पटना: देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का देश में बुरा दौर तो हुआ ही है, लेकिन पार्टी का जो हस्र बिहार में हुआ है, उससे कोई अनजान नहीं. पार्टी के पुराने नेताओं ने दामन छोड़ा तो बात नेतृत्व पर बन आई. एक ऐसा समय भी आया जब पार्टी के पास प्रदेश अध्यक्ष चुने जाने लायक नेता भी नहीं बचे. 2020 में बिहार में विधानसभा चुनाव है. कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा है. पार्टी ने यह तय किया है कि चुनाव से पहले सभी जिले में जिलाध्यक्षों की कमान नए और कर्मठ लोगों को सौंपी जाएगी. इसके लिए पार्टी के आलाकमान ने तलाश भी शुरू कर दी है. 


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सुस्त नेतृत्व का खामियाजा भुगतती आ रही है कांग्रेस



कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा, पार्टी के विधानमंडल के नेता सदानंद सिंह और प्रभारी वीरेंद्र सिंह राठौर को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है. हालांकि, इससे पहले कांग्रेस के पूर्व-प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी के समय में पार्टी ने जिले में नए लोगों को चुनाव किया था.


ये अलग बात है कि पार्टी को उसका कोई फायदा हो नहीं सका. बल्कि जिलों में उनकी सुस्ती की वजह से कांग्रेस को और नुकसान ही उठाना पड़ा. लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की यहीं बदहाल स्थिति रही. अब विधानसभा चुनाव में एक बार फिर रिस्क लेना नहीं चाहती. 


बिहार छोड़िए, महागठबंधन में कांग्रेस की नहीं बची साख


महागठबंधन की बड़ी घटक दलों में से कांग्रेस के सामने यह चुनौती भी है कि पार्टी आखिर कितने सीटों पर चुनाव लड़ेगी? क्या लोकसभा में राजद ने जिस तरीके से सीट का बंटवारा कर दिया और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी को 9 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा, क्या वह मजबूरी पार्टी के सामने अब भी है ?



खैर, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा. दरअसल, पिछले दिनों कांग्रेस ने देश के अलग-अलग हिस्सों में समीक्षा बैठक की थी. इसके बाद पार्टी ने केंद्र सरकार के खिलाफ कई रैलियां भी आयोजित कराई. लेकिन किसी भी रैली में उम्मीद के जितना भी जनाधार पार्टी को नसीब न हो सका. 


लेकिन इस समीक्षा बैठक से यह बात तो तय हो गई कि पार्टी को कुछ अहम बदलाव करने की सख्त जरूरत है. सुस्त जिलाध्यक्ष कार्यकर्ता को सुस्त बना देते हैं. इस वजह से पार्टी ने सभी जिलों में कुछ नए चेहरे जो शायद पार्टी में जोश भर सकें, उनका चुनाव करने का रोडमैप तैयार किया है. 


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राजद के बिग ब्रदर भूमिका से खार खा चुके हैं घटक दल


बिहार की राजनीति को देखते हुए कांग्रेस के लिए कुछ चुनौतियां नजर आती हैं. दरअसल, कांग्रेस जिस महागठबंधन का हिस्सा है, वह एक खिचड़ी गठबंधन बन चुका है. महागठबंधन में कांग्रेस के अलावा राजद, हिंदुस्तान आवाम मोर्चा, रालोसपा और वीआईपी घटक दल हैं. बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं.



अब जबकि 5 घटक दलों में सीटों का बंटवारा किया जाना है तो सवाल यह है कि कांग्रेस को फिर से कितनी सीटों के काबिल समझा जाता है ? पिछली बार लोकसभा में महागठबंधन को राजद के बिग ब्रदर वाली भूमिका की वजह से काफी कुछ सहना पड़ा था. इस बार स्थितियां क्या होंगी ? 


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राजद का पिछलग्गू बनी कब तक चलेगी कांग्रेस ? 


महागठबंधन में इसके अलावा नेतृत्व को लेकर भी रार जैसी स्थिति है. राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि रालोसपा, हम और वीआईपी किसी भी कीमत पर राजद यानी तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ना चाहते. इसका खामियाजा वे लोकसभा चुनाव में भुगत चुके हैं. अब एक ओर तो कांग्रेस अपनी खोई जमीन पाने को बेताब है और दूसरी ओर उसे राजद ही नहीं बिहार की तमाम क्षेत्रीय पार्टियों का भी पिछलग्गू होना पड़ रहा है. ऐसे में क्या होगा कांग्रेस का अगला कदम यह सवाल अब भी बनता है ?