मार्च के आखिरी हफ्ते में सुप्रीम कोर्ट में मौजूद रहकर भारत की 1382 जेलों की अमानवीय स्थिति पर हो रही सुनवाई का हिस्सा बनना बहुत खास था. एक तरफ आंखों के सामने खंडपीठ की जायज चिंताएं थीं तो दूसरी तरफ मेरे हाथों में रखे वे कागज थे जो आंकड़ों से पटे पड़े थे और मन में वे सच थे जो अलग-अलग जेलों में दौरे के दौरान मैंने खुद देखे थे. तिनका तिनका ने भारतीय जेलों को लेकर जो देखा, उस पर देश की सर्वोच्च अदालत की चिंताएं देखकर यह अहसास पुख्ता हुआ कि आगे सड़क लंबी है. लेकिन यह विश्वास भी हुआ कि देश की सर्वोच्च अदालत के सीधे दखल से अब कोई ठोस रास्ता जरूर निकलेगा.


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इस समय देश की ज्यादातर जेलों में अपनी निर्धारित क्षमता से कहीं ज्यादा कैदी हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्‍यूरो की 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय जेलों में क्षमता के मुकाबले 114.4 फीसदी ज्‍यादा कैदी बंद हैं और कुछ मामलों में तो यह तादाद छह सौ फीसदी तक है. ऐसे में हाल ही में न्यायमूर्ति एमबी लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने तमाम राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के पुलिस महानिदेशकों (जेल) को चेतावनी दी है कि जेलों में क्षमता से ज्यादा भीड़ के मुद्दे से निपटने के लिए अदालत के पहले के आदेश के मुताबिक एक कार्य योजना जमा करने में नाकाम रहने की वजह से उनके खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला चलाया जा सकता है.


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खंडपीठ ने इस बात पर जोर दिया कि कैदियों के मानवाधिकारों के प्रति राज्य सरकारों का रवैया लचर और गैर-जिम्मेदाराना है. विचाराधीन समीक्षा समितियां भी अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं निभा सकी हैं. हर जिले में गठित यह समिति विचाराधीन या सजा पूरी कर लेने वाले या जमानत पाने वाले कैदियों की रिहाई के मामलों की समीक्षा करती है लेकिन यह समीक्षा भी स्थिति में सुधार लाने में कारगर नहीं रही है.


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अदालत ने राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को अब 8 मई तक अपनी रिपोर्ट पेश करने के लिए कहा है. सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले भी छह मई, 2016 और तीन अक्तूबर, 2016 को जेलों की भीड़ कम करने के लिए एक कार्ययोजना बनाने का निर्देश दिया था. अदालत ने उनसे 31 मार्च, 2017 तक इसे जमा करने को कहा था लेकिन किसी भी राज्य ने ऐसा नहीं किया. ऐसे में अब इस आदेश पर अमल न होने पर सीधेतौर पर अवमानना का मामला बन सकता है.


एक तरफ जेलें भीड़ से उलझ रही हैं और दूसरी तरफ इनमें जेल कर्मचारियों की भारी कमी भी बनी हुई है. नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी (नालसा) की ओर से पेश रिपोर्ट के मुताबिक देशभर की जेलों में कर्मचारियों की अनुमोदित क्षमता 77,230 है लेकिन इनमें से 31 दिसंबर, 2017 तक 24,588 यानी 30 फीसदी से भी ज्यादा पद खाली थे. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस महानिदेशकों (जेल) से खाली पदों को भरने की हिदायत दी है.


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इन चिंताओं के बीच अब सारा दारोमदार जेलों पर ही है. ताज्जुब की बात यह है कि मानवाधिकार की तमाम कहानियों के बावजूद भारत में जेलों को लेकर अब तक न तो गंभीरता का माहौल बना है और न ही सुधारपरक और समय-सीमा परक योजनाएं बनी हैं. लगता है कि इसके मूल में एक बड़ी वजह राजनीतिक इच्छाशक्ति की ही कमी है क्योंकि जेलें वोट नहीं लातीं.


जेलों की स्थिति से संबंधित मामले में सुनवाई में सहायता के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त सलाहकार गौरव अग्रवाल और खुली जेलों पर काम कर रहीं स्मिता चक्रवर्ती के सहयोग से जेलें चर्चा में तो हैं लेकिन जेलों के सामाजिक या राजनीतिक चिंता के दायरे में आने में अभी समय लगेगा.


(डॉ. वर्तिका नन्दा  जेल सुधार विशेषज्ञ, सुपरिचित मीडिया शिक्षक और कैदियों के जीवन पर आधारित विशेष पुस्‍तक श्रृंखला ‘तिनका-तिनका तिहाड़’, ‘तिनका-तिनका डासना’ और ‘तिनका-तिनका आगरा’ की लेखिका हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)