नई दिल्लीः Hindi Diwas neeraj Chopra: एक मीडिया बातचीत चल रही है. सामने नीरज चोपड़ा (Neeraj Chopra) बैठे हैं. ओलंपिक में सोना जीतने के बाद वह नई सनसनी बने हुए हैं. सवाल उनसे ही होने हैं. सिलसिला शुरू होता है. एक रिपोर्टर की आवाज आती है. I Want to Ask.... अभी ये बात पूरी भी नहीं हो पाती है कि नीरज चोपड़ा की आवाज गूंजने लगती है. भाई, भाई भाई... हिंदी में पूछ ल्यो... हिंदी में जवाब दे लूंगा...
ये एक बात हिंदी भाषा की आंखों में खुशी भर देती है. उसका सिर ऊंचा कर देती है और जिस दामन को लोग पुराना मानने लगे हैं उसे फिर से उजला बना देती है. मजे की बात देखिए कि इसकी चर्चा ही नहीं है कि नीरज को इंग्लिश समझ में नहीं आती या फिर इसे बोलने में वह असहज होते हैं. बस मंच से उनकी इस गुजारिश को तुरंत मान लिया जाता है और सवालों की भाषा सेकेंड से भी कम समय में बदल जाती है. इंग्लिश वाली गिटर-पिटर को छोड़कर ठहराव और संजीदगी के साथ सवाल हिंदी में हो जाते हैं.
आजादी के बाद से ही हम हिंदुस्तानियों की दिक्कत रही है कि हम दिखावे में बहुत रहे हैं. ये दिखावा हमारे रहन-सहन में तो सबसे पहले आया. एक बारगी यहां तक तो ठीक भी रहा, लेकिन इसके बाद इसका सबसे अधिक असर हमारी भाषा पर पड़ा. लॉर्ड मैकाले की बाबू बनाने वाली शिक्षा पद्धति इसके लिए जितनी जिम्मेदार है, अंग्रेजीदां जैसा दिखने का हमारा लालच भी इसके लिए उतना ही जिम्मेदार है.
कई सालों तक आलम ये रहा कि हम भाषाई दोहरेपन में फंसे रहे. हिंदी भले ही मातृभाषा बनी रही, लेकिन हमारा लालच यही रहा कि हम अंग्रेजों जैसे दिखें. उनके जैसे दिखने को मार्केट में शालीन बताकर बेचा गया. पैसे वाले लोगों ने इसे खरीदा और यहीं से मध्यम वर्ग में एक दबाव आया कि वो भी ऐसा ही करे.
दरअसल, मध्यम वर्ग का व्यक्ति समाज का वो हिस्सा है, जो अपनी जिंदगी में हर चीज थोड़ी-थोड़ी कर लेना चाहता है. कई मामलों में वो उच्च वर्ग के आसपास जैसा दिखने की कोशिश करता नजर आता है. आज भले ही लोगों ने असलियत की ओर लौटना शुरू कर दिया है, लेकिन बीसवीं सदी के आखिरी दो और 21वीं सदी का पहला दशक ऐसी ही आपाधापी का रहा. इसी आपाधापी को भीष्म साहनी ने बहुत पहले अपनी एक कहानी 'अहम् ब्रह्मास्मि' में सामने रखा था.
कहानी का किरदार भाटिया, खुद तो भारतीयता को लेकर नाक-मुंह बनाता है और अंग्रेजों के मुंह से सुनकर उसी बात की प्रशंसा करता है. यही स्थिति हम सभी की हो चली है. इस स्थिति में ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो बच्चों पर अपनी अधूरी महत्वाकांक्षा थोपते हैं. वह तो नहीं कर पाए, लेकिन उनके बच्चे अंग्रेजी में टिपिर-टिपिर करें. भारतीय घरों में इसके बड़े आसान उदाहरण मिल जाएंगे.
लोग अपने घुटनों चल रहे बच्चों से बोलते दिखते हैं, कम हियर, बेटा, गौ माता को काऊ, वो देखो बफेलो, अरे डॉगी आ गया. ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर, स्पून. ये सारे शब्द बचपन से ही उनकी जिंदगी का हिस्सा बन रहे हैं. इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन दुखद है कि आप इसके जरिए खुद को शालीन या कथित तौर पर एडवांस बनता हुआ दिखने की झूठी कोशिश कर रहे हैं और बाज भी नहीं आ रहे हैं. फिर हिंदी दिवस वाले एक दिन हिंदी को जबरन ही या तो कमजोर मानेंगे या जरूरत से ज्यादा ही मजबूत बताएंगे.
नीरज चोपड़ा (Neeraj Chopra) ने ये साबित कर दिया है कि भाषा सिर्फ बात कहने-सुनने और समझने का जरिया है. उसका काबिलियत से कोई लेना-देना नहीं है. बहुत से खिलाड़ियों-अभिनेताओं (हरभजन सिंह, सहवाग, आयुष्मान खुराना, कपिल शर्मा) ने इसे साबित भी किया है. इसके बावजूद जो भी ये नहीं समझ पा रहे हैं, नीरज चोपड़ा उन्हें रोक रहे हैं. वह समाज के नए स्थापित आदर्श हैं. कम से कम उनकी बात तो सुनिए.
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