निस्तारण करने के लिए देश के 712 जिलों के करीब 8 हजार नगर-कस्बों में अगर दो-दो कस्बों की एक साथ भी कचरे के प्रबंधन की व्यवस्था कर दी जाये तब भी चार हजार ठोस कचरा ट्रीटमेंट प्लांट या लैंडफिल्स की ज़रूरत पड़ेगी. क्योंकि इससे ज्यादा दूर कचरे की ढुलाई का काम बहुत खर्चीला हो जाएगा. उसके बाद ट्रीटमेंट प्लांट, लैंडफिल या प्रोसेसिंग यूनिट लगाने की लागत अगर कम से कम 50 करोड़ भी बैठी तो भी अनुमानन दो लाख करोड़ रुपए चाहिए होंगे. खर्च का यह अनुमान तब है जब कोई सरकार जंगलात की अपनी जमीन इस काम पर लगा दे. वरना 712 जिलों में 15 से 20 हैक्टेयर की चार हजार जमीनों के अधिग्रहण के लिए मुआवजा देने में ही केंद्र और राज्य सरकारों का पूरा बजट कूड़े के निस्तारण पर ही लग जाएगा. यानी पूरे देश में कूड़े के हानिरहित निस्तारण का जो काम वैज्ञानिक पद्धतियों से संभव है वह देश की मौजूदा माली हैसियत के लिहाज़ से बहुत ही कठिन माना जाना चाहिए, लगभग असंभव. इन हालात में कचरा प्रबंधन के कुछ और उपाय सोचने पर भी लगना होगा.


(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)