Foreign Policy Of India: बदलती जियोपॉलिटिकल सिचुएशन को देखते हुए भारत लगातार कोर्स करेक्शन कर रहा है. पड़ोसियों को लेकर उसके रुख में यह बात साफ देखी जा सकती है. इस बदलाव का मकसद साफ है- 'भारत का हित सर्वोपरि रखना'. खासकर नेपाल, बांग्लादेश और मालदीव के हालिया घटनाक्रम से कूटनीति को लेकर भारत के बदलते रवैये की झलक मिलती है. पीएम नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और उनकी टीम के दो सबसे धाकड़ खिलाड़ियों- विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल की तिकड़ी साम, दाम, दंड और भेद... सब अपना रही है. चाहे दोस्ताना संबंध चाहने वाली सरकार हो या नहीं, इस तिकड़ी ने पड़ोसियों को साधने की जुगत बैठा ली है. अगर पड़ोस में मित्र सरकार हो तो काम कुछ आसान हो जाता है. अगर कहीं भारत-विरोधी रुख उभरे तो उसके लिए भी इस टीम के पास पुख्ता उपाय है. दरअसल अंग्रेजी में कहते हैं न, 'कैरट एंड स्टिक पॉलिसी', काफी कुछ वैसा ही. पड़ोस में कोई मनबढ़ सरकार आ जाए तो उसे थोड़ा लुभाते हैं, भारतीय बाजार की ताकत दिखाते हैं, और फिर साफ-साफ बता देते हैं कि अगर रेड लाइन क्रॉस की तो अंजाम ठीक नहीं होगा.


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अमेरिका गुर्राया लेकिन नहीं डिगा भारत


बांग्लादेश का उदाहरण लीजिए. शेख हसीना वहां पिछले 15 साल से सत्ता में हैं और हाल ही में लगातार चौथी बार प्रधानमंत्री चुनी गई हैं. उनकी पार्टी, अवामी लीग ने आसानी से बहुमत हासिल किया. हालांकि, बांग्लादेश के हालिया आम चुनाव विदेशी कूटनीति का बैटलग्राउंड बन गए थे. पश्चिमी देश में ढाका की 'चरमराती लोकतांत्रिक व्यवस्था' पर चिंता जाहिर की जा रही थी. मुख्‍य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) ने चुनाव ही नहीं लड़ा. तमाम देशों में मौजूद बांग्लादेशियों ने अपने यहां की सरकारों पर दबाव बनाया कि वो हसीना पर एक्‍शन लें. ह्यूमन राइट्स लॉबी नहीं चाहती थी कि हसीना जीतें. थोड़ी-बहुत शंका तो दिल्‍ली को भी थी. डर था कि अवामी के रुख का नतीजा कैसा होगा. ऊपर से उसने चीन को बांग्लादेश में पैठ बनाने दी, कट्टरपंथियों के साथ सीक्रेड डील की. हालांकि, भारत ने पुराने समीकरणों पर ही भरोसा किया कि हसीना भले ही परफेक्‍ट न हों, लेकिन पड़ोसी देश बांग्लादेश की सियासत में भारत के लिहाज से उनके जितना मुफीद कोई और नेता नहीं है.


एक अधिकारी ने हिंदुस्‍तान टाइम्‍स से बातचीत में कहा, 'अगर हसीना हार जातीं तो BNP सत्ता में होती. BNP की वापसी मतलब जमात की वापसी, यानी पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI भी गेम में वापस. अगर ISI की वापसी होती तो चीन की मौजूदगी भी बढ़ती. और अगर ढाका में ऐसी सरकार हो जो भीतर इस्लामवादियों पर निर्भर हो और बाहर पाकिस्तान पर तो भारत के लिए नॉर्थ-ईस्ट के लिए खतरा बढ़ जाता है. ऐसे में हैरानी नहीं कि हम अवामी को सपोर्ट करेंगे.'


हसीना का सपोर्ट करने का मतलब था कि अमेरिका के नखरों से निपटना होगा. भारत ने जो बाइडन प्रशासन को अपने रुख की वजहें समझानी चाहीं और उसकी बात सुनी भी गई. प्रशासन के कुछ लोगों को यह समझ आ गया कि बांग्लादेश के चक्कर में भारत से रिश्ते खराब करने का कोई मतलब नहीं और एक कट्टरपंथी सरकार का नतीजा बुरा हो सकता है.


दिल्‍ली में G20 के दौरान भारत ने हसीना और बाइडन की बातचीत कराई. शायद भारत के रुख की वजह से ही अमेरिकी NSA जेक सुलीवन ने पिछले साल वाशिंगटन डीसी में हसीना से मुलाकात की थी. इसके बावजूद वहां का विदेश मंत्रालय, ढाका स्थित अमेरिकी दूतावास, BNP से जुड़े लोग और ह्यूमन राइट्स ग्रुप्‍स ने लगातार दबाव बनाए रखा. हसीना की चुनावी जीत पर वैधता के सवाल तो उठेंगे. उनके लिए दिल्ली और बीजिंग के बीच संतुलन बनाते हुए पश्चिम से संबंध सुधारना आसान नहीं होगा. ढाका में उनके होने का फायदा भारत को जरूर होगा. भारत चाहेगा कि हसीना अपनी जमीन पर भारत-विरोधी समूहों को पनपने न दें.


जैसी जरूरत, वैसा अप्रोच


2024 में जयशंकर की पहली सफल विदेश यात्रा नेपाल की रही. हालांकि, साल भर पहले तक हालात काफी जुदा थे. केपी ओली ने साफ तौर पर प्रो-चीन रुख अख्तियार कर रखा था. 2022 के आखिर में चुनाव हुए और ओली और प्रचंड ने गठबंधन में सरकार बनाई. लेकिन प्रचंड ने ओली का साथ केवल इसलिए दिया था क्योंकि नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा उन्हें पीएम बनाने के वादे से मुकर गए थे. महीने भर के भीतर ही, प्रचंड ने वापस देउबा से हाथ मिला लिया. इस कदम के पीछे भारत और अमेरिका का थोड़ा दबाव भी रहा. अब नेपाल में राम चंद्र पौडेल राष्‍ट्रपति बन गए थे. प्रचंड, देउबा और माधव नेपाल ने मिलकर ओली को अगले 5 साल के लिए सत्‍ता से बाहर करने का इंतजाम कर दिया. बांग्लादेश से उलट, नेपाल में भारत और अमेरिका दोनों ही इस बदलाव के समर्थन में थे.