नई दिल्ली: चीन द्वारा अपने बंदरगाहों के इस्तेमाल की इजाजत नेपाल को देने के साथ ही यह दावा किया जा रहा है कि इससे नेपाल भारत की जगह, अब चीन के प्रभाव में आ जाएगा. दूसरी ओर एक भारतीय एक्सपर्ट ने इस समझौते की व्यवहारिकता पर सवाल उठाते हुए कहा है कि भारत और नेपाल भौगोलिक परिस्थितियों के चलते अभिन्न साथी है और इस स्थिति को बदलने के लिए पहले हिमालय को खिसकना पड़ेगा.


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जानेमाने कूटनीति एक्सपर्ट ब्रह्मा चेलानी ने कहा है कि नेपाल और चीन के बीच समझौता कागजों पर तो बहुत बढ़िया दिखता है, लेकिन हकीकत कुछ और है. उन्होंने कहा, 'नेपाल और चीन के बीच ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट समझौता कागजों पर बहुत अच्छा है. लेकिन नेपाल से चीन का निकटतम बंदरगाह 3,300 किलोमीटर दूर है.' 



 


भारत पर निर्भरता 


उन्होंने भारत पर नेपाल की निर्भरता का जिक्र करते हुए कहा, 'भारतीय बंदरगाहों पर नेपाल की निर्भरता के भौगोलिक कारण हैं. चीन भारत की जगह तभी ले सकता है जबकि वो हिमालय को दक्षिण की ओर खिसका दे.' हालांकि सभी जानते हैं कि ऐसा असंभव है. यानी एक तरह से चेलानी का कहना है कि चीन कभी भी नेपाल में भारत की जगह नहीं ले सकता है.



नेपाल अब तक अपना ज्यादातर व्यापार हिंदुस्तान से करता है. लेकिन 2016 से पहले जब नेपाल में मधेसी आंदोलन चल रहा था, उस समय दोनों देशों के बीच संबंध बिगड़ गए. इसके बाद नेपाल के प्रधानमंत्री ओपी कोली ने 2016 में बीजिंग के साथ अपने संबंध आगे बढ़ाए. चीन ने नेपाल को अपने चार बंदरगाहों और तीन लैंड पोर्ट का इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी. दावा है कि इससे अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए नेपाल की भारत पर निर्भरता कम हो जाएगी.


क्या है समझौता? 
दोनों देशों के बीच ये समझौता काफी अहम माना जा रहा है. नेपाल अब चीन के शेनजेन, लियानयुगांग, झाजियांग और तियानजिन बंदरगाह का इस्तेमाल कर सकेगा. तियानजिन बंदरगाह नेपाल की सीमा से सबसे नजदीक बंदरगाह है, जो करीब 3,300 किमी दूर है. इसी प्रकार चीन ने लंझाऊ, ल्हासा और शीगाट्स लैंड पोर्टों (ड्राई पोर्ट्स) के इस्तेमाल करने की भी अनुमति नेपाल को दे दी.


हालांकि अब इस समझौते की व्यवहारिकता को लेकर सवाल उठने लगे हैं. कहा जा रहा है कि चीन के बंदरगाहों से नेपाल के लिए व्यापार करना काफी खर्चीला होगा और यदि चीन इस पर किसी तरह की सब्सिडी देता है, तो सवाल ये है कि आखिर वो ऐसी कोई सब्सिडी कब तक दे पाएगा.