What is Jihad: सूरए आले इमरान की आयत नम्बर 19 में एलान हुआ 'इन्नदीना इन्दललाहिल इस्लाम' , 'बेशक अल्लाह के नज़दीक इस्लाम पसंदीदा मज़हब है'. इस्लाम इस दुनिया में हर तरह के ज़ुल्मो सितम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने आया था. लेकिन जैसा हर दौर में हुआ कि हर अहम चीज़ को ग़ैरे अहम बनाया गया. हर मेयारी चीज़ को ग़ैरे मेयारी बनाया गया. हर सही शय का ग़लत इस्तेमाल किया गया. हर बलंदी को पस्ती पर लाया गया. उसी तरह से लफ़्ज़े इस्लाम और मुसलमान का इतना ग़लत इस्तेमाल किया गया कि दुनिया वालों को एक मुसलमान के चेहरे पर इंसान की नहीं दहशतगर्द की तस्वीर नज़र आने लगी. एक मुसलमान के चेहरे पर घर जलाने वाले, ज़ुल्म करने वाले की. सीने पर सिल रख कर कलमा पढ़वाने वाले की तस्वीर दिखाई देती है. 


तफ़रक़े को मिटाने आया था इस्लाम


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ऐसा आख़िर हुआ क्यों?. क्या कभी हमने ये सोचा?.मुहासिबा किया? जायज़ा लिया? इस सवाल का जवाब तलाशा कि जो ख़ैर उम्मत है उस पर ज़ुल्म ज़्यादती और दहशतहगर्दी का इल्ज़ाम क्यों लगने लगा. जो दीन हर तरह की ज़्यादती, इंतेहापसंदी, दहशतगर्दी और ज़ुल्म को मिटाने आया था. जो दीन समाज में फैले हर तरह के तफ़रक़े को मिटाने आया था. जिस मज़हब की किताब क़ुरान ये कहती है कि जिसने एक इंसान को बचाया उसने सारी इंसानियत को बचाया. जिसने एक इंसान का ख़ून बहाया उसने सारी इंसानियत का ख़ून बहाया. 


क़ुरान में इंसानियत का पैग़ाम है


आख़िर उस दीन पर ,उसके मानने वालों पर इतना बड़ा बोहतान क्यों? इतना बड़ा इल्ज़ाम क्यों? क्यों आज इस्लाम और दहशतगर्दी उनवान पर दुनियाभर में बहस हो रही है? क़ुरान का पैग़ाम तो इंसानियत का पैग़ाम है. फिर अल्लाहो अकबर के नारों के साथ दुनिया के दूसरे मुल्क में लोगों के गले क्यों काटे जा रहे हैं? क्यों कलमा पढ़ने वाले फ़िदाईन बन रहे हैं? ये मेरे नबी की तालीम तो नहीं है. ये कुरान की तालीम तो नहीं है.


हक़ीक़ी बुज़ुर्गे होते हैं दीन के रहनुमा


अगर इसका मुकम्मल जायज़ा लेंगे तो बहुत आसानी से इन सवालात के जवाब मिल जाएंगे कि हम दरअसल क़ुरान ओ सुन्नत पर अमल कर ही नहीं रहे हैं. हम नबी-ए-अकरम के नक़्शे क़दम की इत्तेबा ही नहीं रहे हैं. हम अइम्मा और असहाब के रास्ते पर चल ही नहीं रहे हैं. हम अहलेबैत और बुज़ुर्गाने दीन की तालीम अपना ही नहीं रहे हैं. हम हर मुसलमान बादशाहों को तो अपना लीडर मान लेते हैं. लेकिन किसी सच्चे और हक़ीक़ी बुज़ुर्गे दीन के किरदार को अपनी ज़िंदगी का रहनुमा क़रार नहीं देते. 


मसलकी एख़्तेलाफ़ात में उलझ गए मुसलमान


अगर बर्रे सग़ीर के तनाज़ुर में देखा जाए तो हमने मुसलमान बादशाहों को अपना लीडर तो माना लेकिन क़ुरान ओ इस्लाम की तालीमात आम करने वाले ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ को अपनी ज़िदंगी का आईडियल बनाने से पहले मसलकी एख़्तेलाफ़ात में उलझ गए. हम इस बात पर तो लड़ बैठते हैं कि फ़ला मुसलमान हाकिम के नाम पर रखे गए शहरों और सड़कों के नाम क्यों बदले जा रहे हैं. लेकिन ग़रीब नवाज़ और महबूबे इलाही की बारगाह में हाज़िरी देने वालों पर ताने मार रहे हैं. जब तक हम असल क़ुरान, सुन्नत और दीन से दूर रहेंगे हमे इस तरह की दुशवारियों का सामना करना पड़ेगा.  


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हम ये बात तो हिंदुस्तान के तनाज़ुर में कह रहे हैं. लेकिन सारी दुनिया में उम्मते मुसलेमा का हाल यही हो गया. टुकड़ों में, मसलकों में, मुसल्लों में, फ़िरक़ों में, फ़िक्रों में, नज़रियात में इतने बंट चुके हैं कि एक दूसरे के ख़िलाफ़ फतवे दिए जाते हैं. हर फ़िरक़ा दूसरे फ़िरक़े को काफ़िर कहता है. जहन्नमी कहता है. हर चौराहे पर एक मौलवी अपना एक अलग फिरक़ा लिए खड़ा है. ये फ़ला फ़िरक़े के इमाम साहब हैं, इनसे न मिलिए. ये फ़ला फ़िरक़े की मस्जिद है यहां नमाज न पढ़िए. इस बस्ती में फ़लां फ़िरक़े के लोग रहते हैं यहां मत जाइए. अब कौन इन फ़िरक़ा-फ़िरक़ा खेलने वालों से पूछे कि बताओ कि पैग़म्बरे आज़म किस फ़िरक़े के थे. सहाबा-ए-किराम का फ़िरक़ा कौन सा था. इमाम अली किस फ़िरक़े से ताल्लुक़ रखते थे.


ख़ूरेज़ी और क़ुरान में आग और पानी जैसा बैर है


हमारे इन्ही आमाल का नतीजा है कि दुनियाभर में मुसलमानों को शक की नज़र से देखा जा रहा है. क़ुरान पर हर रोज़ नए बोहतान लग रहे हैं. यह साबित किया जा रहा है कि क़ुरान का रिश्ता ख़ूंरेज़ी से है. जबकि ख़ूरेज़ी और क़ुरान में आग और पानी जैसा बैर है. जहां तशद्दुद हो, ख़ूरेज़ी हो, ज़ुल्म हो, ज़्यादती हो वहां इस्लाम और क़ुरान का तसव्वुर नहीं किया जा सकता. क़ुरान में इंसानी जान के एहतेरामो वक़ार, अम्नो इत्मीनान के साथ ज़िदंगी गुज़ारने के हक़ को अव्वलियत दी गई है. दुनिया की बड़ी-बड़ी तहज़ीबों और सल्तनतों के अंदर इंसानी जान की नाक़द्री की जाती थी. ख़ुद अरब में हालात ये थे कि लोग अपनी बेटियों को ज़िंदा दफ़्न कर देते थे. इंसानियत का मज़ाक उड़ाया जाता था. जेहालत बामे उरूज पर थी. ऐसे माहौल और तहज़ीबों को मुहज्ज़ब बनाया है क़ुरानी तालीमात ने.


क़ुरान की सही तालीम को अपनाना वक्त की जरूरत


लिहाज़ा इस वक़्त की सबसे बड़ी ज़रुरत है कि क़ुरान की सही तालीम को अपनाया जाए और आम किया जाए. ज़रुरत इस बात की है कि दुनिया को ये बताया जाए कि क़ुरान की तालीमात ज़ुल्मों तशद्दुद की सख़्ततरीन मुख़ालिफ़. अपने आमाल , किरदार, सीरत, बसीरत और अफ़क़ार को तालीमाते क़ुरान की रौशनी में ढाला जाए. हां ऐसा करना सख़्त है क्योंकि सच्चाई की राह में रुकावटें बहुत आती हैं.


इंसानियत की हमदर्दी का जज़्बा पैदा करें


बड़ा आसान है अल्लाहो अकबर कह कर किसी मज़लूम का गला काट देना. बहुत मुशकिल है किसी को ज़िदंगी देना, किसी की जान बचाना. लेकिन मुशकिल रास्तों पर ही सच्चाई का पता मिलता है. ऐसे ही कोई इंसान नहीं बनता. इंसान बनने के लिए इंसानियत की हमदर्दी का जज़्बा दिल में पैदा करना पड़ता है. वरना इंसान की शक्ल में हम हैवान ही रहेंगे. अल्लामा इक़बाल ने कहा था.


'ये शहादत गहे उल्फ़त में क़दम रखना है
लोग आसान समझते हैं मुसलमा होना'


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