•परंपरागत रूप से किसान और खेती का काम गरिमा और आत्मनिर्भरता के आधार रहे हैं, लेकिन आर्थिक विकास के इस दौर में ये 'अति नैराश्य और आत्महत्या' के कारण चर्चा में हैं. किसानों की आत्महत्या के पीछे एक बड़ा कारण उन्हें उपज का सही दाम न मिलना, आपदाओं-फसल की खराबी की खराबी की स्थिति में व्यवस्थागत संरक्षण न मिलना, कृषि कार्यों की लागत का बढ़ना और नीतिगत रूप से खेती को कमज़ोर करने वाले कदम हैं. सरकार कृषि सब्सिडी कम कर रही है और इसकी एवज में बीमा और ऋण की व्यवस्था कर रही है. भारतीय कृषि व्यवस्था के सन्दर्भ में यह उचित नीति है.


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•मध्यप्रदेश के गृहमंत्री भूपेन्द्र सिंह ने कहा कि सीहोर जिले में किसानों द्वारा की गई कुछ आत्महत्याओं की वजह भूत-प्रेत हैं, जिसके चलते लोग जान दे रहे हैं. जिले में 418 आत्महत्याएं हुई हैं. जांच में आया है कि कई किसान अपनी जान किसी कर्ज या आपदा की वजह से नहीं बल्कि भूत प्रेत के कारण दे रहे हैं.


•जबकि राज्य के ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव का कहना रहा है कि विपक्ष किसानों की आत्महत्याओं पर बात कर रहा है, वह बताएं कि कितने किसानों के यहां सुसाइड नोट मिला? किसी की वीडियो क्लिपिंग है? ज्यादातर मौतें घर के झगड़े, पारिवारिक विवाद और बीमारी से होती हैं. इससे यह न मान जाए कि किसान कर्जदार थे. कई लोगों के यहां पर्याप्त राशि मिली है. किसानों की 189 आत्महत्याओं में से सिर्फ 6 किसानों पर कर्ज था. गरीबी के कारण 12, नशे से 37, बीमारी से 68, पारिवारिक कलह से 51 और अन्य कारणों से 20 मौतें हुईं.


•इसका जवाब विधायक सोहनलाल बाल्मीक ने देते हुए कहा कि माननीय गोपाल भार्गव जी ने कल एक आंकड़ा रखा था कि लगभग 6 महीनों में 189 किसानों ने आत्महत्या की, जिसमें से कर्जे से पीड़ित किसानों की संख्या केवल 6 है, जिन्होंने कर्जे के कारण आत्महत्या की. मैं आपको सीधा सा उदाहरण देना चाहता हूं कि यह जो 189 का आंकड़ा आया, यह कैसे आया? जो सरकारी महकमा है और जो सरकारी अधिकारी हैं, जब किसी किसान की आत्महत्या होती है तो यह लोग किस तरह से उसको डायवर्ट करने की कोशिश करते हैं, मैं बताना चाहता हूं. मेरे विधानसभा क्षेत्र में ग्राम कचराम में एक किसान ने कीटनाशक दवाई खाकर आत्महत्या की, क्योंकि उस पर बैंक का कर्ज था, विद्युत विभाग का कर्जा था और उस पर लगातार एक दबाव बनाया जा रहा था, उसे डेट दी जा रही थीं कि इस डेट को यदि कर्जा नहीं चुकाया तो घर की कुर्की हो जायेगी, सामान उठा कर ले जाया जाएगा, जब किसान कर्जा नहीं चुका पाया तो उसने कीटनाशक पी लिया और आत्महत्या कर ली. जब वह इस दुनिया से चला गया और सरकारी महकमा जब उसका पंचनामा बनाने के लिए गया तो जो सरकारी नुमाइन्दे सरकारी अधिकारी गए थे, उन्होंने उस किसान को मानसिक रूप से पीड़ित कहा और यह भी कहा कि इसका पारिवारिक विवाद था इसलिए इसने आत्महत्या की. 189 में से 6 किसानों का आंकड़ा इसी तरीके से बनाया गया होगा. 


•इन वक्तव्यों को जरा कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय में राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रूपला के लोकसभा में दिए गए लिखित बयान की रोशनी में परखिये- एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार ''दिवालियापन अथवा ऋणग्रस्तता'' और ''कृषि सम्बंधित मुद्दे'', किसानों/कल्टीवेटरों की आत्महत्या के प्रमुख कारण हैं.


•प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में वर्ष 2016 के खरीफ़ के मौसम में देश के स्तर पर 15,685.73 करोड़ रुपये का प्रीमियम बीमा कंपनियों को चुकाया गया. इस मौसम में किसानों को उनके 5621.11 करोड़ रुपये के दावे के बदले केवल 3634 करोड़ रुपये के दावों का भुगतान किया गया. मध्यप्रदेश में 2838.3 करोड़ रुपये का प्रीमियम भरा गया. किसानों ने 637 करोड़ रुपये के दावे लगाये, किन्तु उन्हें मिले केवल 51.52 करोड़ रुपये. जितना प्रीमियम भरा गया, उसमें से किसानों को 1.82 प्रतिशत ही मिला. किसका फायदा हुआ?


•हमारा शहरी समाज और नव-मध्यमवर्ग भी किसान को बोझ मानने लगा है. उसे लगता है कि उसका खाना अरबपति पूंजीपतियों के कारखानों से आता है. बच्चों को यह लगने लगा है कि चावल खेत में नहीं, फैक्ट्री में बंटा है. यही कारण है कि किसानों की आत्महत्या उसे झकझोरती नहीं है.


वर्ष 2001 से 2015 के बीच खेती से जुड़े 2,34,657 लोगों ने आत्महत्या की है. मैं सोचता हूं कि पिछले कुछ सालों में किसान या खेती में लगे लोगों को व्यापक समाज बहिष्कार की दृष्टि से देखने लगा है. उसे यह अहसास ही नहीं रहा कि खेती करने वाला परिवार केवल अपने लिए आजीविका कमाने के लिए खेती नहीं करता है; वह पूरे मानव समाज का पेट भरने के लिए कृषि कर्म करता है. दिल्ली या भोपाल के बाजार में मशगूल लोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि अपने देश में हर रोज 43 किसान आत्महत्या कर रहे हैं. उन्हें यह पता ही नहीं है कि जब कपास, शकर, सोयाबीन की खेती से कंपनियों-माफियाओं को लाभ पंहुचाने के लिए सरकार ऐसी नीतियां बना रही है, जिनसे अपने किसानों के उत्पादन की लागत बढ़ रही है. उनका उत्पाद स्थानीय बाज़ार में बिक नहीं पा रहा है, क्योंकि अन्तराष्ट्रीय बाज़ार से सस्ता उत्पाद भारत में लाने के लिए रियायतें दी जा रही हैं. मध्यप्रदेश में किसानों को बिजली देने के लिए एक साल में सरकार लगभग 8500 करोड़ रुपये का भुगतान बिजली कंपनियों को करती है; लेकिन फिर भी किसान के खेत सूखे ही रह जा रहे हैं. उन्नत खेती के नाम पर सारे बीज बड़ी बीज कंपनियों को सौंप दिए गए. देशज बीजों का अकाल सा पड़ गया है. अब किसान को ऊंची दरों पर बाजार से बीज खरीदना पड़ता है. यह साफ़ दिखाई दे रहा है कि किसानों द्वारा खरीदा जाने वाला 30 से 40 फीसदी बीज नकली होता है. उपज नहीं होती और पूरा निवेश बर्बाद हो जाता है; पर क़ानून भी मौन रहता है और व्यापक समाज भी.


नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाईजेशन के अध्ययन- सिचुएशन असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चर हाउस होल्ड्स के मुताबिक, भारत में 9.02 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर है, यानी उनकी आय का बड़ा हिस्सा खेती के काम से आता है. इससे यह भी पता चलता है कि खेती पर निर्भर परिवारों का औसतन 60 प्रतिशत योगदान खेती से आता है. राज्यों में इसका स्तर अलग-अलग है. पश्चिम बंगाल में यह योगदान 30 प्रतिशत और केरल में 34 प्रतिशत है, तो वहीँ हरियाणा में 73 प्रतिशत और मध्यप्रदेश में 76 प्रतिशत है. ऐसे में स्वाभाविक है कि खेती करने वालों को राज्य का संरक्षण मिलना चाहिए; परन्तु हो इसके उलट रहा है. उत्पादन लागत बढ़ रही है, मौसम के बदलाव से लगातार फसलें बर्बाद हो रही हैं, कारपोरेट खेती को संरक्षण मिलने से छोटे और मझोले किसान भूखे मरने की स्थिति में हैं. पिछले कुछ सालों में हम लगातार सुन-पढ़ रहे हैं कि किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें जीवन में खेती के संकट से उबरने का विकल्प ही नज़र नहीं आ रहा है. राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो) की वर्ष 2001 से 2015 के बीच की वार्षिक रिपोर्ट्स का अध्ययन करने से पता चला कि इन 15 सालों में भारत में 2.28 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली. लगभग 19 प्रतिशत किसानों ने खेती के बर्बाद होने के कारण आत्महत्या की, जबकि 31 प्रतिशत ने कर्जदारी और क़र्ज़ चुका न पाने की स्थिति के कारण आत्महत्या की. इसके अलावा अगर हम थोड़ा नज़र दौडाएं तो पाएंगे कि इन्ही सालों में हज़ारों किसान कृषि की बर्बादी के कारण 'आघात, अवसाद और भय' के चलते दम तोड़ गए. इनका कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं है, बस कहानियां हैं. किसान आत्महत्याओं में सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र (56,210), आंध्र प्रदेश (30,149), कर्नाटक (29,543), मध्यप्रदेश (19,768), केरल (15,039) में दर्ज हुए. बड़े राज्यों की सूची में उड़ीसा (2,915), राजस्थान (7,267), उत्तरप्रदेश (7774), पश्चिम बंगाल (11,721), बिहार (950) आत्महत्याएं दर्ज हुईं. ऐसा लगता है कि जिन राज्यों ने आर्थिक विकास की नई नीतियों को खेती की कीमत पर आगे बढ़ाया है, वहां किसान ज्यादा संकट में आया है. 


 
खेती के पांच बड़े हिस्से हैं- बीज, उर्वरक-कीटनाशक, पानी, श्रम और बाज़ार; शायद आपको यह जानकार आश्चर्य हो कि किसान का लगभग पूरा परिवार खेत में श्रम करके जिंदगी बिताता है, किन्तु न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते समय उस 'श्रम' का मूल्य 'शून्य' ही माना जाता है. जान-बूझकर खेती को 'आत्मघाती धंधे' की शक्ल दे दी गई है ताकि किसान जमीन छोड़ दे और सस्ते श्रम के लिए मजबूर हो जाए. किसान के सामने आत्महत्या का विकल्प सबसे प्रबल विकल्प इसलिए बन गया, क्योंकि खेती को एक लाभदायी विकल्प बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले इसे अर्थव्यवस्था और संसाधनों पर 'बोझ' साबित किया गया. बार-बार यह बताया गया कि कृषि और इससे सम्बंधित क्षेत्र सकल घरेलु उत्पाद में केवल 14 प्रतिशत का योगदान देते हैं, जबकि 59 प्रतिशत जनसंख्‍या इससे जुड़ी है. यह अनुपात किसान और मजदूर के योगदान का अपमान करता है. वास्तव में भारतीय समाज के लिए कृषि आजीविका के साधन के साथ साथ संस्कृति-खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण का माध्यम भी रहा है. खेती संसाधनों पर उसे स्वामित्व और आत्मनिर्भरता का साधन रही है. पिछले 27 सालों में यह एक महत्वपूर्ण नीति रही है कि खेती पर निर्भर लोगों की संख्या को कम करना है, और इन सालों में 1.9 करोड़ लोग खेती से बाहर धकेल दिए गए. इसके साथ ही खेती के संसाधनों- पानी, जमीन, जंगल, पशुधन आदि को औद्योगिक संस्थानों के हवाले किया गया. जिन संसाधनों से किसान और गांव आत्मनिर्भर हो सकते थे, उन पर कब्ज़ा करके खुले बाजारवादी समूहों ने किसानों-गांवों को भुखमरी-बेरोज़गारी के कगार पर ला खड़ा किया है.


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक मुद्दों पर शोधार्थी हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)