अपराध के बाद और कई बार अपराध किए बिना भी जेल में आए लोग भी उसी समाज का हिस्सा होते हैं जहां राष्ट्र पनपता है. यह बात अलग है कि मानवाधिकार और तमाम बाकी बहसों के बावजूद जेलें और बंदी किसी सकारात्मक खबर या शोध की रोशनी से दूर दिखाई देते हैं.
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राजपथ भी सजा. गणतंत्र की बातें भी हुईं. एक दिन की सरकारी छुट्टी और राष्ट्रभक्ति के गीत. यह 26 जनवरी की वह झांकी है जो आजाद भारत के एक सशक्त परिचय का हिस्सा है. इस परिचय में सबकुछ खुला, उन्मुक्त और साफ है लेकिन इससे परे एक संसार है जहां आजादी और गणतंत्र की बात के बीच सलाखें हैं और इनकी गिनती किसी उम्मीद में नहीं होती.
समाज जेलों के बिना नहीं है और जेलें भी समाज के बिना कोई मायने नहीं रखतीं. समाज का एक छोटा हिस्सा हर रोज जेलों में जाता है और एक हिस्सा बाहर भी आता है. यानी बीच का रास्ता कठिन होने के बावजूद जीवन के बचे रहने पर वह पार जरूर होता है. इसका एक मतलब यह भी कि समाज के लिए जेलों को अनदेखा, अनसुना कर देने से जेलों का अस्तित्व नहीं मिटता. लेकिन यदि जेलों को जन और तंत्र से जोड़ दिया जाए तो जेलें राष्ट्र-निर्माण का गीत जरूर बन सकती हैं.
अपराध के बाद और कई बार अपराध किए बिना भी जेल में आए लोग भी उसी समाज का हिस्सा होते हैं जहां राष्ट्र पनपता है. यह बात अलग है कि मानवाधिकार और तमाम बाकी बहसों के बावजूद जेलें और बंदी किसी सकारात्मक खबर या शोध की रोशनी से दूर दिखाई देते हैं. चूंकि जेल संवाद की संभावनाओं से काफी हद तक परे और कटी होती हैं, वे राष्ट्र निर्माण में योगदान देने में भी अक्षम मान लिए जाते हैं.
देश का तकरीबन हर राज्य 26 जनवरी और 15 अगस्त को जेलों से कुछ ऐसे बंदियों को रिहा करता है जिनकी सजा के कम से कम 14 साल पूरे हो चुके हैं और जिनके आचरण को लेकर जेलें आश्वस्त हैं. वे कहीं खबर नहीं बनते. लगता है कि जैसे 14 साल में वे देश के मानचित्र से ही मिट गए हैं और कहीं बाहर धकेल दिए गए हैं.
भारत में जेलें राज्य का विषय हैं और भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार इनकी देखभाल, सुरक्षा और इन्हें चलाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों के जिम्मे है. इनका संचालन जेल अधिनियम 1984 और राज्यों के बनाए जेल मैन्यूल के जरिए किया जाता है. इस काम में केंद्र सरकार जेलों में सुरक्षा, सुधार, मरम्मत, स्वास्थ्य सुविधाएं, ट्रेनिंग, जेलों के अंदर चल रही योजनाओं के आधुनिकीकरण, जेल अधिकारियों के प्रशिक्षण और सुरक्षा के विशेष ऊंचे अहातों को बनाने में मदद देती है. यह कागजी सच है.
लेकिन इन शब्दों के परे जेलों के कई बड़े सच हैं. दुनियाभर की कई जेलें अब खुद को सुधारगृह कहने लगी हैं लेकिन अब भी यहां सुधार की कम और विकार की आशंकाएं ज्यादा पलती हैं. इस वजह से कई बार अपराधी अपने कद से भी बड़ा अपराधी बनकर जेल से बाहर आता है और दोबारा अपराध से जुड़ जाता है. यह जेलों के संचालन और उसके उद्देश्य को नाकाबिल साबित करता है. जेलें अपराधियों को आपराधिक दुनिया के कड़वे यथार्थ, पश्चाताप और जिंदगी को दोबारा शुरू करने की प्रेरणा देने में अक्सर असफल रहती हैं. लेकिन वे सजा को लेकर नई परिपाटियां जरूर तय करती जाती हैं.
सम्राट अशोक के काल में भी जेलें अव्यवस्थित थीं और यह माना जाता था कि एक बार जेल में गया व्यक्ति जिंदा बाहर नहीं आ पाएगा. लेकिन बाद में बौद्ध धर्म के संपर्क और प्रभाव में आने के बाद अशोक ने जेलों में सुधार लाने के कई बड़े प्रयास किए. हर्षचरित में जेलों की बदहाल परिस्थितियों पर कुछ टिप्पणियां की गई हैं. ह्यून सांग ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि उस जमाने में बंदियों को अपने बाल काटने या दाढ़ी बनवाने की भी अनुमति नहीं दी जाती थी. लेकिन कुछ खास मौके भी होते थे जब बंदियों को जेल से मुक्त कर दिया जाता था.
कालिदास ने लिखा है कि जब किसी राजकुमार का जन्म किसी अशुभ नक्षत्र में होता था तो उसके प्रभाव को घटाने के लिए भविष्यवक्ता बंदियों की रिहाई की सलाह देते थे. इसी तरह से राजा की ताजपोशी के समय भी कुछ बंदियों को रिहा किया जाता था. प्राचीन भारत में जेलों का कोई व्यवस्थित इंतजाम नहीं था और न ही सजाओं को लेकर कोई बड़े तय मापदंड ही थे.
चूंकि जेलें प्राथमिकता सूची में नहीं आतीं, जेलें समाज से अलग एक टापू की तरह संचालित होने लगती हैं और समाज इस अहसास से बेखबर रहने की कोशिश में रहता है कि जो जेल के अंदर हैं, वे पहले भी समाज का हिस्सा थे और आगे भी समाज का ही हिस्सा होंगे. यह एक खतरनाक स्थिति है. इसलिए समाज, जन और तंत्र- तीनों के बीच पुल का बना रहना बेहद जरूरी है. पुल नहीं होगा तो जेल में सुधरने की बजाय बड़े अपराध की ट्रेनिंग और अवसाद को साथ लेकर लौटा अपराधी समाज के लिए पहले से भी बड़ा खतरा साबित होगा. लेकिन इसे समझने के लिए काफी परिपक्वता की जरूरत है. जेलों को बदलने के लिए न्यायिक प्रणाली में बदलाव लाने होंगे. बदलाव से जुड़े यह सारे बिंदु एक-दूसरे से जुड़े हैं. इन्हें आपस में जोड़े बिना कहानी को नए सिरे से नहीं लिखा जा सकता.
बहरहाल हर साल कम से कम दो मौकों पर मानवीय दया और राष्ट्र के उत्सव के सम्मान के तौर पर रिहा होने वाले बंदी भी अगर देश की कहानी को आगे ले जाने की कड़ी में जोड़े जा सकें तो देश की तस्वीर में एक नया अध्याय जुड़ सकता है.
(डॉ. वर्तिका नंदा जेल सुधारक हैं. जेलों पर एक अनूठी श्रृंखला- तिनका तिनका- की संस्थापक. खास प्रयोगों के चलते दो बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल. तिनका तिनका तिहाड़ और तिनका तिनका डासना- जेलों पर इनकी चर्चित किताबें हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)