गोरखपुर: बहराईच का अपना ऐतिहासिक महत्व रहा है. पौराणिक गाथाओं के अनुसार बहराइच भगवान ब्रह्मा की राजधानी रूप में प्रसिद्ध था. 11 वीं सदी में राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी.


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माघ बसंत पंचमी के दिन पैदा हुए थे सुहेलदेव
अवध गजेटियर के मुताबिक बहराइच के महाराजा प्रसेनजित के घर माघ माह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई. को सुहेलदेव ने जन्म लिया. महाराजा सुहेलदेव का शासन काल 1027 ई. से 1077 तक स्वीकार किया गया है. उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार पूर्व में गोरखपुर और पश्चिम में सीतापुर तक किया. महाराजा सुहेलदेव का वर्णन फारसी में लिखे ऐतिहासिक उपन्यास ‘मिरात-ए-मसूदी’ में भी विस्तार से मिलता है. बाकी ऐतिहासिक किताबें उनके नाम पर अलग-अलग मत रखती हैं. उन्हें सकरदेव, सुहीरध्वज, सुहरीदिल, सुहरीदलध्वज, राय सुह्रिद देव, सुसज से लेकर सुहारदल के नाम से जाना गया है.



 



भगवान सूर्य के उपासक थे सुहेलदेव
महाराजा सुहेलदेव बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के थे. वह भगवान सूर्य के उपासक थे. उनकी वीरता से प्रभावित होकर गोंडा, लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद, उन्नाव, गोला और लखीमपुर के राजाओं ने राजा सुहेलदेव को अपना महाराजा घोषित कर दिया.  अवध गजेटियर के अनुसार 21 राजाओं ने महाराजा सुहेल देव के संरक्षण में राज किया. यही नहीं हिन्दू गौरव की रक्षा के लिए इन सभी ने महाराजा सुहेल देव के नेतृत्व में कई युद्ध भी लड़े.




भारत पर मंडरा रहा था मजहबी कट्टरपंथी शासकों का खतरा
सुहेलदेव की वीरता की कहानी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा तब शुरु होता है, जब महमूद ग़ज़नवी भारत की विरासत और खजाने को लूट कर वापस जा चुका था. महमूद ग़ज़नवी तुर्क मूल का मध्य अफ़ग़ानिस्तान में केन्द्रित गज़नवी वंश का शासक था. 
महमूद ग़ज़नवी एक सुन्नी इस्लामी साम्राज्य बनाने का सपना देखता था. ग़ज़नवी ने 17 बार भारत पर आक्रमण कर के अपार सम्पत्ति लूटी थी. साल 1026 में उसने काठियावाड़ के सोमनाथ मंदिर का खजाना लूटा था. भारत लूटने के बाद ही महमूद ग़ज़नवी को गाजी की उपाधि मिली थी. 


चाचा की तरह भतीजा भी बनना चाहता था गाजी
महमूद गजनवी की मृत्य के बाद उसके भतीजे सैयद सालार मसूद ने भी अपने चाचा की तरह गाजी कहलवाने के लिए भारत पर हमला बोला. सालार मसूद की सेना ने दिल्ली पर आक्रमण किया. दिल्ली के राजा राय महीपाल और उनके भाई राय हरगोपाल ने कड़ी टक्कर दी.  मसूद हारकर लौट वापस लौट रहा था कि गजनी से उसके कई साथी बड़ी घुड़सवार सेना लेकर आ धमके.  साथियों के मिलने से मसूद की ताकत फिर से बढ़ी. इस बार सैयद सालार मसूद ने लाव लश्कर के साथ जबरदस्त हमला कर दिल्ली को जीत लिया.


सालार के मंसूबे थे खतरनाक
सालार मलूद का  अगला पड़ाव था, हिन्दू धर्म का केंद्र अयोध्या और वाराणसी.  सालार मसूद की विशाल सेना ने क्रूरता और कत्लेआम कर दहशत फैला रखी थी. जिसके कारण मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं, कन्नौज के राजाओं ने लड़ने के बजाय सैयद मसूद के साथ संधि कर ली. कई राजाओं ने इस्लाम तक कबूल कर लिया था.
तमाम राज्यों को जीत कर सालार मसूद ने कन्नौज को ही अपना केंद्र बना लिया, यहां से अयोध्या और उसके आसपास के राज्यों को लूटने की योजना बनाने लगा.  लेकिन मसूद के इरादों की खबर महाराजा सुहेल देव  को उनके गुप्तचरों ने पहले ही दे दी थी.



लेकिन उसकी राह का रोड़ा थे सुहेलदेव
सालार मसूद की मजबूरी थी बहराइच के महाराज सुहेलदेव से जूझना. क्योंकि राम की नगरी अयोध्या तक पहुंचने के लिए उसे बहराईच से होकर गुजरना था.  इसलिए मसूद ने बहराइच पर हमले की योजना तैयार की.
लेकिन आने वाले खतरे से सुहेलदेव सतर्क थे और अपने गुप्तचरों से निरंतर मसूद की योजना की खबर भी ले रहे थे. मसूद के आक्रमण का कड़ा जवाब देने के लिए आसपास के सभी राजाओं के पास महाराजा सुहले देव ने संदेश भिजवा दिया था कि मसूद की डेढ़ लाख से ज्यादा की विशाल सेना सामना लामबंद होकर ही किया जा सकता है.
राजा रायसायब, राजा अर्जुन, राजा भग्गन, राजा मकरन, राजा जयपाल, राजा श्रीपाल,  राजा हरपाल, राजा हरखू, राजा भल्लर, राजा नारायण, राजा भल्ला, राजा नरसिंह ने महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में दुश्मन सेना का सामना करने के लिए तैयार हो गए. 


दुश्मन ने किया धोखे से हमला
परमवीर महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में एक महायुद्ध होने वाला था.  लेकिन आधी रात को सालार मसूद की सेना ने अचानक हमला बोल महाराजा सुहेलदेव को हार के कगार पर ला खड़ा कर दिया.  ये एक ऐसा हमला था जिसके लिए सुहेलदेव तैयार नहीं थे. लेकिन इस हार के बाद भी फौलादी इरादों वाले सुहेलदेव ने हार नहीं मानी. उन्होंने अपनी प्रजा से मदद मांगी


प्रजा ने भी दिया सुहेलदेव का साथ
सुहेलदेव ने साथी राजाओं और आम जनता से आव्हान किया कि ये एक धर्मयुद्ध है और हर किसी को इस युद्ध की अग्नि में आहूति देनी होगी. हर घर से एक युवा सेना में शामिल हुआ.  इस तरह एक विशाल सेना बनायी गयी.
सुहेलदेव किसी भी सूरत में सैयद सालार मसूद को अयोध्या की पावन भूमि  में घुसने देना नहीं चाहते थे. अब बारी निर्णायक जंग की थी.  हालांकि उससे पहले सालार मसूद दो बार और सुहेलदेव को परास्त करने की कोशिश कर चुका था.  लेकिन पहली बार में धोखा खा चुके परम प्रतापी सुहेलदेव काफी सजग और चौकन्ने हो चुके थे.



शत्रु को सुहेलदेव ने दिया उसकी की भाषा में जवाब
सुहेलदेव ने अपनी सेना और प्रजा से दो टूक कह दिया कि एक भी दुश्मन ज़िंदा वापस नहीं जाना चाहिए. इनको मारकर इनके घोड़े, हथियार और धन छीन लो. आखिरकार युद्ध की वो घड़ी आ ही गई.
तारीख 8 जून 1034 को दोनों ओर की सेनाएं आमने-सामने थीं.  रणभूमि थी चिंतौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक. सालार मसूद की फौज में डेढ़ लाख से ज्यादा सैनिक थे.  सालार मसूद ने दाहिनी ओर की कमान मीर नसरूल्ला को और बाई ओर की कमान सालार रज्जब को सौंपी.  खुद मसूद ने केंद्रीय कमान का नेतृत्व संभाल कर आक्रमण बोला.



दो दिनों की जंग के बाद मारा गया मसूद
महाराजा सुहेलदेव ने मातृभूमि प्रेम की ऐसी ज्वाला अपने सैनिकों में भरी थी कि वो भूखे शेरो की तरह मसूद की सेना पर टूट पड़े. मीर नसरूल्लाह को बहराइच के उत्तर में बारह मील दूर स्थित ग्राम दिकोली के पास मार गिराया गया. मसूद के भांजे सालार रज्जब को भी बहराइच के पूर्व में ग्राम शाहपुर जोत में मौत के घाट उतार दिया गया.  उधर राजा करण के नेतृत्व में सुहेलदेव की सेना ने उस टुकड़ी पर आक्रमण किया जिसका नेतृत्व सालार मसूद खुद कर रहा था. सालार मसूद अब बुरी तरीके से घिर चुका था.
दो दिनों तक भीषण संग्राम चला. मसूद, वीर महाराजा सुहेलदेव के चक्रव्यूह में फंस चुका था.  सुहेलदेव की सेना ने बिषबुझे बाणों की जबरदस्त बौछार की.  उन्होंने मसूद पर निशाना साध कर एक बाण छोड़ा जो सीधे उसके गले में जा लगा.  इस तरह उस पापी का अंत हुआ.


महाराजा सुहेलदेव ने नहीं की गलती
 सालार मसूद के मरते ही उसकी सेना का पहले से कमजोर पड़ चुका मनोबल और टूट गया. मसूद के सेनापति सालार इब्राहिम ने सुहेलदेव के पास संधि का प्रस्ताव भेजा मगर सुहेलदेव ने ये कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया कि जो लोग सोते हुए सैनिको पर हमला कर सकते हैं उनपर भरोसा नहीं किया जा सकता. साफ है कि युद्ध जारी रहा और सुहेल देव ने सालार इब्राहिम को भी मौत के घाट उतार दिया. इस युद्ध में सुहेलदेव की सेना ने सालार मसूद के डेढ़ लाख सैनिकों में से एक को भी जिंदा नहीं छोड़ा.


यही वजह है कि अगले कई दशकों तक धर्मविरोधी म्लेच्छों की हिम्मत नहीं हुई कि वह भारत की तरफ नजर उठाएं.


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