नई दिल्लीः वृहदारण्यक उपनिषद में एक सूक्ति है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’. यानी कि हे परमात्मा, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो. अंधकार यानी कि रोग, अविद्या, अज्ञानता, भय और शोक के रूप में हमें चारों ओर से घेर लेने वाला शत्रु. Corona के दौर में नकारात्मक ऊर्जा या विचार भी ऐसा ही शत्रु है.


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कई देशों में महामारी के इस दौर में लोगों को नकारात्मकता का शिकार होते देखा गया. भारतीय मनीषा को और दर्शन को इसके लिए धन्यवाद है कि जिन्होंने सृष्टि के आरंभ के साथ ही ऐसे कई उपाय हमारे दैनिक जीवन में शामिल किए जो इन विकारों से लड़ने में हमें पीढ़ी दर पीढ़ी सक्षम बनाते आ रहे हैं. 


सुबह-शाम आरती जलाना, दीप प्रज्वलित करना इसी प्रक्रिया का सरल हिस्सा है. 


सृजन का प्रतीक है दीप जलाना
भारतीय सनातनी परिवारों में प्रत्येक दिन की शुरुआत पूजन आदि से होती है. एक तरफ जब सू्र्य उदित हो रहा होता है तब घंटी की ध्वनि के साथ पूरे घर में आरती दिखाने की परंपरा नए दिन की घोषणा का प्रतीक है. यह नवसृजन और सकारात्मकता को निमंत्रण है,



इसके साथ ही सूर्य व अग्नि को साक्षी मानकर उन्हीं के समान परमार्थ में रत होने का संकल्प भी है. देवताओं को दीप समर्पित करते समय भी ‘त्रैलोक्य तिमिरापहम्’ कहा जाता है, अर्थात दीप के समर्पण का उद्देश्य तीनों लोकों में अंधेरे का नाश करना ही है. 


ज्योति स्वरूप में स्थापित है परम सत्ता
पौराणिक मान्यता है कि अग्नि की ऊर्जा  सृष्टि में तीन रूपों में दिखाई देती है. यह ब्रह्मांड में विद्युत है. ग्रहमंडल में सूर्य है और पृथ्वी पर ज्वाला रूप में स्थापित है. एक सूक्ति ‘सूर्याशं संभवो दीप:’ में कहा गया है कि  दीपक की उत्पत्ति सूर्य के अंश से हुई है. इसलिए दीपक का प्रकाश  इतना पवित्र है कि मांगलिक कार्यों से लेकर भगवान की आरती तक इसका प्रयोग अनिवार्य है. 



सूर्य की उत्पत्ति स्वयं परमात्मा के नेत्रों की ज्योति से हुई है. इसलिए आरती जलाते हुए यह भाव मन में लक्षित होता है कि यह प्रकट की जा रही अग्नि परमात्मा का ज्योति स्वरूप ही है. यही ज्योति हमें सन्मार्ग की ओर प्रेरित करेगी. सही दिशा प्रदान करेगी. 


संध्यावंदन इसलिए है श्रेष्ठ
हमारे शास्त्रों में यूं भी नौ प्रकार की पूजा-अर्चना का विधान है, जिसके तहत दीप पूजा व दीपदान को श्रेष्ठ माना गया है. इसी प्रकाश संन्ध्या वंदन के समय का दीप दिन के अंत की घोषणा के साथ इस बात का प्रतीक है कि जब सृष्टि में कुछ भी शेष नहीं होगा, यानी कि अंधकार होगा, तो भी दीपक की ज्योति रहेगी, जो फिर से एक नए सृजन की ओर अग्रसरित करती रहेगी. 


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ऐसा है परमात्मा का स्वरूप
यजुर्वेद में परमात्मा का जो स्वरूप बताया गया है, उसमें भी सूर्य-चंद्र और अग्नि प्रमुख घटक की तरह ही हैं. इसमें बताया गया है कि परमात्मा-रूपी पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु से सूर्य, श्रोत्र से वायु और प्राण, मुख से अग्नि, नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से अन्य सूर्य जैसे प्रकाश-युक्त तारागण, दो चरणों से भूमि, श्रोत्र से दिशाएं, और इसी प्रकार सब लोक उत्पन्न हुए . 


चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत,
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत.
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत.
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकान् अकल्पयन्


ऐसे सजाएं आरती की थाली
आरती के लिए लिए थाली सजाने से पहले एक बात का ध्यान रखें कि आरती के लिए पीतल या तांबे की थाली या थाली ही लें, आरती के थाल में जल से भरा हुआ कलश, फूल, अक्षत, कुमकुम, कपूर, धूप, घंटी और आरती की किताब जिसे आरती संग्रह भी कहते हैं रख लें,



इन सभी सामग्री को थाल में लेने से पहले थाल में कुमकुम से स्वास्तिक का निशान बना लीजिए. 


अपनी आत्मा में जगाएं ईश्वर
आरती लेने के बाद श्रद्धालु आरती के ऊपर अपने दोनों हाथों को फैला लेते हैं और फिर उसके बाद अपने हाथों को अपने माथे और सिर पर लगा लेते हैं, ये मान्यता हैं कि ऐसा करने से हमें ईश्वर की उस शक्ति को अपने से लगाने का मौका मिलता हैं जो ईश्वरीय शक्ति आरती के दीपक में समाई होती है.



इसके तहत आत्मवंदनम कहते हुए अपनी आत्मा रूपी ईश्वर को जागृत किया जाता है, ताकि आपकी आत्मा हमेशा सकारात्मक प्रकाश से भरी रहे. 
यही आरती जलाने का मुख्य ध्येय भी है. 


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