एक देश-एक चुनाव प्रणाली और संघीय ढांचा
एक देश और एक चुनाव के पक्ष में तर्क यह है कि देश में वर्ष 1967-68 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे लेकिन इसका कारण कोई संवैधानिक प्रावधान न होकर लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल एक साथ खत्म होना था
देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने संसद के संयुक्त अधिवेशन में संबोधन के दौरान, देश भर में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को समय की मांग बताया है. नीति आयोग ने भी करीब 2 साल पहले 2024 के आम चुनाव से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने पर सुझाव देने के लिए एक समिति बनाने की बात की थी. एक देश और एक चुनाव कराने की पहल करीब दो साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी की थी और पिछले साल की शुरुआत में 25 जनवरी को मतदाता दिवस के अवसर पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी इस बात का समर्थन किया था.
एक देश और एक चुनाव के पक्ष में तर्क यह है कि देश में वर्ष 1967-68 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे लेकिन इसका कारण कोई संवैधानिक प्रावधान न होकर लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल एक साथ खत्म होना था. यह परंपरा इसलिए खत्म हुई क्योंकि 1968 में कई राज्यों की विधानसभाओं को समय से भंग किया गया और 1971 में लोकसभा का चुनाव समय से पहले करवाया गया.
आज के अस्थिर सरकारों के दौर में यह तय नहीं है कि किस राज्य में कौन सी सरकार कितने वर्ष या कितने महीनों तक चलेगी. देशभर में अलग-अलग समय पर चुनाव का अपना महत्व है क्योंकि इससे न केवल केंद्र सरकार पर बल्कि राज्यों की सरकारों पर भी एक तरह का लोकतान्त्रिक दबाव बना रहता है क्योंकि एक जगह के राजनीतिक निंर्णय का असर दूसरे राज्यों में भी होता है. इस तरह से चुनाव सरकारों पर अंकुश लगाने का भी काम करते हैं, ऐसा नहीं होने से सरकारें निरंकुश हो जाएंगी.
आज विकास के माइक्रो मॉडल को आदर्श माना जाता है और सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर ज़ोर दिया जाता है. साथ ही क्षेत्रीय जरूरतों और क्षेत्रीय विकास को पूरा करने के लिए क्षेत्रीय आवाजों को सुनने की अपील की जाती है. ऐसे में देशभर में सभी निकायों का चुनाव एक साथ कराने से केंद्रीय मुद्दों के साथ क्षेत्रीय जरूरतों की आवाजें दबकर रह जाएंगी.
एक देश और एक चुनाव कराने कई और मजबूत तर्क दिये जा रहे हैं, जैसे देश में हर वक्त कहीं न कहीं और कोई न कोई चुनाव ज़रूर चल रहा होता है, जिससे पूरे देश की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था चुनावी मोड में चली जाती है. हाल के वर्षों में प्रदेश और स्थानीय चुनावों में केंद्रीय सत्ताधारी दल के शीर्ष नेतृत्व की भागीदारी बहुत ज्यादा बढ़ी है, जो चुनावों को अपने नीतिगत फैसले से प्रभावित कर सकते हैं. साथ ही देश के हर जिले, तहसील और ब्लॉक से जुड़े सभी स्तर के अधिकारी समेत पुलिस, सीआरपीएफ, सेना, शिक्षक और अन्य बहुत से सरकारी कर्मचारी चुनावी ड्यूटी में ब्यस्त हो जाते हैं; जिससे आम लोगों से जुड़े रोज़मर्रा के काम महीनों प्रभावित रहते हैं. यही नहीं चुनावी माहौल के चलते शिक्षण कार्य और परीक्षाएं भी प्रभावित होती हैं. चुनाव के दौरान आचार संहिता लग जाने से विकास के कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. सबसे महत्वपूर्ण दलील यह है कि बार-बार के चुनावों से सरकारी खजाने पर भार बढ़ता जाता है.
चुनाव आयोग के एक आकलन के अनुसार देश के आम चुनाव 1952 के 10.45 करोड़ रुपये के मुक़ाबले 2009 में 1483 करोड़ रुपए और 2014 में 3426 करोड़ रुपए खर्च किए गए. अगर प्रति मतदाता के हिसाब से आकलन करें तो 1952 के लोकसभा चुनाव का 60 पैसे प्रति मतदाता का खर्च 2014 में बढ़कर 18 रुपया प्रति मतदाता हो गया है. यही नहीं भारत दुनिया भर में राजनीतिक दलों और उम्मीद्वारों द्वारा चुनाव प्रचार और अभियान पर खर्च करने वाला अमेरिका के बाद दूसरे सबसे बड़े लोकतन्त्र के रूप में सामने आया है. एक आकलन अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में, अमेरिका के 2012 के राष्ट्रपति के चुनाव के करीब 42000 करोड़ रुपए के मुक़ाबले करीब 30000 करोड़ रुपये खर्च किए गए. चुनाव आयोग के अनुसार विधानसभाओं के चुनावों में लगभग 4500 करोड़ रूपये का खर्च बैठता है.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन तर्कों में बहुत बल है लेकिन इस व्यवस्था को लागू करने में सबसे बड़ी मुश्किल चुनाव आयोजित करने की मशीनरी और सुरक्षा बलों की व्यवस्था को लेकर आएगी क्योंकि अमूमन लोकसभा या चंद राज्यों में चुनाव के दौरान ही चाक-चौबन्द व्यवस्था बनाने के लिए महीने भर से अधिक समय लेकर करीब एक दहाई चरणों में चुनाव करवाने पड़ते हैं. इस तरह से पूरे देश भर में एक साथ चुनाव करवाने के लिए और भी अधिक समय और चरणों की ज़रूरत पड़ेगी. इसके अलावा एक लोकसभा क्षेत्र में कई विधानसभाओ के छोटे-छोटे हिस्से हो सकते हैं, इससे या तो एक ही बूथ पर कई मशीन की ज़रूरत पड़ेगी और तैयारी में बहुत समय चाहिए और मतदाताओं में गफलत रहेगी या फिर नए सिरे परिसीमन कराया जाय जिससे लोकसभा और विधानसभा क्षेत्र में साम्य स्थापित किया जाए.
इसके लिए नई नीति लानी पड़ सकती है. इसके साथ ही इसके बाद अगर किसी राज्य में बीच में कोई सरकार या देश की लोकसभा ही विघटित हो जाती है तो संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चुनाव करवाना ही पड़ेगा . इससे तो फिर से हम 1971 वाली स्थिति में आकर खड़े हो जाएँगे. एक लोकतान्त्रिक सरकार का होना संविधान का सबसे बड़ा आदेश है, और इसे बहुत लंबे समय के लिए टाला नहीं जा सकता है. इसलिए इस संदर्भ में कोई संवैधानिक संसोधन प्रस्तावित भी किया जाता है तो वह न तो बहुत अधिक व्यावहारिक साबित होगा. वैसे भी जिन राज्यों में सरकार को बने कुछ महीने या 1 से 3 साल ही हुये होंगे, वे तो बिलकुल इस पर राजी नहीं होंगे और साथ ही इससे चुनाव करवाने में होने वाले खर्च में शायद ही कोई बहुत अंतर पड़े.
हालांकि जिन विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा के साथ या 6 महीने पहले या बाद खत्म खत्म हो रहा हो, उनका चुनाव भी लोकसभा के साथ करवाया जा सकता है. इसके लिए भी सर्वदलीय सहमति की ज़रूरत होगी. इसमें भी समस्या वही है कि संविधान में कार्यकाल खत्म होने के चलते राष्ट्रपति शासन लगाने या कार्यकाल बढ़ाने का प्रावधान नहीं है. यह संघीय ढांचे की स्वायत्तता और संविधान की भावना के अनुरूप नहीं होगा, क्योंकि भारत राज्यों का एक संघ है.
(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)