कोई भी शब्द चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो; जब अपने संपूर्ण परिवेश एवं संस्कारों के साथ कानों के रास्ते होता हुआ दिल के दरवाजे पर हल्की-सी भी दस्तक देता है, तो अनचाहे-अनजाने ही अंदर न जाने क्या-कुछ होने लगता है. कड़कड़ाती ठंड की सुबह-सुबह चाय की चुस्कियों के साथ जब मेरी पत्नी ने यह सूचना दी कि “बाइस को वसंत है“, तो मैं अचानक चौंक उठा. अंदर एक हलचल-सी मच गई. जब मैंने अखबार से आंखें हटाकर इस खबरनवीस के चेहरे पर टिकाई, तो मुझे उन गालों का रंग थोड़ी देर पहले के रंग से अधिक सुर्ख गुलाब दिखाई दिया. शायद वे अपने जीवन के दूसरे दशक के मध्य में पहुंच गई थीं, और मैं भी.


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प्रकृति का ऋतु-चक्र
मेरे लिए वसंत प्रकृति के ऋतु-चक्र का एक पड़ाव भर न होकर स्मृति में रचा-बसा जीवन का एक स्थायी टुकड़ा है. इसकी पदचाप मुझे वर्तमान से उठाकर अतीत की कोमल और सुगंधित गोद में; थोड़ी देर के लिए ही सही, झपकियां लेने के लिए पहुंचा देती है. इस सूचना से कि ‘‘वसन्त आने वाला है’’, मैं अपने गाँव की कच्ची मिट्टी के बने टपरे वाले उस स्कूल में पहुंच गया था, जहां हम इसे ‘सरस्वती पूजन’ के नाम से पूजा करते थे. वसंत से मेरी पीढ़ी के लोगों का पहला परिचय इसी ‘ज्ञान की देवी’ के रूप में हुआ था. हांलाकि वसंत नारी नहीं पुरूष है.


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महाप्राण निराला का जन्‍मदिन
काॅलेज में वसंत का रूप थोड़ा बदला, हांलाकि मूल रूप ‘ज्ञान’ ही बना रहा. साहित्य के हम सब विद्यार्थियों ने, जो उस दौर के प्रगतिशील साहित्य से बड़े प्रभावित थे, इसमें महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जन्मदिन को शामिल कर दिया था. अब ज्ञान में रचनात्मकता (कल्पना) ने मिलकर वसंत के रूप को बड़ा बना दिया था. लेकिन एक बात और थी. साहित्य में लड़कियों की संख्या अधिक होती थी. वसंत पंचमी के दिन उनके लिए दो शर्तें थीं. पहली यह कि भी लड़कियां साड़ियां पहनकर आएंगी. दूसरी यह कि सभी वासंती रंग की साड़ियां पहनकर आएंगी. उनके ऐसा करने से उस छोटे से ‘वसंत उत्सव’ का जो माहौल बनता था, वह बयां करने का नहीं, केवल महसूस करने का है. लड़कियां अचानक पहले की तुलना में काफी बड़ी और अधिक सुन्दर लगने लगती थीं; इतनी सुंदर कि उस सुन्दरता की छाप अभी भी आँखों के परदों पर छपी हुई है. यह जादुई कमाल करके वसंत ने उम्र के इस दौर में अपनी परिभाषा को और विस्तार दे दिया था. यहीं आकर कामदेव के ‘अनंग’ में तब्दील होने की कथा समझ में आई थी.


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'ऋतुओं में मैं वसंत हूं'
लेकिन वसंत यहीं आकर थम नहीं गया. व्यास की गीता पढ़ते हुए कृष्ण के एक वक्तव्य से भेंट हुई कि ‘‘ऋतुओं में मैं वसंत हूं.’’ दिमाग में खलबली मच गई. भला, यह नया कौन-सा वसंत आ टपका? कृष्ण ने कहा है. कुछ न कुछ तो अर्थ होगा ही इसका. सोचता रहा, सोचता रहा, और एक दिन अचानक समझ में आ गया. वह दिन भी वसंत का ही दिन था. समझ में यह आया कि दरअसल, वसंत उत्तेजना नहीं है, जिसमें मैं अभी तक रह रहा था, और जिसे मैं अभी तक जी भी रहा था. निःसंदेह यह उष्णता है-शीत की जानलेवा ठिठुरन, जो तरल (गति) को जमाकर जड़ (गतिहीन) में परिवर्तित कर देती है, से मुक्ति दिलाने वाली उष्णता. उत्तेजना नहीं उष्णता.


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जब शीत को उष्णता का संग मिलता है, या उत्तेजना उष्णता के स्तर पर उतरती है, तब जीवन में संतुलन आ जाता है. इस संतुलन से ही सृजनात्मकता अंकुरित होती है. यह संतुलन ही आम की पत्तियों के बीच बौरों के झुंड तथा पौधों पर तरह-तरह के रंगों वाली फूलों की लड़ियां खिला देता है. इस संतुलन से प्रकृति का शृंगार हो जाता है, और शृंगार करने वाला यह कलाकार है-वसंत. मेरे लिए वसंत अब यही है-जीने का एक अनोखा-अदभुत अंदाज. वसंत तुम्हारा स्वागत है.


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)