NCERT की किताबों के जरिए सनातन संस्कृति के प्रति छात्रों में भरा जा रहा जहर!
वामपंथी इतिहासकारों ने हमारे महान ग्रंथों में लिखी अनमोल और आप्त बातों पर भरसक पर्दा डालने की कोशिश की और अपनी कुत्सित विचारधारा की कालिख पोतकर मनगढ़ंत बातों को भोले-भाले लोगों के बीच परोसा.
नई दिल्ली: देश के वामपंथी इतिहासकारों ने प्राचीन भारत का इतिहास लिखते हुए भारतीय समाज की ऐसी तस्वीर पेश की है मानो इस देश में शोषण, दमन, छुआछूत के अलावा और कुछ था ही नहीं. इसी कड़ी में उन्होंने सबसे ज्यादा बदनाम करने की कोशिश की मनुस्मृति को. हालांकि सच्चाई ये है कि मनु स्मृति में जो बातें लिखी गई हैं वो आज भी शाश्वत और अमनोल हैं.
मनुस्मृति को बदनाम करने की साजिश
हिन्दुस्तान के प्रचीन ग्रंथों में हजारों साल पहले लिखी अनमोल, अलौकिक, शाश्वत बातों को पढ़कर आज के वैज्ञानिक युग के पढ़े लिखे लोग भी हैरानी में पड़ जाते हैं. मन में सहज सवाल उठता है कि जिन बातों का पावन चिंतन मनन आज भी चमत्कृत कर देता है उसकी परिकल्पना हजारों साल पहले के मनीषियों ने आखिर कैसे कर ली.
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ऋषि मुनियों ने ना सिर्फ हजारों साल पहले जीवन के शाश्वत सत्य की खोज की बल्कि उन अलौकिक ज्ञान को श्रुतियों के सहारे अगली पीढ़ियों तक पहुंचाकर उसे अक्षुण्ण भी रखा. श्लोकों, ऋचाओं और आप्त वाक्यों के रूप में हमारे बीच मौजूद वो अनमोल धरोहर आधुनिकता के इस दौर में भी हमारा वैज्ञानिक मार्गदर्शन करती हैं, लेकिन अफसोस ये है कि खुद को सबसे बड़ा ज्ञानी समझने वाले वामपंथी इतिहासकार ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि प्राचीन काल में इतनी उन्नत और समदर्शी सोच मौजूद थी.
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लिहाजा इन वामपंथी इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीय वांग्मय में मौजूद शाश्वत और चिरंतन ज्ञान को अपनी ओर से विकृत करने की आपराधिक कोशिश की और इसके लिए सहारा लिया NCERT का. NCERT की किताबों में सनातन संस्कृति के प्रति छात्रों के मन में इतना जहर भरा गया कि देश का प्राचीन इतिहास पूरी तरह गड्डमड्ड हो गया. NCERT की बारहवीं क्लास की इतिहास की एक किताब है भारतीय इतिहास के कुछ विषय. इस किताब के पेज नंबर 57 पर महिलाओं और भड़काने के लिए क्या लिखा गया है उसके एक-एक शब्द पर जरा गौर कीजिए.
"जहां पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण थे वहां इस व्यवस्था में पुत्रियों को अलग तरीके से देखा जाता था. पैतृक संसाधनों पर उनका कोई अधिकार नहीं था. अपने गोत्र के बाहर उनका विवाह कर देना ही अपेक्षित था. इस व्यवस्था को बहिर्विवाह पद्धति कहते हैं और इसका तात्पर्य यह था कि ऊंची प्रतिष्ठा वाले परिवारों की कम उम्र की कन्याओं और स्त्रियों का जीवन बहुत सावधानी से नियमित किया जाता था जिससे उचित समय और उचित व्यक्ति से उसका विवाह किया जा सके. इसका प्रभाव ये हुआ कि कन्यादान अर्थात विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया."
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मनुस्मृति वाली साजिश का पर्दाफाश जरूरी
साफ है कि इस पंक्तियों के जरिए बाहरवीं क्लास के छात्रों खास तौर पर छात्राओं को ये बताने की कोशिश हो रही है कि प्राचीन सनातन संस्कृति पितृसत्तात्मक यानी पुरुष प्रधान थी जिसमें महिलाओं को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे और कम उम्र में ही उनकी शादी कर दी जाती थी. जिसमें कन्याओं की मर्जी या इच्छा जानने तक की कोशिश नहीं होती थी.
सवाल ये है कि जिस सनातन संस्कृति में कन्याओं को स्वयंवर यानी अपना वर खुद चुनने का अधिकार मिला हुआ था उसके बारे में ये भ्रम 12वीं के छात्र-छात्राओं के बीच क्यों फैलाया जा रहा है. कमाल ये है कि सनातन संस्कृति के बारे में इस तरह का बेबुनियाद भ्रम फैलाने के लिए वामपंथी इतिहासकारों ने मनुस्मृति का दिल खोलकर हवाला दिया है. अब जरा देखते हैं कि मनुस्मृति में नारियों के बारे में लिखा क्या गया है. मनुस्मृति के तीसरे अध्याय का सत्तावनवां श्लोक कहता है
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शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।
मनुस्मृति के इस श्लोक का मतलब ये है कि-
"जिस कुल में स्त्रियां कष्ट भोगती हैं, वो कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहां स्त्रियां प्रसन्न रहती हैं वो कुल हमेशा फलता फूलता और समृद्ध रहता है."
स्त्रियों के सम्मान को लेकर इतनी पवित्र भावना शायद ही दुनिया के किसी और लिटरेचर या किताब में आपको मिले. पर अफसोस ये है कि हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने मनुस्मृति के इन कालजयी और समतामूलक श्लोकों पर पर्दा डाल दिया और ऐसे श्लोकों का सहारा लिया जिन्हें अपनी विचारधारा के हिसाब से तोड़ने मरोड़ने में उन्हें सहूलियत हो.
इसमें कोई संदेह नहीं कि वामपंथी इतिहासकारों के मन में मनुस्मृति के प्रति खास तरह का दुराग्रह कूट-कूट कर भरा हुआ है. लिहाजा बगैर किसी तथ्य के इस ग्रंथ को बदनाम करते हैं. NCERT की बारहवीं क्लास की इतिहास की किताब भारतीय इतिहास के कुछ विषय के पेज नंबर 58 पर क्या लिखा है एक बार जरा उसपर भी गौर कीजिए.
"इस चुनौती के जवाब में ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएं तैयार कीं. ब्राह्मणों को इन आचार संहिताओं का विशेष पालन करना होता था किंतु बाकी समाज को भी इसका अनुसरण करना होता था. करीब 500 ईसा पूर्व से इन मानदंडों का संकलन धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया. इसमें सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी जिसका संकलन लगभग 200 ईस्वी पूर्व से 200 ईस्वी के बीच हुआ."
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मनुस्मृति और भारत के प्राचीन अनुपम ग्रंथों का हवाला देकर एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश हो रही है मानो इन ग्रंथों में कुछ बातें लिखकर लोगों पर जबरन इन्हें थोपा जा रहा था. जबकि बात इसके ठीक उलट है. इन ग्रंथों में किसी तरह की आचार संहिता को थोपने की कोशिश नहीं हुई बल्कि तत्व ज्ञान हासिल करने का मार्ग बताया गया है. जिस मनुस्मृति पर इन वापमंथी इतिहासकारों ने लगातार कीचड़ उछाला उसमें धर्म की क्या परिभाषा लिखी गई है आप खुद देख लीजिए.
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥
मनुस्मृति में धर्म के ये 10 लक्षण बताएं गए हैं और जब आप इसके अर्थ को समझेंगे तो आपके मन में मनुस्मृति के प्रति श्रद्धा जागेगी और इसके लिखने वाले के प्रति सम्मान का भाव पैदा होगा. मनुस्मृति के इस श्लोक का अर्थ है-
"धैर्यवान होना, शक्ति होते हुए भी क्षमा का भाव रखना, मन को वश में रखना, दूसरे की वस्तु को लेकर लालच नहीं करना, मन और शरीर को पवित्र रखना, इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धि का सही इस्तेमाल करना, तत्व ज्ञान हासिल करना, हमेशा सत्य बोलना और क्रोध नहीं करना यही धर्म के 10 लक्षण हैं।"
मार्क्स, माओ के चेलों की चाल समझिए
अब आप बताइये कि जो बातें मनुस्मृति के इस श्लोक में बताई गई हैं उससे किस युग में और किस विचारधारा के व्यक्ति को आपत्ति हो सकती है और उससे भी बड़ी बात इस श्लोक में कहां ये लिखा गया है कि इसका पालन करना जरूरी है नहीं तो दंड दिया जाएगा. अलबत्ता इसे धर्म के 10 लक्षण के तौर पर बताया गया है. इसके पालन की शर्त हर इंसान के विवेक पर छोड़ी गई है. ना तो कोई जाति की बात कही गई है ना ही किसी वर्ग विशेष से इसे जोड़ा गया है.
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साफ है कि वामपंथी इतिहासकारों ने हमारे महान ग्रंथों में लिखी अनमोल और आप्त बातों पर भरसक पर्दा डालने की कोशिश की और अपनी कुत्सित विचारधारा की कालिख पोतकर मनगढ़ंत बातों को भोले-भाले लोगों के बीच परोसा. मार्क्स, माओ और स्टालिन के चेलों का सबसे बड़ा पाप ये नहीं है कि उनकी विचारधारा तंग है. बड़ा पाप ये है कि उन्होंने उन ग्रंथों को भी बदनाम किया जिनमें इंसान के मन बुद्धि को पवित्र करने का अलौकिक रास्ता बताया गया है.
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