समलैंगिक रिश्तों के कानूनी पहलुओं को कैसे करेंगे हल?
मौजूदा कानूनी लड़ाई की शुरुआत भले ही नाज़ फाउंडेशन द्वारा दिसंबर, 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट में दाखिल याचिका से शुरू हुई हो लेकिन आईपीसी 377 के खिलाफ पहली याचिका एड्स भेदभाव संगठन ने 1994 में दाखिल की गई थी.
भारत के आम नागरिकों के लिए एलजीबीटीआईक्यू शब्दावली भले ही नई हो लेकिन समलैंगिकता से उनका परिचय पौराणिक कथानकों से लेकर इतिहास और मौजूदा समाज तक है. भारत के मत्स्य पुराण, नारद पुराण के अलावा रामायण में राक्षस महिलाओं के आपस में चुंबन का तो महाभारत में सिखण्डी नामक ट्रांसजेंडर का जिक्र है. इसी तरह से खुजराहों की प्रतिमाओं में समलैंगिक संबन्धों का चित्रण है तो वात्सायान कामसूत्र से लेकर कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक में इस तरह के सम्बन्धों के बारे में लिखा गया है. देश के एतिहासिक काल के राजाओं से लेकर मुगलकाल के बादशाहों तक के बारे में इस तरह के सम्बन्धों की अनेक किवदंतियां हैं.
इसके बावजूद भारतीय जनमानस के बीच समलैंगिकता को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से घृणा और हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है. दुनिया के उन तमाम देशों को देखें, जिनके सांस्कृतिक विकास को भारत अपना रोल मॉडल मानता है, उन देशों में से अधिकतर ने इस हक़ीक़त को बहुत पहले स्वीकार कर चुके हैं. दुनिया के अमेरिका, रूस, साउथ कोरिया, जापान, ब्रिटेन, स्पेन, जर्मनी, इटली, कनाडा, नीदरलैंड समेत करीब 30 देशों में समलैंगिकता स्वीकार्य है.
उच्चतम न्यायालय ने करीब 150 साल पुराने औपनिवेशिक कानून के एक अमानवीय और उत्पीड़क हिस्से का अंत करके एक बड़ा और ऐतिहासिक फैसला दिया है. इस फैसले से देश की करीब 25 लाख एलजीबीटीआईक्यू यानि लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, इंटरसेक्स, क्वियर आबादी को अपनी पसंद की ज़िंदगी जीने का अधिकार मिल गया है. यह आंकड़ा स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2012 में उच्चतम न्यायालय को बताया था लेकिन वास्तविक आंकड़ा इससे अधिक हो सकता है. हालांकि उच्चतम न्यायालय ने पशुओं और बच्चों के साथ अप्राकृतिक यौन क्रिया से संबंधित धारा 377 का हिस्सा पहले की तरह अपराध की श्रेणी में बनाए रखा है.
इससे पहले आईपीसी की धारा 377 के अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि स्वेच्छा से प्रकृति के विपरित किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करता है तो वह गैर जमानती अपराध होता था, जिसके लिए उसे 10 साल की कैद या आजीवन कारावास और जुर्माने का प्रावधान था. इस फैसले के बाद सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाया गया शारीरिक संबंध अपराध नहीं रह गया है.
मौजूदा कानूनी लड़ाई की शुरुआत भले ही नाज़ फाउंडेशन द्वारा दिसंबर, 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट में दाखिल याचिका से शुरू हुई हो लेकिन आईपीसी 377 के खिलाफ पहली याचिका एड्स भेदभाव संगठन ने 1994 में दाखिल की गई थी. यह याचिका तिहाड़ जेल में पुरुष कैदियों को कंडोम बांटने को लेकर रोक पर था, जिसका मुख्य आधार यह था कि कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं था कि कैदियों के बीच आपस में समलैंगिक संबंध हैं. नाज़ फ़ाइंडेशन की याचिका पर 2 जुलाई को फैसला देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के अनुसार असंवैधानिक पाया और कहा कि बिना सहमति के, नॉन-वैजाइनल और माइनर को छोडकर सहमति से दो वयस्कों के बीच किया गया वैजाइजिनल सेक्स अपराध नहीं है. दिल्ली हाईकोर्ट के इस फैसले को 11 दिसंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने न केवल रद्द कर किया बल्कि रिव्यू पिटीशन भी खारिज कर दिया.
इस मामले में नया मोड़ उच्चतम न्यायालय के 24 अगस्त 2017 के उस फैसले से आया, जिसमें निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया और लैंगिक झुकाव को निजता के प्रमुख लक्षणों में से एक बताया गया. इस फैसले पर उच्चतम न्यायालय का रुख उसी समय पता चल गया था, जब 10 जुलाई 2018 को जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ ने एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों पर सुनवाई करते हुए कहा कि जीवनसाथी का चुनाव मौलिक अधिकार है.
आखिरकार मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, ए एम खानविल्कर, डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने समलैंगिकता को अपराध नहीं माना और कहा कि वे समलैंगिकों के सम्मानजनक जीवन के अधिकार के साथ हैं. जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि यह फैसला औनिवेशिक राज के अमानवीय कानूनों को दफन करने की ओर पहला कदम है और राज्य का दो वयस्कों की निजी ज़िंदगी को नियंत्रित करने से कोई मतलब नहीं होना चाहिए. जस्टिस इन्दु मल्होत्रा ने कहा कि समलैंगिकता सहज प्रवृत्ति है, ऐसे लोगों के प्रति भेदभाव करने और उन्हें पीड़ा देने के लिए इतिहास और समाज को उनसे माफी मांगनी चाहिए.
उच्च न्यायालय की तरफ से यह भी कहा गया कि समाज को अपने दृष्टिकोण और मानसिकता में बदलाव लाना चाहिए. निश्चित रूप यह फैसला जीने के अधिकार और सम्मानजनक जीवन की जीत के साथ ही संविधान की जीत है. संविधान के अनुच्छेद 14, 15, और 21 ने एक बार फिर से घुटन में जी रहे लोगों को आज़ादी महसूस करने का मौका दिया है. लेकिन कानून किसी भी मामले का एक पक्ष होता है और समाज तथा संस्कृति दूसरा. बेशक यह लड़ाई कानून के स्तर पर जीत ली गई हो लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव की राह अभी भी बाकी रह जाती है. भारतीय परिवेश और समाज में इस तरह के सम्बन्धों को स्वीकार्य बनाना आज के दौर में भी एक बड़ी चुनौती है. उच्चतम न्यायालय ने इस बात को समझते हुए इशारा किया है कि उसका काम फैसला करना था और उसने कर दिया लेकिन इसके बारे लोगों को जागरूक करने का काम सरकार और मीडिया का है.
लेकिन मुश्किलों का अंत यहीं नहीं होने जा रहा है क्योंकि कोई भी कानूनी अधिकार, कानूनी लड़ाई के कई और दरवाजे खोल देती है. जब समलैंगिकता अपराध नहीं रह गया है तो दो समलैंगिक लोगों के लिव-इन में रहने और विवाह करने के नियम क्या और किस तरह के होंगे? इनके विवाह के लिए धार्मिक पर्सनल कानून लागू होंगे या फिर स्पेशल विवाह एक्ट लागू होगा या फिर कोई नया कानून होगा. अगर पारंपरिक रूप से शादी होती है तो दहेज निरोधक कानून की स्थिति क्या होगी? 498ए, घरेलू हिंसा और भरण-पोषण कानून लागू होगा कि नहीं. डाइवोर्स के मामले क्या स्थिति होगी?
इन सब क़ानूनों के जुड़े मामलों में समस्याएं आएंगी क्योंकि जब दोनों एक ही लिंग के होंगे तो उसमें कौन पति है या कौन पत्नी, यह डिफ़ाइन नहीं होगा. ऐसे में 498ए का संरक्षण पुरुष समलैंगिक में नहीं मिल सकता जबकि महिला समलैंगिक में मिल सकता है क्योंकि 498ए में महिला के पति द्वारा प्रताड़ना का जिक्र है. अगर दोनों ही विवाद के दौरान अपने रोल को मानने से मना कर देते हैं तो फिर क्या स्थिति होगी. क्या विवाह के समय ही एफ़िडेविट के जरिये तय किया जाएगा कि कौन पति की भूमिका में होगा और कौन पत्नी की. शायद इससे कानूनी उलझन को सुलझाने में मदद मिले लेकिन अगर दोनों मिलकर बच्चा गोद लेते हैं तो बच्चे को गोद लेने के पीछे उनकी कोई गलत मंशा नहीं है इस पर समाज और कानून कैसे और क्यों भरोसा करेगा? आगे आने वाले समय में इस तरह के और भी कानूनी मुद्दे उभरेगें, लगता है इस तरफ न्यायालय का ध्यान नहीं गया है?
वैसे भी देश वैवाहिक और पारिवारिक मसलों को लेकर इतने कानून हैं कि मौजूदा समय में देश में 5 लाख से अधिक मामले वैवाहिक विवादों के दर्ज हैं. साल दर साल इस तरह के विवाद के मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि समलैंगिकता को मान्यता मिलने के बाद परिवार में संपत्ति और उत्तरधिकार विवाद को भी गति मिलेगी. इससे पुलिस और न्यायालय पर मुकदमों का भार भी बढ़ेगा. इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि इन सब कानूनी विवादों के विस्तार लेने से पहले ही इस दिशा में उठायेँ ताकि ऐसा न हो एक मर्ज का इलाज किया लेकिन दूसरे मर्ज से रोगी ने बिस्तर पकड़ लिया. एज स्वस्थ और बेहतर समाज के लिए ज़रूरी है कि व्यवस्था इस तरह की हो कि लोगों को कम से कम अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़े और कम से कम पुलिस के पास जाना पड़े. अगर ऐसा नहीं होता तो एक बेहतर समाज बनने का हमारा सफ़र, सफ़र में ही रह जाएगा, जो हमें एक लोकतान्त्रिक देश के रूप में असफल साबित कर देगा.
(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)