मेजर ध्यानचंद: जब हॉकी के `जादूगर` ने हिटलर के सामने बजाया था जर्मनी का बैंड, पूरी दुनिया में बोलती थी तूती
Major Dhyan Chand: मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को इलाहाबाद में हुआ था. मेजर ध्यानचंद को हॉकी का `जादूगर` कहा जाता था. मेजर ध्यानचंद की स्किल हॉकी में वैसी ही थी जैसे क्रिकेट में डोनाल्ड ब्रैडमैन की थी. वह मेजर ध्यानचंद, जिन्होंने आजादी से पहले दुनिया को भारत की प्रतिभा के दर्शन करा दिए.
Major Dhyan Chand: मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को इलाहाबाद में हुआ था. मेजर ध्यानचंद को हॉकी का 'जादूगर' कहा जाता था. मेजर ध्यानचंद की स्किल हॉकी में वैसी ही थी जैसे क्रिकेट में डोनाल्ड ब्रैडमैन की थी. वह मेजर ध्यानचंद, जिन्होंने आजादी से पहले दुनिया को भारत की प्रतिभा के दर्शन करा दिए. 1928, 1932 और 1936 ओलंपिक में ध्यानचंद ने जो योगदान दिया उसकी भारत के किसी भी खेल में किसी अन्य खिलाड़ी के योगदान से तुलना नहीं की जा सकती. उस वक्त न तो यह खेल प्रेमी देश था और न ही ओलंपिक मेडल जीतकर खिलाड़ियों को विलासिता से भरी जिंदगी देखने को मिलती थी.
हिटलर के सामने जर्मनी का बजाया था बैंड
मेजर ध्यानचंद ने 1936 बर्लिन ओलंपिक में जर्मनी के तानाशाह हिटलर के सामने ही जर्मन हॉकी टीम का बैंड बजाया था. 14 अगस्त 1936 को भारत और जर्मनी के बीच बर्लिन ओलंपिक में हॉकी का फाइनल मुकाबला खेला गया था. बारिश की वजह से यह मैच अगले दिन 15 अगस्त को खेला गया था. इस मैच में मेजर ध्यानचंद की बदौलत भारत ने जर्मनी को 8-1 से मात दे दी और गोल्ड मेडल अपने नाम किया. जर्मनी की इस करारी हार को देखकर हिटलर गुस्से में आ गया और आधे मुकाबले में ही उठकर स्टेडियम से बाहर चला गया.
हिटलर ने दिया था जर्मनी की आर्मी ज्वाइन करने का ऑफर
मेजर ध्यानचंद के खेल का मुरीद होकर हिटलर ने उन्हें कहा था कि तुम मेरी आर्मी में भर्ती हो जाओ. हालांकि मेजर ध्यानचंद ने इस ऑफर को ठुकरा दिया था. मेजर ध्यानचंद के पिता भी सेना में थे. मेजर ध्यानचंद का बचपन साधारण था. मेजर ध्यानचंद ने भी पिता के कदमों पर चलते हुए भारतीय सेना में भर्ती होने का निर्णय लिया था. और यह एक ऐसा फैसला था, जिसने भारतीय हॉकी को बदलकर रख दिया था. 1928 में, ट्रायल के बाद ध्यानचंद को भारतीय हॉकी टीम में शामिल किया गया. उस समय भारत ब्रिटिश राज के अधीन था और किसी को भी इस हॉकी टीम से एम्स्टर्डम ओलंपिक में किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं थी, लेकिन 'जादूगर' ने चमत्कार करके दिखाया.
भारत ने नीदरलैंड को हराकर पहली बार ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता
ऐसी स्किल वाला खिलाड़ी समकालीन दुनिया के लिए नया था. चांद की रोशनी में अपने खेल को आजमाने वाले ध्यानचंद ओलंपिक में सूरज की तरह चमक गए. वह मैदान में उतरते और गोल दागते.... मैदान पर आते, फिर गोल करते. यह नियम बन गया था. इस टूर्नामेंट के 5 मैचों में 14 गोल ध्यानचंद की हॉकी से थे. भारत ने फाइनल में नीदरलैंड को 3-0 से हराकर पहली बार ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता, जिसमें ध्यानचंद ने अकेले ही दो गोल किए थे. लेकिन यह टैलेंट केवल गोल करने तक सीमित नहीं था. उनकी हॉकी स्टिक में मानो कोई जादू था. गेंद मानो उनकी स्टिक से चिपक जाती थी और विरोधी टीम के खिलाड़ी बस बेबस होकर मास्टर के 'मास्टर क्लास' को निहारते ही रह जाते थे.
आजाद भारत का दुर्भाग्य
यह दुर्भाग्य है कि आजाद भारत को ध्यानचंद के साथ ओलंपिक खेलने का सौभाग्य नहीं मिला. इससे पहले दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध के लपेटे में आ चुकी थी. 1948 में जब ओलंपिक हुए, तब तक ध्यानचंद भी 40 साल की उम्र को पार कर चुके थे. उस ओलंपिक में ध्यानचंद नहीं खेले लेकिन तब तक वह भारतीय हॉकी की गाड़ी को बहुत आगे बढ़ा चुके थे. ध्यानचंद ने टीम को गजब का आत्मविश्वास और प्रतिष्ठा दी. भारत ने हॉकी में 1948, 1952 और 1956 में भी गोल्ड मेडल जीता.
3 दिसंबर 1979 को दुनिया को अलविदा कह दिया
ध्यानचंद ने जो हॉकी शुरू की थी वह आज भी हमें भावुक करती है. भारत ने हाल में लगातार दो हॉकी ओलंपिक मेडल जीते और देशवासियों की आंखों में आंसू थे. हॉकी ओलंपिक में भारत का गौरव रहा है और उस गौरवगाथा के नायक हैं....मेजर ध्यान चंद. वह मेजर ध्यानचंद जिनके जन्मदिन को भारत में 'राष्ट्रीय खेल दिवस' के तौर पर मनाया जाता है. देश का सबसे बड़ा खेल सम्मान 'मेजर ध्यान चंद खेल रत्न अवार्ड' भी ध्यानचंद के नाम पर है. 3 दिसंबर 1979 को लीवर कैंसर के कारण भारतीय हॉकी के सबसे महान खिलाड़ी ने दुनिया को अलविदा कह दिया था.