सुप्रीम कोर्ट ने बताया, पत्रकारों के खिलाफ कब चलाया जाए देशद्रोह का मुकदमा
सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ मामले के सुनवाई करते हुए बताया पत्रकारों के खिलाफ कब चलाया जाए देशद्रोह का मुकदमा
नई दिल्ली: सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को कहा कि प्रत्येक पत्रकार को देशद्रोह के दंडात्मक प्रावधानों के तहत अभियोजन से सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, बशर्ते कि उसकी समाचार रिपोर्ट से हिंसा भड़कना या सार्वजनिक शांति भंग होना साबित न हुआ हो.
117 पन्नों के फैसले में जस्टिस यू.यू. ललित और विनीत सरन की पीठ ने केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) में लिए गए निर्णय पर भरोसा किया. इसमें राजद्रोह के प्रावधान की वैधता को बरकरार रखा गया है.
पीठ ने उसका हवाला देते हुए शिमला पुलिस द्वारा पिछले साल 6 मई को वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने का आदेश दिया. दुआ का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह, अधिवक्ता वरुण सिंह और नितिन सलूजा ने किया.
हर नागरिकों को है अव्यवस्था पर सवाल उठाने का अधिकार
यह मानते हुए कि केदार नाथ सिंह मामले के संदर्भ में प्रत्येक पत्रकार सुरक्षा का हकदार होगा, पीठ ने कहा कि एक नागरिक को यह अधिकार है कि वह सरकार या उसके उपायों के बारे में आलोचना या टिप्पणी के माध्यम से जो कुछ भी पसंद करता है, उसे कहने या लिखने का अधिकार है.
क्योंकि वह लोगों को कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने के इरादे से हिंसा के लिए उकसाता नहीं है.
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पत्रकार अगर चिंता व्यक्त करता है तो क्या वह अपराध है?
एक स्थानीय भाजपा नेता द्वारा दर्ज कराई गई प्राथमिकी की सामग्री का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा कि टॉक शो में दुआ ने बयान नहीं दिए थे कि प्रधानमंत्री ने वोट हासिल करने के लिए मौतों और आतंकी हमलों का इस्तेमाल किया था.
इसके अलावा, लॉकडाउन 2020 पर दुआ के शो की सामग्री पर, पीठ ने कहा : स्थिति निश्चित रूप से 30 मार्च, 2020 के आसपास चिंताजनक थी, और एक पत्रकार के रूप में, अगर याचिकाकर्ता ने कुछ चिंता दिखाई, तो क्या यह कहा जा सकता है कि उसने अपराध किया है?
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हिंसा भड़काने के इरादे से नहीं की गई थी टिप्पणी
पीठ ने कहा कि दुआ ने टिप्पणी निश्चित रूप से लोगों को भड़काने के इरादे से नहीं की थी. पीठ ने कहा कि केदार नाथ सिंह के फैसले से पता चलता है कि एक नागरिक को सरकार और उसके पदाधिकारियों द्वारा किए गए उपायों की आलोचना या टिप्पणी करने का अधिकार है.
पीठ ने कहा, यह केवल तभी होता है जब शब्दों या अभिव्यक्तियों में सार्वजनिक अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी पैदा करने की घातक प्रवृत्ति या इरादा होता है, जिसमें आईपीसी की धारा 124 ए और 505 के तहत कदम उठाना चाहिए.
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