सब जानते हैं कि सरकारी खरीद देर से शुरू होती है. उधर किसान पर फौरन बेचने का दबाव होता है. सरकारी मंडियों में एक साथ आवक होने के कारण ही हायतौबा मचती है.
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मीडिया ने इस घटना को खूब बड़ा करके बताया. जबकि सरकार पहले ही यकीन दिला चुकी थी कि किसानों को फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम तय करेगी. सरकार बनने के पहले से लेकर और सरकार बनने के बाद चार साल से लगातार वह इस वायदे से कभी नहीं मुकरी थी. ये ऐलान तो होना ही था. सरकार के कार्यकाल के आखिरी साल में खरीफ की फसलों की बुआई के ऐन पहले अब भी न होता तो कब होता. रही बात फसल की लागत तय करने में आ रही झंझट की, तो किसे नहीं पता था कि किसान की ज़मीन का किराया भी लागत में शामिल करके एमएसपी तय करना फिलहाल सरकार के बूते की बात नहीं है. बिना ज़मीन के किराए को शामिल किए ही धान की फसल के लिए 200 रुपए बढ़ाने पड़े. खैर खरीफ की इन 14 फसलों को नए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने से सरकार को इस मद के लिए कहीं से साढ़े 33 हजार करोड़ रुपए निकालने पड़ेगे. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती.
अब इंतजाम करना पड़ेगा पर्याप्त खरीदी का
हमेशा से यह समस्या रही है कि समर्थन मूल्य पर सरकार किसान की जो उपज खरीदती है वह सीमित मात्रा में ही होती है. मसलन 2017 में देशभर में धान का उत्पादन कोई दस करोड़ टन हुआ था और सरकार अपनी सारी हिकमत लगाकर भी सिर्फ साढ़े तीन करोड़ टन ही खरीद पाई थी. किसानों को बाकी का धान खुले बाजार में ही कम दाम पर बेचना पड़ा था. दरअसल, कर्ज में डूबे किसान को उपज बेचने की जल्दी होती है. अगली फसल के लिए खर्च का इंतजाम करने की भी जल्दी होती है. सो वह घाटा उठाकर भी खुले बाजार में अपना अनाज बेच आता है. लेकिन इस बार तो उसे बाजार और सरकारी मडी के भाव में ज्यादा फर्क दिखेगा.
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वह किसी तरह अपनी ज्यादा से ज्यादा उपज सरकारी मंडी में ही बेचना चाहेगा. यानी सरकारी मंडी में भारी हाय हाय मचना तय मानिए. लिहाज़ा इस साल सरकारी खरीद की खास तैयारी की दरकार है. गोदामों की कमी के कारण अनाज को खरीदकर सुरक्षित रखने का काम तय एमएसपी पर किसान का उत्पाद खरीदने के लिए रकम के इंतजाम के काम से कम बड़ा नहीं है. और यह आंकड़ा पहले से बना हुआ रखा है कि देश के कुल कृषि उत्पादन का 30 फीसद हिस्सा गिर, सड़, गल कर बर्बाद हो रहा है.
खरीद प्रणाली पर अभी से सोचने की जरूरत
सब जानते हैं कि सरकारी खरीद देर से शुरू होती है. उधर किसान पर फौरन बेचने का दबाव होता है. सरकारी मंडियों में एक साथ आवक होने के कारण ही हायतौबा मचती है. उपज की गुणवत्ता की जांच, तुलवाई और पर्चियां कटकर मिलने की दसियों झंझटें खड़ी होती हैं. यही समय होता है कि किसानों में सरकार के खिलाफ ज्यादा ही असंतोष पनपता है. इस बार वह चुनाव के ऐन पहले का समय होगा. इसलिए ज्यादा ही चैकसी की जरूरत है.
अरहर से नाइंसाफी समझ नहीं आई
खरीफ की फसलों में धान और कपास पर खास नज़रें थीं. इसलिए कि जिस के दाम ज्यादा बढ़ें उसी को ज्यादा उगाएं. नए ऐलाने में कपास के दाम कुछ ज्यादा बढ़े हैं. यानी कपास की जोत 10 से 15 फीसद बढ़ने का अनुमान है. इसके अलावा मोटे अनाजों के दामों में भारी बढ़ोतरी की गई है. लेकिन इन मोटे अनाजों की पैदावार ही इतनी कम है कि कोई हलचल दिखी नहीं है. मोटे अनाज उगाने में पानी की कम जरूरत पड़ती है सो हो सकता है कि कम पानी की फसलों को प्रोत्साहन देने के लिए इनके दाम ज्यादा बढाए गए हों. लेेकिन सबसे हैरत अरहर में है. खपत के लिहाज़ से मुख्य दाल अरहर के दाम नगण्य ही बढ़े. कारणों की ज्यादा पड़ताल अभी हुई नहीं है. फिर भी इतना तय है कि अरहर उगाने के लिए देश के किसान हतोत्साहित होंगे.
क्या काफी है इतना ही
एमएसपी के सरकारी ऐलान की तारीफ ज्यादा हो गई है. इसलिए कहीं ऐसा न हो कि आगे से किसान पर ध्यान कम हो जाए. किसान ही वह तबका है जिसे सबसे ज्यादा मदद की जरूरत थी और अभी भी है. सरकार को लगातार चैकन्ना रहना पड़ेगा और वे सारे मौके ढूंढते रहना पड़ेंगे कि किसानों तक ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं कैसे पहुचाई जाएं. खासतौर पर बिजली, पानी, खाद, डीजल के खर्च कम करने की हरचंद कोशिश करने की दरकार अभी भी बनी हुई है. साथ ही खरीद प्रणाली में सुधार का काम भी अभी से शुरू करना पडे़गा, तभी चार छह महीने में तैयारी हो पाएगी.
(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)