58 साल पहले का वो विश्वासघात, जब चीन ने `पीठ में छुरा घोंपा था`
चीन का दगाबाज चेहरा पहली बार 1962 में दिखा था. चीन ने दोस्ती की आड़ में भारत के पीठ खंजर घोंपा था. उस समय भी लद्दाख में चीन की सेना ने हमला बोला था और 58 साल बाद चीन ने दगाबाजी का वो इतिहास दोहराया है..
नई दिल्ली: दोस्ती की बात कर पीछ में खंजर घोंपना चीन की फितरत है. 58 साल के बाद चीन ने अपना विश्वासघाती रूप एक बार दिखाया है. लेकिन चीन को समझना ही पड़ेगा कि ये 2020 का न्यू इंडिया है. चीन अगर छेड़ेगा तो हम उसे छोड़ेंगे नहीं.
58 साल बाद चीन का विश्वासघात
जी हां, ये बिल्कुल सच्चाई है कि चीन ने 58 सालों के बाद भारत के पीठ में छुरा घोंपा है. साल 1962 में भी चीन ने भारत के साथ धोखा किया और दोनों देशों की सेना के बीच आमना सामना हुआ था. युद्ध हुआ लेकिन चीन ने इस दौरान क्या किया? आपको समझाते हैं.
अक्टूबर 1961 से चीन ने सीमा पर आक्रामक तेवर दिखाना शुरू कर दिया था. इसके जवाब में भारत ने भी मोर्चे पर अपने फौजी दस्ते भेजे. लेकिन इस बीच चीन साजिशें रचता रहा. अप्रैल 1962 में चीन ने भारत से अचानक कहा कि भारत अग्रिम चौकियों से अपने सैनिक वापस लेने को कहा. करीब 350 चीनी सैनिकों ने 1962 में 10 जुलाई को चुशुल में एक भारतीय चौकी को घेर लिया.
20 अक्टूबर,1962 को छिड़ी थी जंग
चीन की तरफ से 1962 के युद्ध की शुरुआत 20 अक्टूबर को हुई. चीन की पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी ने लद्दाख में हमला बोल दिया. वही लद्दाख जहां 58 साल बाद एक बार फिर दोनों देशों की सेनाओं में हिंसक झड़प हुई थी. लेकिन फिलहाल 1962 की जंग वो कहानी जब चीन ने दोस्ती की आड़ में विश्वासघात किया था.
साल 1962 के सितंबर महीने में चालबाज चीन ने एक बार फिर बॉर्डर के दोनों ओर दोनों देशों की सेना को 20-20 किलोमीटर वापस लौटने का प्रस्ताव रखा. लेकिन इस प्रस्ताव के बिल्कुल तुरंत बाद चीनी सैनिकों ने नेफा में मैकमोहन लाइन पार कर दी और अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने के लिए भारतीय सेना की चौकियों पर अटैक कर दिया. जिसके बाद अगले एक महीने यानी अक्टूबर में चीन ने नेफा से लद्दाख तक की सीमा पर अचानक से अटैक किया और फिर जंग की आगाज हो गई.
दोनों देशों ने स्वीकारा था कोलम्बो प्रस्ताव
चीन के इस अटैक के ठीक बाद उसकी तरफ से तीन सूत्री संघर्ष विराम का प्रस्ताव आया. लेकिन, इस बार चीन के प्रस्ताव को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संघर्षविराम के इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. ऐसे में इसके बाद इसी साल 1962 के नवंबर माह में पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्र में चीन ने फिर से चालाकी दिखाई. चीन ने एक और गुस्ताखी की और वो बोमडिला तक पहुंच गया. इसी के बाद दिसंबर में चीन के प्रधानमंत्री ने फिर से तीन सूत्री प्रस्ताव भेजा. जिसे भारत ने स्वीकार कर लिया. दिसंबर 1962 में ही दोनों देशों ने कोलम्बो प्रस्ताव को स्वीकार किया.
करीब 1 महीने चली जंग में भारत को नुकसान
यहां आपका ये जानना बेहद ही जरूरी हो जाता है कि उस वक्त भारत युद्ध के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था. उस वक्त भारत के सिर्फ 10-20 हजार सैनिक चीन के करीब 80 हजार जवानों का मुकाबला करने के लिए जंग के मैदान में थे. ये युद्ध पूरे एक महीने चला, जब तक चीन ने 21 नवंबर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी थी.
इस युद्ध में चीन के करीब 800 सैनिकों की मौत हो गई, जबकि भारत के 4 हजार से ज्यादा जवान शहीद हो गए थे.
चीन पर भरोसा करना थी सबसे बड़ी गलती
भारत ने युद्ध के बाद माना कि चीन पर भरोसा करना ही हमारी सबसे बड़ी भूल थी. 1962 के युद्ध से कुछ महीने पहले तक भारत को इस बात का विश्वास था कि कि दोनों देशों मे संबंध बेहतक बने रहेंगे. ऐसे हालात में चीन अटैक नहीं करेगा. यही सोचकर भारत ने विवादित क्षेत्र में अपनी फौज की अधिक तैनाती नहीं की थी. जबकि उस दौर में ड्रैगन लगातार हमले की साजिश रच रहा था. ये बिल्कुल इसी तरह है कि भारत से दोस्ती का वादा करके चीन ने दगाबाजी कर दी.
इसे भी पढ़ें: 'सड़क छाप' गुंड़ों की सेना वाले 'चमगादड़ चीन' का फरेबी चरित्र, 5 'झूठ'
लेकिन चीन को अब ये समझना होगा कि 1962 को बीते 58 साल हो गए हैं. भारत अब परमाणु शक्ति से संपन्न है. भारत की सेना दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सेनाओं में गिनी जाती है. भारत की सेना देश की रक्षा के लिए दुश्मन की ईंट से ईंट बजा सकती है. चीन को अपनी कार्रवाई की कीमत चुकानी पड़ेगी.
इसे भी पढ़ें: "चीन के 35 सैनिकों का खात्मा", अमेरिकी ख़ुफिया एजेंसियों के हवाले से बड़ी खबर
इसे भी पढ़ें: चीन को सबक सिखाने के लिए भारत के पास ये मुख्य 5 विकल्प