नई दिल्ली: बॉलीवुड फिल्मों में आजकल कंटेंट की इतनी कमी हो गई है कि वह साउथ सिनेमा और हॉलीवुड की कॉपी करते दिखते हैं. वहीं हम आज हिंदी सिनेमा के ऐसे डायरेक्टर की बात कर रहे हैं जो मसाला मूवीज में भरोसा नहीं करते बल्कि हमेशा सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्में बनाते हैं.


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जानें कैसे 27 फरवरी, 1952 को बिहार के चंपारण जिले में जन्में प्रकाश झा बनें कंट्रोवर्सियल फिल्म मेकर-



बन्दिश, मृत्युदंड, राजनीति, अपहरण, दामुल, गंगाजल, टर्निंग 3, राजनीति, आरक्षण, सत्याग्रह जैसी कई फिल्मों को बनाकर प्रकाश झा आज अपनी अलग पहचान बना चुके हैं. प्रकाश झा अपनी फिल्मों के माध्यम से सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को उठाते हुए उसमें फैली कुरीतियों पर बड़ा सवाल खड़ा करते रहते हैं.


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गंगाजल


फिल्म निर्देशक प्रकाश झा ने गंगाजल से बिहार में हो रही गुंडागर्दी पर सवाल खड़ा कर दिया था. प्रकाश झा ने फिल्म से दिखाया कि कैसे जब एक प्रशासन तंत्र अपनी शक्ति का गलत इस्तेमाल करती है तो एक सामान्य वर्ग या अन्य तबके के लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.



2003 में रिलीज हुई फिल्म में बिना हिचके प्रकाश झा ने बिहार में किसी एक वर्ग के लोगों के अपार शक्ति को भी दिखाया. जिसकी वजह से पुलिस प्रशासन से लेकर, राजनेता तक पर सवाल खड़े हो गए. बिहार में अपराध के बढ़ते मामले को उठाते हुए प्रकाश झा ने अपनी फिल्म की कहानी लिखी.


गंगाजल नाम खुद में ही एक कटाक्ष है. हिंदुओं के लिए जहां गंगाजल का विशेष महत्व है क्योंकि इसे सबसे पवित्र जल माना जाता है. पूजा-पाठ हर जगह गंगाजल का इस्तेमाल किया जाता है तो वहीं लोग गंगा स्नान कर सोचते हैं कि उन्हें पाप से मुक्ति मिल जाएगी. लेकिन फिल्म में गंगाजल का मतलब था तेजाब.


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फिल्म में दिखाया गया कि कैसे जब क्षेत्र में बढ़ते वारदातों के खिलाफ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) आईपीएस अमित कुमार (अजय देवगन) आवाज उठाते हैं तो उन्हें तरह-तरह से दबाने की कोशिश की जाती है. कई परेशानियों के बाद भी जब पुलिस अधीक्षक नहीं रुकता है तो उसे पावर का इस्तेमाल कर अस्थाई रूप से ड्यूटी से हटा दिया जाता है.


यह पहली बार नहीं था जब हमने किसी पुलिस अधीक्षक का अचानक से तबादला या अस्थायी रूप से हटाते देखा गया था. लेकिन इसे बड़े पर्दे पर दिखाना बहुत बड़ी बात थी. फिल्म रिलीज के बाद लोगों ने इसके नाम को लेकर भारी विरोध जताया. तो वहीं कुछ वर्ग के लोगों और नेताओं ने भी अपनी आपत्ति जताई पर प्रकाश झा ने किसी भी सीन को फिल्म से हटाया नहीं.


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अपहरण


साल 2005 में आई फिल्म अपहरण सिर्फ एक ड्रामा आधारित फिल्म नहीं है. प्रकाश झा ने अपहरण के माध्यम से दिखाया कि कैसे बिहार का युवक ईमानदारी और आदर्शवाद सिद्धांतों पर चलकर अपना सपना पूरा नहीं कर पाता है.


आखिरकार तंग आकर एक समय बाद समाज और परिवेश उसके पिता द्वारा सिखाए गए सिद्धांत पर हावी हो जाता है. और वह गलत रास्ते पर चला जाता है. सपने को पूरा करने के लिए युवक सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए घूस तक देने को तैयार हो जाता है.



पिता को बिना बताए अजय शास्त्री (अजय देवगन) घूस देने के लिए मोटी रकम कर्ज ले लेता है. लेकिन इसी बीच घूस देकर जॉब लेने की खबर मीडिया रिपोर्ट में आ जाती है और नियुक्ति रद्द हो जाती है. जिसके बाद अजय शास्त्री गलत राह पर निकल पड़ता है. और पैसे चुकाने के लिए वह अपहरण का रास्ता चुनता है.


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उस समय बिहार में अपहरण का कल्चर इतना हावी हो चुका था कि एक युवक को सबसे आसान रास्ता ही अपहरण का लगा. अपहरण के बाद राजनीति पर भी प्रकाश झा ने व्यंग्य करते हुए दिखाया कि कैसे अपहरण कर आरोपी राजनीति की ओर चल पड़ते हैं.


राजनीति


फिल्म राजनीति सिनेमाघरों में 2010 में रिलीज की गई थी. यह एक ऐसी फिल्म थी जिसने राजनीतिक दलों और राजनीति में फैली बुराइयों को उजागर किया. कैसे राजनीति में परिवारवाद हावी होता है. या कैसे लोग सत्ता और कुर्सी की चाह में रिश्ते को भी तार-तार कर देते हैं.


फिल्म में हर जगह डर्टी पॉलिटिक्स को दिखाया गया है. एक कुर्सी की चाहत न सिर्फ परिवार के सदस्यों में खटास ला देता है बल्कि लोग सिद्धांतो को भी ताक पर रख देते हैं. सत्ता की चाहत इस कदर हावी होती है कि इंसान की जान की कीमत भी उसके सामने कुछ नहीं होता.


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राजनीति में न सिर्फ पावर, सत्ता और रिश्तों में आई दूरियां दिखाई गई है. तो वहीं एक महिला का राजनीति में किस तरह से शोषण होता है वह भी बखूबी दिखाया गया है. फिल्म को लेकर इतना ज्यादा विवाद हुआ कि देश की प्रमुख राजनीति पार्टी ने तो फिल्म से कई सीन हटाए जाने की मांग उठा दी.


यहां तक कि जब फिल्म के लिए कटरीना कैफ को साइन किया गया था तब भी फिल्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया था. कुछ पार्टियों ने कटरीना कैफ के किरदार को देश की जानी-मानी राजनेता से भी जोड़ दिया. तमाम विरोधों के बाद भी प्रकाश झा ने अपनी फिल्म की पटकथा नहीं बदली.


आरक्षण


फिल्म आरक्षण का किसी वर्ग ने यह कह कर विरोध किया कि इसमें सामान्य वर्गों को नीचा दिखाया गया तो किसी वर्ग ने यह कहा कि इसमें आरक्षित वर्गों की छवि खराब की गई. लेकिन फिल्म मेकर प्रकाश झा ने साल 2011 में आई फिल्म आरक्षण से किसी एक वर्ग या तबके के लोगों की आवाज नहीं उठाई बल्कि हर किसी की बात को रखा.



फिल्म में प्रकाश झा ने आरक्षित वर्ग के दर्द के साथ सामान्य वर्ग के छात्रों का भी दर्द दिखाया. फिल्म में दिखाया गया कि कैसे आरक्षण की वजह से सरकारी नौकरियों और संस्थानों में विवादास्पद नीतियां है.


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प्रकाश झा की इस फिल्म के खिलाफ राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने आरक्षण से संबंधित प्रावधानों को गलत ढंग से बताए जाने की भी बात कहीं. और केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को नोटिस जारी किया है.


आश्रम


हाल ही में प्रकाश झा ने OTT प्लेटफॉर्म पर भी अपना डेब्यू किया. प्रकाश झा ने बॉबी देओल स्टार आश्रम में दिखाया कि कैसे लोग अंधविश्वास में इतने डूब गए हैं कि एक सामान्य से इंसान को भगवान का दर्जा दे बैठते हैं.


आश्रम में बॉबी देओल के किरदार से प्रकाश झा ने राम रहीम जैसे बाबाओं पर सवाल उठाया. लोगों की उस मानसिकता पर सवाल उठाया कि कैसे कोई भक्ति और धर्म की राह में अपनी समझदारी खो बैठता है.



बाबा निराला जैसे यूं तो असल जिंदगी में हम कई बाबा देख चुके हैं लेकिन जिस सोच-बूझ से प्रकाश झा ने आश्रम के नाम पर चल रहे जालसाजी को लोगों के सामने लाया वह देखने लायक है. दिन में लोगों के सामने धर्म, कर्म और ज्ञान की बात करता है वहीं रात में एक अय्याश बन जाता है.


अपने आश्रम में आई हर महिला के साथ अवैध संबंध बनाकर उसका शोषण करने से लेकर राजनीतिक पार्टियों को अपने पॉकेट में रखने वाले बाला निराला को बखूबी पेश किया गया. इस सीरीज में सिर्फ ढोंगी बाबाओं का पर्दाफाश नहीं किया गया है बल्कि प्रशासन से लेकर हर छोटे-बड़े दर्जे पर बैठे लोगों को घेरा है.


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इन विषयों के अलावा आज भी छोटे शहरों व गांव में समाज के गरीब तबके या छोटी जाति को कैसे दबाया जा रहा है उस पर भी जोर दिया है.


प्रकाश झा की अगर हम फिल्में देखें तो सारी ही फिल्में किसी न किसी ज्वलंत मुद्दे पर बनाई गई है. हम कह सकते हैं कि मिर्च-मसालों की दौड़ में प्रकाश झा एक ऐसे फिल्म मेकर हैं जो हिंदी फिल्मों से विषयों की कमी को दूर करते हैं.


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