नई दिल्लीः साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट कस्टोडियल डेथ के मामले में फैसला सुना रही थी. मामले में दोषी ठहराए गए थे महाराष्ट्र पुलिस के 7 पुलिसकर्मी. इन्हें सजा सुनाते हुए कोर्ट ने एक बेहद अहम टिप्पणी की जिसे किसी पर्ची पर मार्कर से लिखकर आंखों के सामने टांक लेना चाहिए. जस्टिस एनवी रामन्ना ने कहा- 'महान शक्ति के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी आती है.’ ऐसे में शक्ति पर नहीं बड़ी जिम्मेदारी पर अधिक ध्यान रखना चाहिए. 


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यह डॉयलॉग स्पाइडर मैन सीरीज फिल्म में भी है और बेहद प्रसिद्ध है. सीरीज में अंकल बेन बने बेंजामिन पार्कर इसे स्पाइडर मैन को समझाते हुए कहते हैं. कोर्ट, फिल्म, महाराष्ट्र पुलिस और ये डॉयलॉग, इन चारों में एक बात कॉमन है कि ये पॉवर की बात करते हैं. भारत में पॉवर को जिगरा कहते हैं, जिगरा पहलवान में होता है और और और.... सुशील कुमार (olympian sushil kumar) एक पहलवान हैं. 


26 मई 1983, सुशील कुमार का जन्मदिन
26 मई 1983. यही दिन है जो पहलवान सुशील (Sushil kumar birthday) की जन्मतिथि के तौर पर दर्ज है. साल बीतते रहने के बाद भी हर साल जब 26 मई की तारीख आती रही होगी तो यह दिन हर उम्र में सुशील कुमार (Sushil kumar birthday) को बहुत रोमांचित करता रहा होगा.



कभी घर पर रहकर तो कभी घर से दूर रहने के बावजूद उन्होंने इसे अपने ढंग से, जैसे चाहा होगा वैसे मनाया होगा. बीते तेरह सालों में उनकी पहचान ओलंपिक पदक विजेता की रही है तो फैन और फॉलोअर्स की शुभकामनाओं से इनबॉक्स भरे रहते होंगे. ये सब देखकर सुशील (olympian sushil kumar) खुद पर गर्व करते रहे होंगे.


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...लेकिन इस 26 मई को ऐसा कुछ भी नहीं हुआ
लेकिन 2021 की 26 मई को ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. अखबारों की सुर्खियां बनीं 'सलाखों के पीछे बीता सुशील का जन्मदिन', 'जन्मदिन के दिन फूट-फूट कर रोये सुशील'. जिस चेहरे को देखकर घर-परिवार ही नहीं पूरा भारत गर्व महसूस करता था, वह आज कपड़े एक टुकड़े के पीछे छुपने की कोशिश कर रहा था.



जिस माथे पर गर्व का तिलक होता था वहां एक आरोप की कालिख लगी है. सुशील (wrestler sushil crime) दोषी हैं कि नहीं यह फैसला अदालत करेगी, लेकिन अगर अपने ही शिष्य, अपने ही जूनियर का खून सुशील के हाथों बह गया है तो फिर यह साबित हो जाएगा कि सुशील अपनी पॉवर की जिम्मेदारी नहीं उठा पाए. चांदी और कांसे के दो तमगों वाले गुरूर ने उन्हें थाना-पुलिस के बीच लाकर चित्त कर दिया. 


रेणु की कहानी का पहलवान
पहलवान की जिम्मेदारी को समझना है तो रेणु की एक कहानी है पहलवान की ढोलक. कहानी में बूढ़ा हो चुका लट्टन सिंह पहलवान महामारी झेल रहे गांव को मानसिक ताकत देता था. वह रात भर ढोल बजाता और ढोल की चिटधा, गिड़ धा, घा तित, तितधा लोगों में हौसला भरती थी कि जब तक पहलवान है, उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता.



पहलवान का मतलब ही होता है पहल करने वाला आदमी. वह रक्षक की भूमिका में होता है. मारने या मार डालने की भूमिका में नहीं. वह सामने वाले को केवल चारों खाने चित कर देता है, उसकी चिता नहीं उठवा देता. 


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पहलवान दारा सिंह को कौन भूला होगा?
कहानी को छोड़ दें तो भी सुशील कुमार (wrestler sushil crime) कोई पहले पहलवान नहीं थे. दारासिंह (Dara Singh) की छवि को अभी भी भुलाया नहीं गया है. पहले कुश्ती में कीर्तिमान गढ़ा, फिर फिल्मों में फलक तक छाए रहे और आखिरी में रामायण सीरियल में अपने आध्यात्मिक गुरु महावीर हनुमान का किरदार भी खुद ही निभाया. इसी समय का एक किस्सा है, जिसे राम का किरदार निभाने वाले अरुण गोविल (Arun Govil) सुनाया करते हैं.



वह कहते हैं कि भले ही बतौर किरदार वह राम के भक्त थे, लेकिन असल में थे तो वह मुझसे बहुत ही सीनियर. कई बार सीन के अलावा भी वह मुझे प्रभु और स्वामी कह दिया करते थे तो मैं झेंप जाता था. बढ़ती जा रही उम्र ने उन्हें घुटनों में दर्द देना शुरू कर दिया था. इसके बावजूद सीन करते हुए वह घुटने मोड़कर ही बैठते थे.


कई रीटेक के बाद सीन फाइनल होता था तो उनका दर्द बढ़ जाता था. निर्देशक सागर साहब (Ramanand Sagar) उन्हें कहते भी कि आप चाहें तो आराम से बैठ जाइए, लेकिन दारा सिंह नहीं माने. वह कहते थे कि अखाड़े की मूर्तियों में गुरु बजरंगबली (Lord Hanuman) तो पैर मोड़कर बैठते हैं. ऐसे नहीं बैठूंगा तो ये रामकहानी लगेगी ही नहीं. यह उनकी विनम्रता ही थी कि जिसने किरदार को जीवंत और अमर कर दिया. 



क्या सुशील कुमार को अपनी ही बिरादरी वाले पूर्वजों से यह विनम्रता नहीं सीख लेनी चाहिए थी. इस लिस्ट में कितने ही नाम और भी मिलेंगें. केडी जाधव को क्या कभी कोई भूल सकता है, जिन्होंने सुशील से दशकों पहले पदक दिलाकर भारत की शान बढ़ा दी थी. 


सुशील कुमार ने गंवा दिया बेहतरीन मौका
दो बार के ओलंपियन सुशील (wrestler sushil kumar) के पास अच्छा मौका था कि वह अर्जुन अवॉर्डी बनने के बाद द्रोणाचार्य अवॉर्ड लेकर भी अपना सम्मान बढ़ा सकते थे. वह देश में कुश्तीबाजों और पहलवानों की ऐसी खेप तैयार कर सकते थे जो आने वाले सालों में पदकों की लाइन लगा देते. खेल हमेशा इसी भावना के साथ जिंदा रहता है.



वह पुलेलागोपी चंद से प्रेरित हो सकते थे, जिनके एक हाथ में अर्जुन अवॉर्ड और दूसरे में द्रोणाचार्य अवॉर्ड है. लेकिन, वही पहली लाइन...  'महान शक्ति के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी आती है.’कहना सही होगा, सुशील अपनी अर्जित शक्ति की जिम्मेदारी नहीं समझ पाए. 


सलाखों के पीछे बीता सुशील का जन्मदिन
सुशील का जन्मदिन 26 मई को था. इस लिहाज से यह लेख एक दिन की देरी से लिखा गया है. खबरनवीसों की दुनिया में यह गुनाह-ए-अजीम है. मगर मुनीर नियाजी की पंक्तियां 'हमेशा देर कर देता हूं मैं' बताती हैं कि देर कर देना हर बार बुरा नहीं होता है. काश 4 मई की तारीख में सब कुछ देरी से ही हुआ होता.



काश! सुशील छत्रसाल स्टेडियम जाने में कुछ देर कर देते. काश! दो लोगों के बीच की बहस कुछ देर कर लेती. लेकिन अब सब कुछ काश! ही है. कल से अब तक 24 घंटे से अधिक हो चुके हैं. बधाइयों से भरे रहने वाले सुशील का इनबॉक्स लगभग खाली ही है. ऐसे माहौल में कोई बधाई दे भी तो क्या ही कहे... अच्छा भी तो नहीं लगता न, लेकिन काश! 


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