Electoral Bond Scheme: क्या होते हैं चुनावी बॉन्ड, कब हुई थी शुरुआत? जानें किनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को चुनावी बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक करार देते हुए इस पर रोक लगाने का फैसला दिया. साथ ही कोर्ट ने इस स्कीम को सूचना के अधिकार का भी उल्लंघन बताया. साल 2018 में शुरू हुई इस योजना को लागू करने के पीछे सरकार का मानना था कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी, लेकिन याचिकाकर्ताओं का कहना था कि इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से गुपचुप फंडिंग पारदर्शिता को प्रभावित करती है.
नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को चुनावी बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक करार देते हुए इस पर रोक लगाने का फैसला दिया. साथ ही कोर्ट ने इस स्कीम को सूचना के अधिकार का भी उल्लंघन बताया. साल 2018 में शुरू हुई इस योजना को लागू करने के पीछे सरकार का मानना था कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी, लेकिन याचिकाकर्ताओं का कहना था कि इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से गुपचुप फंडिंग पारदर्शिता को प्रभावित करती है.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इसके किलाफ कांग्रेस नेता जया ठाकुर, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एनजीओ समेत चार लोगों ने याचिका दायर की थी. उन्हीं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है.
'आरटीआई हर नागरिक का अधिकार है'
वहीं इस फैसले पर याचिकाकर्ता जया ठाकुर ने न्यूज एजेंसी ANI से कहा, अदालत ने कहा कि यह पारदर्शी होना चाहिए. आरटीआई हर नागरिक का अधिकार है. कितना पैसा और कौन लोग देते हैं इसका खुलासा होना चाहिए. 2018 में जब यह चुनावी बॉन्ड योजना प्रस्तावित की गई थी तो इस योजना में कहा गया था कि आप बैंक से बॉन्ड खरीद सकते हैं और पैसा पार्टी को दे सकते हैं जो आप देना चाहते हैं लेकिन आपका नाम उजागर नहीं किया जाएगा, जो कि सूचना के अधिकार के खिलाफ है और इसका खुलासा किया जाना चाहिए.
उन्होंने आगे कहा, इसलिए मैंने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. इसमें मैंने कहा कि यह पारदर्शी होना चाहिए और उन्हें नाम बताना चाहिए और राशि, जिसने पार्टी को राशि दान की.
क्या थी चुनावी बॉन्ड योजना
सरकार ने साल 2017 में चुनावी बॉन्ड की योजना का ऐलान किया था. इसे जनवरी 2018 में कानूनन लागू किया था. इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक पार्टियों को चंदा दिया जाता था. इसमें कोई भी व्यक्ति, कंपनी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदकर गुमनाम तरीके से पार्टियों को दे सकते थे. हालांकि यह वही खरीद सकता था जिसके बैंक खाते की केवाईसी हुई हो. इनकी अवधि सिर्फ 15 दिन की होती थी. इन बॉन्ड को राजनीतिक पार्टियां अपने वेरिफाइड अकाउंड के जरिए कैश करवा सकती थी.
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