छोटी-छोटी बिंदियों से भूरी बाई ने भरे जीवन में सफलता के रंग
भूरी बाई ने भीलों की जीवन शैली, कला संस्कृति, दिनचर्चा और जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपनी पेंटिंग में जगह दी है. वे इस पेंटिंग को नीम की लकड़ी की मदद से करती थीं.
नई दिल्ली: मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले की पहचान यहां रहने वाले भील आदिवासियों और उनकी जीवन शैली और कला संस्कृति की वजह से है. लेकिन साल 2021 की शुरुआत में इस जिले को देश-दुनिया में एक नई पहचान 'पिठौरा' पेंटर भूरी बाई ने दिलाई है.
गणतंत्र दिवस के मौके पर भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार देना सुनिश्चित किया. वो यह देश के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान में नवाजी जाने वाली पहली भील महिला हैं.
भूरी बाई को को ये सम्मान उस आदिवासी कला की सेवा के लिए मिला है जिसे पारंपरिक तौर पर महिलाओं को बनाने की अनुमति नहीं थी.
लेकिन भूरी बाई ने इन सामाजिक बेड़ियों को तोड़ते हुए 'पिठौरा' लोक कला को मिट्टी की दीवार से उठाकर कागज और कैनवास पर उकेरा और पूरी दुनिया में भील कला, जीवन शैली और संस्कृति को नई पहचान दिलाई. वो ऐसा करने वाली पहली भील कलाकार हैं.
छोटी छोटी बिंदियों के जरिए बनाई जाने वाले पिठौरा पेंटिग का ककहरा भूरी बाई ने बचपन में ही सीख लिया था. वो अपने गांव में पुरुषों को बनाता देखती थीं. पारंपरिक रूप से भील महिलाओं को इस लोक-कला के देवताओं के चित्रण की अनुमति नहीं थी.
उनके जीवन में नया सवेरा तब हुआ जब वो तकरीबन 40 साल पहले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आदिवासी कला के केंद्र के रूप में विकसित किए जा रहे भारत भवन के निर्माण कार्य में मजदूर के रूप काम करने पहुंचीं. उन्हें रोजाना 6 रुपये मजदूरी के एवज में मिलते थे.
एक दिन भूरी बाई राज्य के अलग-अलग हिस्सों से वहां लाए गए लोक कला चित्रों को बड़े गौर से देख रही थीं. ऐसे में भारत भवन के तत्कालीन कला प्रमुख जगदीश स्वामीनाथन का ध्यान उनकी ओर गया.
उन्होंने देखा कि एक मजदूर नवयुवती इतने ध्यान से पेंटिंग्स को देख रही है तो उन्होंने उससे पूछा कि क्या देख रही हो. तो उन्होंने कहा कि इन चित्रों को देख रही हूं, ये मेरे यहां के हैं.
ऐसे में उन्होंने कागज और कलम देकर कहा कि बनाकर दिखाओ तो भूरी बाई ने उन्हें बनाकर दिखा दिया.
स्वामीनाथन ने भूरी बाई को ऑफर दिया कि तुम मजदूरी करना बंद कर दो और ऐसे चित्र बनाओ, मैं तुम्हें पांच दिन के पचास रुपये दूंगा. 6 रुपये रोज की मजदूरी के बदले 50 रुपये भूरी के लिए बड़ी राशि थी और उन्होंने पेंटिंग बनाना शुरू कर दिया और यहां से भारत के लोककला इतिहास के पन्नों में भूरी बाई का नाम लिखे जाने की शुरुआत हुई.
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दीवार से शुरुआत करने के बाद उन्होंने इसे कागज और कैनवास पर उकेरना शुरू किया और पिठौरा लोक कला को पूरी दुनिया में नई पहचान दिलाई.
भूरी बाई ने भीलों की जीवन शैली, कला संस्कृति, दिनचर्चा और जीवन के विभिन्न पहलुओं को भी पेंटिंग में जगह दी. इस पेंटिंग को वो नीम की लकड़ी की मदद से करती थीं.
इसमें प्राकृतिक रंगों के साथ-साथ मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता था. भूरी बाई ने हाथ आए इस मौके को हाथ से नहीं जाने दिया. धीरे-धीरे अपनी लगन और समर्पण की मदद से सफलता की नई इबारत लिख दी.
क्या होती है पिठौरा पेटिंग
भील आदिवासी गांवों में बनाई जाने वाली लोक चित्रकला है. जब कोई व्यक्ति पिठौरा देवता के सामने कोई मन्नत मानता है कि उसकी इच्छा पूरी होगी, तो वो अपने पूरे घर को पिठौरा देव के चित्र से सजाएगा.
ये चित्र दीवार पर बनाए जाते हैं इसके लिए पहले दीवारों को गाय के गोबर से लीपा जाता है और चूने से पोता जाता है. इसे बनाने के लिए गेरू और चाक का इस्तेमाल किया जाता है.
महिलाएं और पुरुष दोनों चित्र बनाते हैं लेकिन महिलाओं को देवता के चित्र बनाने की अनुमति नहीं होती है. केवल पुरुष ही उसे बना सकते हैं.
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