नई दिल्लीः महाभारत से संबंधित एक दंतकथा भी प्रचलित है. इस कथा को अक्सर भागवत कथाओं में प्रसंगवश सुनाया जाता है. दरअसल, दुर्योधन के जन्म लेते ही कई बुरे संयोग हुए थे. गधों के रेंकने और सियारों के रोने की आवाज से हस्तिनापुर की वह रात बड़ी ही डरावनी लग रही थी. ऋषियों ने दुर्योधन के जन्म को अशुभ बताया था और भविष्य वाणी की थी कि यह बालक आगे जाकर अहंकारी होगा और अगर इसे न रोका गया तो कुलनाशी भी बनेगा. 


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पांडवों ने बनाया इंद्रप्रस्थ
धृतराष्ट्र इस बात से चिंतित रहा करते थे और ऋषियों के कथनानुसार ही उससे दान-पुण्य करवाया करते थे ताकि जन्म का दोष कुछ कम हो जाए. समय बीतता गया. गृह कलह से बचने के लिए पांडवों ने नई राजधानी इंद्रप्रस्थ बनाई. युधिष्ठिर ने चक्रवर्ती सम्राट बनकर राजसूय यज्ञ करने का निश्चय किया और सभी परिवारी जनों को आशीर्वाद देने के लिए बुलाया भी.



धृतराष्ट्र जाना तो नहीं चाहते थे, लेकिन ऋषियों के दान वाले कथन के कारण ही उन्होंने दुर्योधन को वहां भेजा और अधिक से अधिक ब्राह्मणों को दान देने का आदेश दिया. 


उधर, शकुनि कुछ और ही चाल चल रहा था. उसने अपने प्रिय भांजे को समझाया कि इंद्रप्रस्थ चलकर वहां परिवार की तरह आयोजन में पांडवों की सहायता करो. तुम युधिष्ठिर से दान करने का अधिकार और खजाने नियंत्रण मांग लेना, फिर दोनों हाथों से धन उलीचना और उन पांडवों को कंगाल कर देना. 


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कृष्ण ने लिया जूठे पत्तल उठाने का काम
नियत दिन से यज्ञ की तैयारियां शुरू हुईं. सभी ने तैयारियों के लिए अपने अनुसार कार्य करना शुरू किया. जहां अर्जुन ने ब्राह्मणों और आगंतुकों के पांव पखारने का काम लिया तो वहीं श्रीकृष्ण ने जूठी पत्तल का उठाने का काम लिया. भीम ने रसोई में देखरख का काम लिया तो नकुल-सहदेव यज्ञ मंडप की सजावट की देखरेख में लग गए.


इधर, युधिष्ठिर से दुर्योधन ने इंद्रप्रस्थ का कोष मांग लिया ताकि यज्ञ के लिए जरूरी सामान की व्यवस्था के साथ ब्राह्मणों और प्रजा को दान दे सके. अन्य भाइयों ने मना किया को युधिष्ठिर ने दुर्योधन को भी अपना भाई बताकर सभी को चुप करा दिया. 


तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन और भीम से कहा- चिंता न करो अर्जुन, दुर्योधन की दसों उंगलियों में चक्र हैं. ऐसा व्यक्ति जो भी दान करता है या जितना भी खर्च करता है, घर में उसकी दोगिुनी वृद्धि होती है. फिर उन्होंने कहा-अगर तुम ऋषि वाणी से चिंतित हो तो निश्चिंत रहो. अभिमानी व्यक्ति अपना कल्याण सामने होते हुए भी नहीं करा पाता. दुर्योधन का भी यही हाल होगा. 



और हुआ भी यही. सिर्फ पांडवों का कोष खाली करने की इच्छा रखने वाला दुर्योधन अपने दान की असली वजह ही भूल गया. वह सिर्फ धन को लुटाने की इच्छा से ही अनियमित तरीके से धन खर्च करने लगा. भागवत कथा में कहते हैं कि जो सिर्फ एक उंगली में चक्र धारण करता है, सिर्फ उसके साथ होने भर से पांडवों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता तो जो दसों उंगलियों में चक्र धारण करता है वह कैसे अनिष्ट कर पाएगा? चाहकर भी नहीं. 


इधर, दुर्योधन दोनों हाथों से धन निकाल कर अपरंपार दान करने लगा. दान पाने वाली प्रजा उससे खुश हुई और जय-जयकार करने लगी. इससे दुर्योधन के अभिमान को बल मिला. वह भावावेश में आकर इधर-उधर सोने की मुहरें और रत्न फेंकने लगा. ब्राह्मणों और अतिथियों पर धन बरसाने लगा, उन्हें फेंक-फेंककर दान करने लगा. इसके बाद संत और ब्राह्मण अपनी मंडली के साथ आए. तब के लोग हिम्मती और खुदगर्ज होते थे उस पर भी संत. सम्मान से दान न मिलने और इस तरह अपमानित करते हुए फेंक कर दान देना संतों-ब्राह्मणों को नागवार गुजरा. 


उन्होंने श्राप दिया कि जिस तरह हमें तुम्हारे फेके हुए धनों-मोहरों से चोट लगी है और घावों से कष्ट हो रहा है. तुम भी एक दिन ऐसी ही बार-बार चोट खाकर अंतिम सांस गिनोंगे. इस तरह पांडवों के कोष की रक्षा हुई और दुर्योधन का भविष्य क्या हुआ यह तो आज इतिहास है. 


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