नई दिल्लीः किशोरवस्था के खेल-कूद वाली उम्र से निकल कर नेताजी अब युवा हो रहे थे. स्वभाव में स्वाभाविक गंभीरता अब उनकी खासियत बन रही थी. हालांकि उन्होंने लहराते लड़कपन को पहले क्रांतिकारियों की प्रेरणा से साध लिया था, ठीक ऐसे ही जवानी की लहर संभालने में स्वामी विवेकानंद (Sawami Vivekanand) की प्रेरणाएं बहुत काम आईं. सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) स्वामी विवेकानंद के आदर्शों से बहुत गहरे प्रभावित थे. यही वजह रही कि उनके मन में मान-सम्मान पद प्रतिष्ठा का लेश मात्र भी लोभ नहीं था.
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अंग्रेजों की नौकरी को मार दी लात
प्रेसिडेंसी कॉलेज से निकाले जाने के बाद उन्होंने स्कॉटिश मिशन कॉलेज में दाखिला लिया और 1919 में फर्स्ट डिवीजन से ग्रेजुएशन की परीक्षा पास की. पूरे कॉलेज में दूसरा स्थान मिला. 1920 में इंडियन सिविल सर्विसेज के लिए इंग्लैंड गए और 1921 में न सिर्फ इस प्रिस्टिजीयस परीक्षा को पास किया बल्कि ऑल इंडिया चौथी रैंक भी हासिल की. लेकिन ये तो सिर्फ अंग्रेजों को आईना दिखाने के लिए था जो बुद्धि विवेक में भारतीय को कमतर देखते थे. जिस शख्स को अंग्रेजों का शासन फूटी आंख नहीं सुहाता था वो भला उनकी चाकरी करता. उन्होंने पद-प्रतिष्ठा और पैसे वाली नौकरी को लात मार दी.
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अंग्रेज अफसर को ऐसा फटकारा कि...
16 जुलाई 1921 को सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) इंग्लैंड (Ingland) से भारत (India) लौटे और तब की बम्बई आकर महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) से मिले. इसके बाद तो वो आजादी की लड़ाई में सीधे तौर पर कूद पड़े. उसी दौरान इंग्लैंड का राजकुमार भारत आया, कांग्रेस (Congress) ने इसका विरोध किया. बोस ने तो आंदोलन (Protest) ही छेड़ दिया. गिरफ्तारी हुई छह महीने की सजा सुनाई गई. उन्होंने जज के सामने ही कहा बस छह महीने की सजा मैं तो अंग्रेजों का तख्ता पलटने जा रहा हूं. 1924 में वो कलकत्ता महानगर पालिका के कार्यकारी अधिकारी बने. तब कलकत्ता महानगर पालिका में कई अंग्रेज अधिकारी थे. दूसरे ही दिन कोट्स नाम का एक अंग्रेज इंजीनियर सिगरेट पीते हुए दफ्तर में दाखिल हो गया. बोस ने उसे कड़ी फटकार लगाई और पूछा कि तुम्हारा मातहत अगर ऐसी हरकत करे तो तुम्हें कैसा लगेगा. एक भारतीय अधिकारी द्वारा ऐसे तल्ख और साफगोई वाले तेवर का कोट्स को अंदाजा भी न था. उसने चुपचाप सिगरेट बुझाने में ही भलाई समझी.
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करिश्माई व्यक्तित्व के थे धनी
ये वो वक्त था जब फिरंगी हुकूमत ये समझने लगी कि कड़े तेवर वाला ये शख्स उनके लिए सबसे बड़ा शूल बनता जा रहा है. 25 अक्टूबर 1924 को उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर अलीपुर, बेहरामपुर जैसी जगहों में रखने के बाद मांडले जेल भेज दिया गया. वहां की खराब आबो-हवा की वजह से नेताजी बार-बार बीमार पड़े. लेकिन इस हाल में भी मां भारती को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने की ज्वाला कमजोर नहीं पड़ी. जेल से ही अपने मित्र दिलीप कुमार राय को चिट्ठी लिखी गुलाब के फूलों के लिए हमें कांटों का भी स्वागत करना होगा. साफ है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस का तेवर फिरंगियों को खटकने लगा था. दरअसल नेताजी का व्यक्तित्व इतना करिश्माई था कि अंग्रेज भांप गए थे कि अगर इस इंसान के अश्वमेध का पहिया नहीं रोका गया तो ये अकेले ही पूरे ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला देगा.
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