नई दिल्लीः साल था 1939. नेताजी के अंदर आजादी की चाहत गहराई तक हिलोरें मार रही थी. क्या हो-कैसे हो दिन रात इसी उधेड़बुन में गुजर रहे थे. उधर महात्मा गांधी जिन्हें सबसे वरिष्ठ समझा जाता था वे ही पूर्ण स्वराज्य को लेकर समर्थित नहीं थे. सुभाष चंद्र बोस ने उनके विरोध के चलते कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था और 3 मई 1939 को फॉरवर्ड ब्लॉक की नींव डाली. ये वो समय था जब सुभाष बाबू को लगने लगा कि कांग्रेस जैसे राजनीतिक संगठनों के बूते पूर्ण स्वराज का सपना पूरा होने वाला नहीं है. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

नेताजी की चाणक्य नीति
3 सितंबर 1939 को मद्रास में नेताजी को दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ने की सूचना मिली. सुभाष बाबू को लगा कि दुश्मन के दुश्मन को दोस्त बनाने की चाणक्य नीति अपनाने का ये सही वक्त है. उन्होंने कांग्रेसी नेताओं को चेताया कि ये वक्त हिन्दुस्तान पर हुकूमत करने वाले फिरंगियों का साथ देने का नहीं है.



कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तो नहीं समझे लेकिन फिरंगी समझ गए कि आजादी के इस परवाने को अगर गिरफ्तार नहीं किया गया तो ये अकेले ही हमें घुटनों के बल आने पर मजबूर कर देगा. उधर जर्मनी और जापान मिलकर यूनाइटेड किंगडम की चूलें हिला रहे थे और इधर कैद में नेताजी मौके की नजाकत को समझते हुए बाहर निकलने को बेकरार थे. 


कड़े पहरे से निकल गए नेताजी
उन्होंने जेल में ही आमरण अनशन कर दिया. अंग्रेजों को लगा कि जिस इंसान से हिन्दुस्तान के लोग बेपनाह मोहब्बत करते हैं, जेल में उसे अगर कुछ हो गया तो बगावत के ऐसे शोले भड़केंगे कि उसे रोक पाना नामुमकिन हो जाएगा. उन्हें जेल से तो रिहा किया गया लेकिन घर में नजरबंद कर दिया गया. पुलिस का कड़ा पहरा, 18 तेज तर्रार खुफिया अधिकारियों की पैनी नजर, पर नेताजी सचमुच महामानव थे. 18 जनवरी 1941 की रात, वक्त 1 बजकर 35 मिनट, कड़ा पहरा और फिरंगियों की खुफियागिरी धरी रह गई. नेताजी बीमा एजेंट मोहम्मद जियाउद्दीन बनकर निकल गए. 


ऐसी रही नेताजी की यात्रा
27 जनवरी 1941 को एक मुकदमे के सिलसिले में नेताजी की अदालत में पेशी थी, लेकिन तबतक तो वो ब्रिटिश हुकूमत की ईंट से ईंट बजाने के लिए उनकी जद से बहुत दूर जा चुके थे. कोलकाता से गोमो स्टेशन पहुंचे, वहां से कालका मेल पकड़कर दिल्ली पहुंचे. दिल्ली से पेशावर और पेशावर से अफगानिस्तान के काबुल.


काबुल स्थित इटली और जर्मनी के दूतावासों ने नेताजी की मदद की और वो आरलैंडो मैजोन्टा नाम के इटालियन नागरिक बनकर रूस की राजधानी मॉस्को पहुंच गए और वहां से जर्मनी की राजधानी बर्लिन.


यह भी पढ़िएः दफ्तर में सिगरेट पी रहा था अंग्रेज अफसर, सुभाष चंद्र बोस ने ऐसे सिखाया सबक


हिटलर और नेताजी की मुलाकात का अद्भुत संयोग


जर्मनी में नेताजी ने उस हिटलर से सीधे मुलाकात की जिससे अंग्रेजों की रूह कांपती थी. हिटलर से नेताजी का मिलना फिरंगियों के लिए नाकाबिले बर्दाश्त हो गया. जर्मनी में सुभाष चंद्र बोस तकरीबन 2 साल रहे, हिटलर से मिले और दो सौ सालों से भारत का शोषण कर रहे अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति तैयार की. लेकिन उनके दिमाग में वतन को आजाद कराने का जुनून था. लिहाजा उन्होंने जापान का रुख किया. जर्मनी और जापान तब ब्रिटेन समेत सारे मित्र राष्ट्रों की तबाही की पटकथा लिख रहे थे, लेकिन बोस के लिए जर्मनी से जापान पहुंचना कतई आसान नहीं था.



ब्रिटेन ने सुभाष को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए सारे घोड़े खोल दिए थे. जल-जमीन से लेकर आसामान तक से निगहबानी की जा रही थी. दिलेर सुभाष की जिंदगी की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा अब आनी थी. पर सुभाष कब पीछे हटने वाले थे. हिटलर ने नेताजी के जापान जाने का बंदोबस्त किया. जर्मनी से जापान पहुंचना नेताजी के फौलादी इरादों की अनूठी दास्तान है. जिसने मौत से लड़ना सीखा हो, जिसके भीतर मौत को मात देने का हुनर हो वही उस तरह की समुद्री यात्रा कर सकता है जो नेताजी ने की.


यह भी पढ़िएः Parakram Diwas: क्या है सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के मतभेद का सच, जानिए पूरी बात


Zee Hindustan News App: देश-दुनिया, बॉलीवुड, बिज़नेस, ज्योतिष, धर्म-कर्म, खेल और गैजेट्स की दुनिया की सभी खबरें अपने मोबाइल पर पढ़ने के लिए डाउनलोड करें ज़ी हिंदुस्तान न्यूज़ ऐप.