विश्व पुस्तक मेलाः बच्चों की किताबों की दुनिया में हाशिये पर हिन्दी
रोजी-रोटी के लिए प्रकाशन कार्य करने वाला कोई भी दुकानदार वही कार्य करेगा, जिससे उसको मुनाफा होगा यानी हिन्दी में किताब छापने या बेचने से परहेज करेगा.
दिल्ली की करीब एक करोड़ नब्बे लाख की आबादी में झुग्गीवासियों की संख्या लगभग आधी बताई जाती है, लेकिन दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में यह अनुपात दिखाई नहीं पड़ता. न तो निचले तबके के लोग यहां अपने बच्चों के साथ किताबें खरीदते दिखाई पड़ते हैं और न ही उनके पठन-पाठन की भाषा हिन्दी में पर्याप्त किताबें हैं. चारों तरफ अंग्रेजी का दबदबा है, उसके चाहने वालों का बाहुल्य है. हिन्दी समाज के लोग या तो कम संख्या में हैं या अगर हैं, तो डरे-सहमे से हैं. यहां हिन्दी समाज से आशय मूलतः उनसे है, जिनके बच्चे हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते हैं.
एनसीईआरटी जैसी सरकारी संस्थाओं की दुकान पर अंग्रेजी के साथ हिन्दी में बच्चों की किताबें मिल जाती हैं, लेकिन निजी प्रकाशकों के बारे में अनिवार्य रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता. निजी प्रकाशकों की दुकान पर हिन्दी में या तो किताबें हैं ही नहीं या अगर हैं तो अपेक्षाकृत कम. आखिर ऐसा क्यों? निजी पुस्तक विक्रेता तो वही किताब रखना चाहेंगे, जिसमें उन्हें मुनाफा मिल सके. उनके लिए यह व्यवसाय है. इसलिए उनसे समाजसेवा के किसी आदर्श की उम्मीद करना बेमानी है. पूछने पर कुछ प्रकाशकों ने बताया भी कि हिन्दी की किताबों की मांग कम है, इसलिए इन्हें रखना व्यावसायिक दृष्टि से फायदेमंद नहीं है. सीडी के जरिये बच्चों को अक्षर-गिनती सिखाने के लिए सीडी बेचने वाले एक दुकानदार ने भी बताया कि अगर अंग्रेजी में 50 सीडी बिकती है, तो हिन्दी में एक.
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पुस्तक का स्थान तकनीक नहीं ले सकती, लेकिन तकनीक शिक्षण कार्य में सहायक जरूर हो सकती है. जाहिर है जिनके पॉकेट में दम होगा, वही इसका लाभ उठा सकेंगे. लेकिन रोजी-रोटी के लिए प्रकाशन कार्य करने वाला कोई भी दुकानदार वही कार्य करेगा, जिससे उसको मुनाफा होगा यानी हिन्दी में किताब छापने या बेचने से परहेज करेगा. इस पर दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रहे हिन्दी के एक प्राध्यापक का कहना था कि इसके लिए केवल प्रकाशक ही जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि लेखक भी हैं. कोई प्रतिष्ठित लेखक बच्चों के लिए लेखन नहीं करना चाहता, क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि ऐसा करने से उसका स्टेटस कमतर हो जाएगा. शायद यह एक कारण होगा कि अंग्रेजी की तरह हिन्दी में बाल साहित्य नहीं आ पाता. हिन्दी बाल साहित्य आज भी उपदेशपरक है, जिसे आज के बच्चे पसंद नहीं करते, उनके पास अन्य माध्यमों से भी सूचनाएं आती रहती हैं. साफ है हिन्दी समाज के वैसे लोग भावुकता में हिन्दी में ऐसी किताबें खरीदना पसंद नहीं करेंगे, जिनके पास अंग्रेजी का विकल्प है.
समझा जा सकता है कि बाजार की ताकत हिन्दी पुस्तकों की दशा-दिशा को प्रभावित कर रही है. ये प्रकाशक हिन्दी में पुस्तकों के प्रकाशन के लिए तभी उत्साहित होंगे, जब सरकार उन्हें आर्थिक सहायता दे. प्रकाशकों की शिकायत है कि सरकार से उन्हें सहायता नहीं मिलती. हिन्दी समाज में पुस्तक रखने और पढ़ने की संस्कृति मजबूत हो, सरकार को इसमें पर्याप्त सहयोग करना चाहिए. लेकिन सरकार के सामने ऐसा आदर्श न हो, तो उसके कारणों के बारे में महज अनुमान ही लगाया जा सकता है. अगर सरकार के इरादे को छोड़ भी दिया जाए, तो समाज की मनोवृत्ति की छानबीन तो करनी ही होगी. कोई कह सकता है कि हिन्दी समाज के लोगों में पढ़ने की रुचि नहीं होती, वह केवल सस्ती पुस्तकों की तलाश में रहता है. लेकिन ऐसी सोच उस समाज के साथ न्याय नहीं करती. पुस्तकों को महंगा करने का मतलब एक समूह को ज्ञान-विज्ञान के दायरे से बाहर कर देना होता है. क्या हिन्दी समाज के लोग ज्ञान की दुनिया से दूर अंधकार में रहना चाहते हैं? शायद ही कोई जिंदा समाज इस तर्क को स्वीकार कर सकता है.
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हिन्दी समाज पर इस तरह का आक्षेप अभिजातवर्गीय सोच का नतीजा है. ये लोग यह भूल जाते हैं कि हिन्दी समाज में गरीबी ज्यादा है. अगर स्कूली बच्चों की किताबों की दुकानों से यह समाज अनुपस्थित है, तो साफ है कि हमारे बनाए ढांचे में उनके लिए जगह नहीं है. कहने के लिए संविधान है, उसमें समानता का प्रावधान है, लेकिन इसके बावजूद शिक्षा का अवसर सबके लिए एक जैसा नहीं है. इसी तरह पुस्तक मेले में भी खरीदारी का अवसर सबके लिए एक जैसा नहीं है. पुस्तक मेले का यही सामाजिक संदेश है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)