इंस्टिट्यूशन ऑफ़ एमिनेंसः क्या और कैसे?
रूस ने अपनी 5 यूनिवर्सिटी को 2020 तक विश्व के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में शामिल कराने का लक्ष्य रखा है. जापान अपनी 10 यूनिवर्सिटी को 2023 तक शीर्ष 100 में देखना चाहता है. अब भारत ने भी अपने 6 इंस्टिट्यूशन ऑफ़ एमिनेंस बनाने की कवायद शुरू कर दी है.
इंस्टिट्यूशन ऑफ़ एमिनेंस को लेकर बड़ा कौतुहल है. इन प्रस्तावित विश्वस्तरीय संस्थानों के रूप-प्रारूप को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं. फिलहाल इतना ही पता है कि सरकार ने पहली सूची में 6 संस्थानों को विश्व स्तर पर पहुंचाने के लिए चुना है. इनमें 3 सरकारी हैं और 3 निजी संस्थान हैं. वैसे शिक्षा के क्षेत्र में विश्वस्तरीय बनने की चाहत नई नहीं है. पिछले एक दशक से विश्व के कई देशों की सरकारें अपने यहां विश्वस्तरीय संस्थान या विश्वविद्यालय बनाने की होड़ में बड़ी शिद्दत से जुटी हुई हैं. इसीलिए ज्यादातर समर्थ देश अपनी आर्थिक रणनीति बनाते समय इन दिनों विश्वस्तरीय शिक्षा प्रणाली के लक्ष्य को प्राथमिक सूची में रखने लगे हैं. मसलन रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने अपने देश की 5 यूनिवर्सिटी को 2020 तक विश्व के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में शामिल कराने का लक्ष्य बना रखा है. इसी तरह जापान के राष्ट्रपति शिंजो अबे भी कह चुके हैं कि वे अपनी 10 यूनिवर्सिटी को 2023 तक शीर्ष 100 में देखना चाहते हैं. उसी तरह भारत ने भी अब तक शीर्ष 100 विश्वस्तरीय विश्विद्यालयों की सूची में जगह ना बना पाने के कारण अपने यहां 6 इंस्टिट्यूशन ऑफ़ एमिनेंस बनाने की कवायद शुरू करने का ऐलान कर दिया है. ये सब कुछ तो हुआ लेकिन इन संस्थानों या विश्वविद्यालयों को विश्वस्तरीय बनाने के लिए करना क्या क्या है?
लक्ष्य की व्याख्या की मांग
यह सारी कवायद जिस लक्ष्य को पाने के लिए की जा रही है उस लक्ष्य की सही-सही व्याख्या अभी किसी भी देश के पास स्पष्टता के साथ उपलब्ध नहीं दिखाई देती. किस यूनिवर्सिटी को विश्वस्तरीय कहा जा सकता है वह परिभाषा किसी के पास नहीं है. एक सामान्य यूनिवर्सिटी और विश्वस्तरीय यूनिवर्सिटी में क्या फर्क हैं इसकी कोई शोधपरक किताबी या अकादमिक सूची भी देखने को नहीं मिलती है. इसी विषय पर बोस्टन कॉलेज के सेण्टर फॉर हायर एजुकेशन के डायरेक्टर फिलिप ऑल्टबेक ने 2003 में अपने एक बहुचर्चित शोधपत्र ‘द कास्ट्स एंड बेनिफिट्स ऑफ़ वल्र्ड क्लास यूनिवर्सिटीज’ में कहा था कि 'हर देश विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान चाहता है, हर देश को लगता है की अब इनके बिना गुज़ारा नहीं है. लेकिन समस्या यह है कि कोई देश ये नहीं जानता की विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय होते क्या हैं. और उन्हें कैसे पाया जाये.' इसके करीब एक दशक बाद चाइनीज़ यूनिवर्सिटी ऑफ़ हांगकांग के एसोसिएट प्रोफेसर जुन ली ने 2012 में छपे अपने शोध पत्र में लिखा की 'विश्वस्तरीय यूनिवर्सिटी की परिकल्पना अभी भी काफी अस्पष्ट, अनिश्चित, विवादास्पद और अलग अलग सन्दर्भों में बदलते रहने वाली है.' प्रबंधन प्रौद्योगिकी के पेशेवर लोग जानते हैं कि किसी लक्ष्य को परिभाषित किए बना उसे हासिल करना बहुत कठिन काम होता है. इसीलिए विश्वस्तरीय संस्थानों के निर्माण में लगने से पहले भारत को भी कम से कम विश्वस्तरीय शिक्षा प्रणाली को परिभाषित करने के काम पर भी लग जाना चाहिए. इससे आगे चल कर लक्ष्य को समयबद्ध और संसाधन संगत रखने में भी खूब मदद मिलेगी.
मौजूदा विश्व रैंकिंग वाले विश्वविद्यालयों का अध्ययन मुश्किल नहीं
यह काम सरकार फ़ौरन शुरू करा सकती है. विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों में माजूदा शीर्ष रैंकिंग वाले संस्थानों के सांगठनिक ढांचे और कार्य प्रणाली का अध्ययन बहुत काम का हो सकता है. हालांकि टाइम्स हायर एजुकेशन नाम की संस्था ने 2014 में शीर्ष 200 यूनिवर्सिटी के मुख्य गुणों की एक सूची बनाई थी. उनमें प्रमुख गुण हैं-
सालाना बजट और शोधकार्यों से आमदनी : विश्व के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों की माली हैसियत, उनका औसतन सालाना बजट और शोधकार्यों से आमदनी विश्व के औसत विश्वविद्यालय की तुलना में बहुत ही ज्यादा है. इस गुण को विस्तार से आगे देखेंगे.
छात्र और स्टाफ का अनुपात : छात्र और स्टाफ का अनुपात 12:1 है. यानी हर 12 विद्यार्थियों पर 1 स्टाफ मेंबर.
विदेशी स्टाफ की नियुक्तियां : ये संस्थान अपने स्टाफ में 20 फीसद नियुक्तियां विदेशियों की करते हैं.
अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शोध सह लेखक: इन संस्थानों में 100 में 43 शोध पत्र किसी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सह लेखक के साथ प्रकाशित होते हैं.
अंतरराष्ट्रीय छात्रों की भागीदारी : इन विश्वविद्यालयों की स्टूडेंट बॉडीज़ में 19 फीसद अंतरराष्ट्रीय छात्रों की भागीदारी कराई जाती है.
यह भी पढ़ें : कितनी बड़ी घटना है एमएसपी का ऐलान
ये ज़रूर है कि ये विशेषताएं विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों को पूरी तरह से परिभाषित नहीं कर सकतीं. क्योंकि हर देश का अपना अलग माहौल, गतिकी और ज़रूरतें होती हैं. लेकिन इन बिन्दुओं की मदद से शुरुआती सिरा ज़रूर पकड़ा जा सकता है.
पैसा कितना जरूरी
कई जानकारों का मानना है कि विश्वस्तरीय बनने के लिए पहली ज़रूरत संसाधन सम्पन्नता ही है. अंतरराष्ट्रीय ख्याति के शिक्षकों और स्टाफ के वेतन और उनके दूसरे खर्चे, शोध पर खर्च और आधुनिक तकनीक से सम्पन्न विश्वस्तरीय आधारभूत ढांचा भर बनाने के लिए ही अच्छी खासी रकम चाहिए होती है. नमूने के तौर पर विश्व के शीर्ष दस विश्विविद्यालयों में शुमार हारवर्ड यूनिवर्सिटी की माली हैसियत तीन लाख करोड़ रुप्ए है. उसका पिछले साल का सालाना बजट 32 हजार करोड़ रुपए है जबकि स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी की माली हैसियत एक लाख 73 हजार करोड़ और उसका सालाना बजट 42 हजार करोड़ रुपए है. ब्रिटिश यूनिवर्सिटी ऑक्सफर्ड का सालाना बजट भी भरतीय मुद्रा में 26 हजार करोड़ रुपए है. हम अनुमान ही लगा सकते हैं कि अपनी सरकार ने जब तीन निजी संस्थानों का चुनाव किया होगा तो बहुत सम्भव है की उनसे संबंधित निजी प्रतिष्ठानों की माली हैसियत को ध्यान में रखा होगा. और जहां तक तीन सरकारी संस्थानों का सवाल है तो इन संस्थानों के पूर्व छात्र दुनिया के कई देशों में अच्छा उद्योग व्यापार कर रहे हैं. इन पूर्व छात्रों के योगदान से भी उम्मीद होगी. वैसे इन सरकारी संस्थानों के लिए सरकार की तरफ से हरेक को अलग से एक हजार करोड़ रुपए दिए जाने की बात है. लेकिन इस समय विश्व के शीर्ष रेंकिंग वाले संस्थानों की माली हैसियत को देखें तो अपने संस्थानों की माली हालत कहीं नहीं ठहरती. मसलन अपने आईआईटी बॉम्बे का पिछला सालाना बजट सिर्फ एक हजार 842 करोड़ था. लिहाजा माली हालत के लिहाज़ से तो ज्यादा कुछ कर पाने की गुंजाइश बनती नहीं दिखती.
शिक्षण और शोध की गुणवतता का पहलू
गौर करने की बात यह है कि अपने मौजूदा संस्थानों से निकले छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेशी संस्थानों में आसानी से दाखिला पा रहे हैं. एक बात यह भी है कि विश्वप्रसिद्ध विदेशी विवि विश्वस्तरीय संस्थान का दर्जा कायम रखने के लिए रणनीति के तहत भी विदेशी छात्रों को दाखिला देते हें. यहां तक कि उन शीर्ष संस्थानों में विदेशी छात्रों के लिए आकर्षक वजीफे भी होते हैं. अगर विश्व स्तरीय संस्थानों की श्रेणी में आने के लिए उतना कुछ सोचा जा रहो हो तो विदेशी छात्रों को भारतीय संस्थानों में दाखिले के लिए वैसे ही प्रयास किए जा सकते.
यह भी पढ़ें : पहले बाढ़ और फिर सूखे की खबरें सुनने के लिए कितने तैयार हैं हम...
लेकिन शोध का महत्व सबसे ज्यादा
शिक्षण संस्थाओं में जब सामान्य और विशेष का भेद होता है तो उसका आधार शोध की गुणवत्ता को भी बनाया जाता है. ये अलग बात है शोधकार्य की गुणवत्ता का कोई निर्विवाद मानदंड आजतक नहीं बन पाया. लेकिन मानवता के हित के शोधकार्य का आकलन होने में देर नहीं लगती. आजकल शोधकार्य की विश्वसनीयता और मौलिकता को परखने की व्यवस्था भी उपलब्ध है. ज्ञान की सैकड़ों विशिष्ट शाखाओं यानी विभिन्न विज्ञानों के अनगिनत अच्छे रिसर्च जर्नल प्रकाशित हो रहे हैं. यानी गुणवत्तापूर्ण शोधकार्य के संज्ञान में आने की कोई समस्या नहीं है. कोई संकट या अभाव है तो वैसे ज्ञान के सृजन का है. इसीलिए विद्वत जगत में यह सुझाव दिया जाता है कि ज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान यानी मानवता के हित के मौलिक शोधकार्य के लिए एक नैतिक स्वभाव चाहिए. विद्यार्थियों और शोधार्थियों में इस नैतिक स्वभाव का विकास भी विश्वस्तरीय बनने में बड़ी भूमिका निभा सकता है. अपने कुछ विश्वविद्यालय इसी नैतिक पहलू को ही पकड़ लें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं कि दुनिया भर के विद्वान उस विश्वविद्यालय में बोलने और सुनने आने लगें.
(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)