kisan parade: बधाई हो..आपने दहशत के दम पर लोगों का `दिल जीत लिया है`
वैसे तो दिल्ली ने क्या कुछ नहीं देखा है. इतिहास कहता है कि दिल्ली ने अपना उजड़ना-बसना ही सात बार देखा है, लेकिन दिल्ली ने शायद ही कभी सोचा होगा कि एक रोज वह ऐसे गणतंत्र दिवस का भी गवाह बनेगी, जब हाथों में तिरंगे की जगह तलवारें होंगीं और दरो-दरवाजे बंद रहेंगे. मंगलवार को किसानों ने जब ट्रैक्टर रैली निकाली तो इससे पहले उन्होंने कहा था कि वह लोगों का दिल जीतने के लिए ऐसा कर रहे हैं.
नई दिल्लीः आंदोलन से शुरू हुआ किसानों का संघर्ष मंगलवार को उपद्रव में बदल गया. इसी के साथ तकरीबन 60 दिनों की लोकतांत्रिक तपस्या भी छिन्न-भिन्न कर दी गई. उसे तलवारों से काट दिया गया, ट्रैक्टरों से रौंद डाला गया. दर्जनभर चले बातचीत के दौर और मिल-बैठकर मसले सुलझा लेने वाली परंपरा को पत्थर मार कर चोटिल कर दिया गया. अब न कोई विरोध बचा, न सहानुभूति और न ही बचा वह विचार जो तमाम गलत के बीच भी कुछ सही होने की गुंजाइश रखता था.
सवालः किसके खिलाफ लहराईं तलवारें?
यह सब उस दिन हुआ जब देश अपने गणतंत्र के साथ 72वें पड़ाव पर पहुंच रहा था. Corona के कारण राजधानी कुछ कम ही सही, लेकिन इसका जश्न मना रही थी. कार्यक्रम संक्षिप्त था. जैसे ही घड़ी की सुईयों ने 10 बजाए, राष्ट्रपति ने तिरंगा फहराया, दूसरी ओर से खबर सामने आई कि किसानों के रूप में प्रदर्शन कर रहे लोगों ने बैरिकेडिंग तोड़ दी है.
वह सड़कों पर हथियार लेकर दौड़ पड़े. यह लड़ाई किससे और किसके खिलाफ थी ? भारतीय संविधान लोगों का, लोगों के लिए लोगों के द्वारा शासन है तो क्या यह तलवारें अपने ही लोगों को दिखाई जा रही थीं ?
एक दिन पहले ही दिल्ली पुलिस से बातचीत किसानों की रैली के रूट तय किए गए थे. उनके लिए समय भी फिक्स था. यह बात ठीक है कि लोकतंत्र आपको अपनी बात रखने के लिए प्रदर्शन की इजाजत देता है, लेकिन यह कहां का नियम है कि आप अपनी बात रखने और जबरन मनवाने के लिए जनता के अंदर दहशत पैदा करने में जुट जाएं.
पुलिस ने जो रूट तय किए प्रदर्शनकारियों ने उन्हें तोड़ा और हर उस जगह अपनी भीड़ फैलाई, जहां उन्हें नहीं जाना नहीं था. वह गाजीपुर बॉर्डर, मुकरबा चौक, टिकरी और अप्सरा बॉर्डर हर जगह ही सीधे भिड़ने के मूड में दिखे. उन्होंने गाजीपुर में ट्रैक्टर की मदद से कंटेनर हटा दिया और फिर दिल्ली में घुसते चले गए.
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गौरव वाले दिन दिल्ली शर्मसार
दिल्ली गणतंत्र का ऐसा नजारा पहली बार देख रही थी. पिछले 72 सालों से वह प्रभात फेरियों की आदी थी. वह आदी थी उन नन्हें हाथो में तिरंगा लिए उन नौनिहालों को देखने की जिनके सीने में हिंदुस्तान बसा होता था और लबों पर जय हिंद.
वह आदी थी उन भावनाओं की जो गली में भारत माता की जय सुनते ही बालकनी और खिड़कियों पर दौड़ कर पहुंचती थी और रैली निकाल रहे बच्चों पर कभी फूल बरसा दिया करती थी तो कभी उनके सुर में सुर मिला कर जय हिंद कहकर गौरव महसूस किया करती थी.
मगर आज दिल्ली और देश के गणतंत्र दिवस का नसीब कुछ और ही था. आज हर वो अधिकार पा लेने थे जो सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचा कर मिलने वाले थे. आज गणतंत्र-लोकतंत्र के गौरव लालकिले पर चढ़ाई कर देनी थी और वहां जिद का झंडा फहरा देना था. यही हुआ भी.
62 दिन पहले जिसके लिए पसोपेश में थे, कानून में सही-गलत खोज रहे थे, बातचीत कर के हल निकालने के रास्ते पर चल रहे थे, आज वह समस्या ही खत्म हो गई. अब न कोई किसान बचा है और न ही कोई आंदोलन..
बधाई हो... आपने संविधान की खूब इज्जत रखी है. बधाई हो..आपने साबित कर दिया है कि देश आजाद है और इसके लोग कुछ भी कर सकते हैं. बधाई हो... आपने दहशत के दम पर लोगों का 'दिल जीत लिया है'.... शायद आप यही करने निकले थे.
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