पद्मश्री अवार्ड की सूची में इस बार मध्यप्रदेश के एक किसान बाबूलाल दाहिया भी स्थान दिया गया है. यूं तो उनकी पहचान एक प्रगतिशील किसान, एक लोककवि और एक ठेठ गवई व्यक्ति की है, लेकिन उन्हें इस बात के लिए भी पहचाना जा सकता है कि सरकारी पोस्टमास्टर की नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्होंंने अपने उस काम को संवारा, जिसके लिए उन्हें देश के प्रतिष्ठित अवार्ड के लिए चुना गया है. यह केवल दाहिया का नहीं देश के लाखों लोगों का सम्मान है. यह अलग बात है कि इससे पहले वह पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार में एक पुरस्कार को वापस कर चुके हैं, वह इसलिए क्योंकि उनका मानना था कि मध्यप्रदेश में जो किसानों की स्थिति दिखाई जा रही है वैसी नहीं है. पद्मश्री मिलने पर भी उनका कहना है कि वह अपना काम किसी अवार्ड प्राप्त करने के लिए नहीं कर रहे, यह लोकजीवन बचाने की एक छोटी सी कोशिश भर है, अब उनका नाम का चयन कर लिया गया है तो वह इसके बारे में सोचेंगे.


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मध्यप्रदेश के सतना जिले के पिथौराबाद गांव की अब से कुछ साल पहले कुछ खास पहचान नहीं थी, लेकिन अब यह एक खास कारण से जाना जाता है. पिथौराबाद एक ऐसा गांव हैं जहां पर कि आप देसी धान की तकरीबन दो सौ किस्मों को खेत में लगे हुए देख सकते हैं. इनके बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और यदि आपको लगता है कि देसी धान की किस्मों को बचाना चाहिए तो आपको यहां पर निशुल्क बीज भी प्राप्त हो सकता है. यह संभव हुआ है 74 साल के बाबूलाल दाहिया के अथक प्रयासों से.


किसान बाबूलाल दाहिया की कुल 8 एकड़ जमीन है जिसमें से 2 एकड़ में ही देशी धान का प्रयोग किया. बाकी 6 एकड़ में भी देशी किस्में लगाते हैं, वह भी बिना किसी रासायनिक खाद के. उनके इस काम को आसपास के लोगों ने भी समझा और उचहेरा ब्लाक के 30 गांवों में भी किसानों के साथ मिलकर धान और मोटे अनाज (कोदो, कुटकी, ज्वार) की खेती कर रहे हैं.


दाहिया की खेती-किसानी के साथ-साथ साहित्य में रुच‍ि रही है. वे बघेली के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं, लेकिन जबसे उन्हें यह एहसास हुआ कि जैसे लोकगीत व लोक संस्कृति लुप्त हो रही है, वैसे ही लोक अन्न भी लुप्त हो रहे हैं, तबसे उन्होंने इन्हें सहेजने और बचाने का काम शुरू कर दिया. उनके पास धीरे—धीरे देशी धान की 200 किस्मों का खजाना जमा हो गया. वे हर साल इन्हें अपने खेत में बोते हैं और उनका अध्ययन करते हैं. दाहिया जी कहते हैं धान और कोदो हमारे अपने क्षेत्र के अन्न हैं. इन दोनों का देसी स्वरूप अब भी मौजूद हैं. धान की जंगली किस्म को पसही कहते हैं. हलशष्टी त्योहार को महिलाएं व्रत करने के बाद इसका ही चावल खाती हैं. पसही धान डबरों, पोखरों में होता है. यह ऐसी ही हर साल पोखरों और डबरों में हर साल अपने आप उगती है, झड़ती है और वंश परिवर्तन (बीजों में बदलाव) करती जाती है. मनुष्य ने इनके गुणधर्मों का अध्ययन कर कालांतर में जंगली डबरों से अपने द्वारा बनाएं पानी वाले खेतों में इसे उगाना शुरू किया होगा, जहां लंबे समय तक पानी संचित रहे. बाद में चावल हमारे भोजन में शामिल हो गया.


दाहिया बताते हैं कि पहले हमारे क्षेत्र में पचासों तरह की धानें हुआ करती थीं. जैसे गलरी पक्षी की आंख की तरह होता है गलरी धान. इसी तरह किसी धान का दाना सफेद होता है तो किसी का लाल. किसी का काला तो किसी का बैंगनी, किसी का मटमैला. कुछ का दाना पतला तो किसी का मोटा और कोई गोल तो किसी का दाना लंबा. कुछ धान की किस्मों के पौधे हरे होते हैं तो किसी के बैंगनी. इनमें न केवल विविधता है बल्कि अलग-अलग रूप रंग का अपना स्वाद है.


देशी धान की खासियत बताते हुए वे कहते हैं कि वह स्वाद में बेजोड़ होती हैं. इसलिए दाम भी अच्छा मिलता है. जबकि हाईब्रि‍ड में स्वाद नहीं होता. देशी धान में गोबर खाद डालने से धान की पैदावार हो जाती है. जबकि हाइब्रि‍ड या बौनी किस्मों में रासायनिक खाद डालनी पड़ती है. जिससे लागत बढ़ती है और भूमि की उर्वरक शक्ति भी कम होती है.


वह बताते हैं कि हमारे पूर्वज बादलों के रंग, हवा के रुख, अवर्षा, खंड वर्षा का पूर्वानुमान लगाने में माहिर थे. जैसे एक कहावत है कि पुरबा जो पुरबाई पाबै, सूखी नदियां नाव चलाबैं. यानी पूर्वा नक्षत्र में पुरवैया हवा चलने लगे तो इतनी वर्षा होती है कि सूखी नदियों में इतना पानी हो जाता है कि नाव चलनी लगे. बीजों के साथ अब ऐसे लोग भी कहां मिलते हैं जो मौसम के मिजाज को देखते हुए सटीक पूर्वानुमान बैठा दिया करते थे, कुदरत का जो कबाड़ा आधुनिक विकास ने कर डाला है, उसमें अनुमानों का यह गणित भी जलवायु परिवर्तन की भेंट चढ़ ही चुका है. विकास के यह पांच दशक सदियों की सभ्यता पर भारी पड़ रहे हैं.


इसका अंतर हर कहीं है दाहिया बताते हैं जैसे हमारे देशी बीज खत्म हो रहे हैं वैसे ही उससे जुड़े व परंपरागत खेती से जुड़े कई शब्द भी खत्म हो रहे हैं. पूरी कृषि संस्कृति और जीवन पद्धति खत्म हो रही है. हरित क्रांति के कमाल के बाद अब हमारा काम गेहूं, चावल और दाल जैसे शब्द से चल जाता है. लेकिन पहले बहुत सारे अनाज होते थे. उनके नाम थे जैसे समा, कोदो, कुटकी, मूंग, उड़द, ज्वार, तिल्ली आदि. फिर उन्हें बोने से लेकर काटने तक कई काम करने पड़ते थे. अब यह तमाम तरह के बीज फैशन की तरह लौट आते हैं, लेकिन वह लोक से तो नष्ट हो ही चुके हैं. मॉल में आप रागी के बिस्कि‍ट खरीद कर खुश हो सकते हैं, पर विकास ने किसानों को तो ऐसा पाठ पढ़ाया है कि वह पोषण की अपनी समझ को तो भुला ही बैठा है.


इसलिए दाहिया जी का काम महत्वपूर्ण बन जाता है, जिसमें वह केवल किसानी, या पोषण की बात नहीं करते, दरअसल भारतीय गांव के ताने—बाने की समझ जो उन्होंने सहज विकसित की है, वह अदभुत है. मसलन भाषा को ही लें, बोवनी, बखरनी, निंदाई-गुड़ाई, दाबन, उड़ावनी और बीज भंडारण आदि. खेती की हर प्रक्रिया के अलग-अलग नाम थे. यह जरूर है कि ये शब्द किसी शब्दकोष में नहीं, लेकिन लोक मानस में थे. बुजुर्ग अब भी इन शब्दों को आत्मीय ढंग से याद करते हैं. लेकिन खेती का फसलचक्र बदलने से, एकल खेती होने से ये शब्द भी लोप हो रहे हैं. याद रखिए कि हिंदुस्तान ही तो एक अकेला देश है जिसके संविधान में तकरीबन 22 भाषाओं को तो आधिकारिक स्थान दिया गया है, और बोलियों का तो अपने आप में अद्भुत संसार है, लेकिन क्या यह बचने वाला है ? क्या हमारे देश की विविधता बचने वाली है ?


भारत रत्न पर सोशल मीडिया में चाहे जो बहस चल रही हो, लेकिन हमें इस बात की आश्वस्ति होनी चाहिए कि दाहिया जैसे लोकधर्मियों तक यह पहुंच रहा है. दाहिया का सम्मान एक व्यक्ति का सम्मान नहीं है, वह लोक का सम्मान है.


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)