Zee Analysis : उत्तर और दक्षिण की सिनेमाई राजनीति
दक्षिण भारतीय अभिनेता-अभिनेत्रियां हिन्दी के कलाकारों की तरह अपने लोगों से एकदम अलग-थलग नहीं रहते. मुंबई के फिल्मी लोगों की दुनिया को ‘फिल्म जगत’ कहना ही अपने आप में इस तथ्य का प्रमाण है कि उन्होंने अपनी एक ऐसी अलग दुनिया रच ली है...
किसी स्थापित राजनीतिक दल के झंडे तले चुनाव लड़कर फतह हासिल कर पाना उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी कि स्वयं एक राजनीतिक दल बनाकर जीतना. वह भी केवल खुद जीतना नहीं, बल्कि अपने दल के इतने सारे लोगों को भी विजयी बनवा देना कि उनकी गिनती के सामने स्थापित सत्ता की गिनती छोटी पड़ जाए, और सत्ता उसके हाथ में आ जाए. सन् 80 के तुरंत बाद यह करिश्मा, जी हां, यह चमत्कार ही था, जिसे आंध्रप्रदेश में करके दिखाया फिल्म अभिनेता एनटी रामाराव ने और तमिलनाडु में एमजी रामचन्द्रन ने. यहां महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इन दोनों की राजनीतिक विरासत इन दोनों के न रहने के बावजूद आज भी है, और प्रमुखता से है.
बीते वर्ष के अंतिम दिन एक प्रतीक्षित घोषणा करके तमिल फिल्म अभिनेता रजनीकांत ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया है. और उनकी घोषणा को अभी एक पखवाड़ा ही बीता था कि इसी पंक्ति में कमल हासन आ खड़े हुए. लेकिन साथ में नहीं. पूरी तरह स्वतंत्र.
इस तरह का साहस उत्तर भारत का कोई भी अभिनेता नहीं दिखा सका, जबकि हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता किसी भी मायने में कम नहीं है. अपने अभिनेताओं के पीछे इस क्षेत्र के लोग भी कम पागल नहीं हैं. और इनकी लोकप्रियता का ग्राफ भौगोलिक एवं भाषिक क्षेत्र में दक्षिण की फिल्मों की तुलना में कई गुना अधिक है. साथ ही इनकी संख्या के साथ तो कोई तुलना ही नहीं है. फिर भी ऐसा क्यों हुआ, और आज तक क्यों हो रहा है, इस पर थोड़ा विचार करते हैं.
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भारतीय फिल्में; चाहे वे किसी भी भाषा में हों, यदि उन्हें व्यावसायिक सफलता प्राप्त करनी है, तो उन्हें अपने नायक को ‘लार्जर दैन लाइफ’ यानी कि एक ‘सुपरमैन’ के रूप में प्रस्तुत करना होता है. दक्षिण भारत की फिल्मों ने इस ‘सुपरमैन’ को जितनी प्रमुखता से पौराणिक कथाओं के संदर्भ में प्रस्तुत किया, उत्तर भारत में नहीं. दर्शकों पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव यह हुआ कि दक्षिण का दर्शक अपने इन अभिनेताओं में कहीं न कहीं दैवीय छवि देखने लगा. निश्चित रूप से असाधारण एवं विस्मयकारी व्यक्तित्व अलौकिक एवं चमत्कारी व्यक्तित्व के सामने छोटा पड़ जाता है. साथ ही थोड़ा कम विश्वसनीय भी.
रजनीकांत आज जो यह हिम्मत दिखा पा रहे हैं, उनकी सफलता के विश्वास की नींव में उनकी यही मनुष्येत्तर छवि काम कर रही है. इस दृष्टि से कमल हसन की संभावना तुलनात्मक दृष्टि से थोड़ी धुंधली दिखाई देती है.
दूसरा तथ्य जीवनशैली का भी है. दक्षिण भारतीय अभिनेता-अभिनेत्रियां हिन्दी के कलाकारों की तरह अपने लोगों से एकदम अलग-थलग नहीं रहते. मुंबई के फिल्मी लोगों की दुनिया को ‘फिल्म जगत’ कहना ही अपने आप में इस तथ्य का प्रमाण है कि उन्होंने अपनी एक ऐसी अलग दुनिया रच ली है, जिसके द्वार पर बाहर के लोगों के लिए ‘प्रवेश निषेध’ का एक बड़ा-सा बोर्ड लगा हुआ है. इसके कारण दर्शकों में अपने इन लोकप्रिय अभिनेताओं के प्रति तीव्र उत्सुकता का भाव तो होता है, लेकिन विश्वसनीयता का नहीं. और मुश्किल यह है कि लोकतंत्र की राजनीति की यह मांग होती है कि लोग अपने नेता को अपना समझें.
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इसलिए हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं की राजनीतिक अखाड़ों में जीत तो हुई, लेकिन वे महज व्यक्तिगत जीत तक सीमित रहे. उसे वे सामूहिकता में तब्दील करने के बारे में सोच तक नहीं सके.
साथ ही विडंबना यह भी रही कि जो अभिनेता व्यक्तिगत स्तर पर जीतकर भी आए, वे जनमानस पर अपने राजनीतिक नेतृत्व के गुणों की अविस्मरणीय छाप छोड़ने में भी बुरी तरह असफल रहे. फलस्वरूप फिलहाल भविष्य में संभावनाएं भी दिखाई नहीं दे रही हैं.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)