AMU के बानी सर सैयद अहमद खां का लड़कियों की तालीम पर क्या था नज़रिया
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AMU के बानी सर सैयद अहमद खां का लड़कियों की तालीम पर क्या था नज़रिया

सैयद अहमद खां मानते थे कि लड़कियों को उतनी ही तालीम दी जानी चाहिए कि जिससे वे घर के काम और लोगों की अदब करना सीख सकें और मर्दों की औरतों पर हुकूमत बनी रहे.

सर सैयद अहमद खान

नई दिल्ली. आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का यौम-ए तसीस है. 24 मई, 2021 को इस यूनिवर्सिटी ने अपने 101 साल मुकम्मल कर लिए हैं. लेकिन इस यूनिवर्सिटी का वजूद इससे भी काफी पुराना है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, मुस्लिमों की तालीम के पैरोकार सर सैयद अहमद खां की ही देन है. हालांकि यह आज भी बहस का मौजूं है कि जब इस यूनिवर्सिटी का कयाम हुआ , तो इसे किस वर्ग के मुस्लिमों की पढ़ाई के सपनों को पूरा करने के लिए खोला गया था. सर सैयद अहमद खां, जिन्होनें ज़िन्दगी भर मुस्लिमों की पढ़ाई और अंग्रेजियत का खुलकर समर्थन किया. उन्होंने पूरे मुल्क में मुस्लिमों की तालीम के लिए स्कूल खोले. साल 1859 में उन्होंने मुरादाबाद में गुलशन स्कूल खोला. इसके बाद उन्होंने साल 1863 में गाजीपुर में विक्टोरिया स्कूल खोला. उन्होंने साल 1867 में मुहम्मडन एंग्लो-ओरियंटल स्कूल खोला. बाद में आगे चलकर यह स्कूल कॉलेज में तब्दील हो गया. सर सैयद अहमद खां के इंतकाल के बाद साल 1920 में इस कॉलेज का नाम अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी रख दिया गया.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जो आज देश में मुस्लिमों के आला तालीम शिक्षा के लिए बेहतरीन शिक्षण संस्थान माना जाता है. साल 2019 तक इसे माइनॉरिटी यूनिवर्सिटी का दर्जा हासिल था. साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी का दर्जा देने से इनकार कर दिया.

किस वर्ग के मुसलमान की शिक्षा के पैरोकार थे सर सैयद
आज जो यूनिवर्सिटी मुस्लिम समाज के लिए एक बेहतरीन तालीमी मरकज़ बनकर उभरी है, इसकी नींव रखने वाले सर सैय्यद अहमद खां क्या सभी मुस्लिमों की पढ़ाई को बढ़ावा देते थे? सर सैयद अहमद खां मुस्लिमों की पढ़ाई को बढ़ावा तो देना चाहते थे, लेकिन सिर्फ आला खानदान से आने वाले मुस्लिमों की ही. उनका यह नज़रिया इस बात पर मुहर लगाता था कि मुस्लिमों की शिक्षा का पैरोकार उस वर्ग में सामाजिक समानता से सरोकार नहीं रखता था. 

सैयद के मन में दो मुसलमान बसते थे. उनके नज़रिए से झलकता था कि कयामत के दिन खुदा के सामने सिर्फ निचले तबके के मुसलमान रहम की भीख मांगेंगे. वह यह मानते थे कि कयामत के दिन खुदा का कहर सिर्फ निचले तबके के मुसलमानों पर बरपेगा. सैयद कहते थे, “ कयामत के दिन जब खुदा मुसलमान तेली, जुलाहों, अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे मुसलमानों को दंड देने लगेगा तो प्रार्थी सामने हो कर याचना करेगा कि खुदा तआला न्याय कीजिए.” 

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पसमांदा मुसलमानों पर क्या सोचते थे
उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में एक मदरसे में निचले तबके के मुसलामानों के बच्चे पढ़ते थे. एक बार जब ‘मदरसा अंजुमन-ए-इस्लामिया’ के कयाम के लिए सर सैयद को बरेली बुलाया गया. सैयद वहां नहीं गए और उन्होंने उस पते पर वापस एक ख़त लिखा, जिस पते से आई चिट्ठी से उन्हें स्थापना दिवस पर बुलाया किया गया था.  इस पत्र में उन्होंने लिखा, “आप ने अपने एड्रेस में कहा है कि हमें दूसरी कौमों (समुदाय) के इल्म एवं तालीम को पढ़ाने में कोई झिझक नहीं है. इस जुमले से अंग्रेजी पढ़ने की तरफ इशारा झलकता है. लेकिन मैं कहता हूं ऐसे मदरसे में जैसा कि आप का है, अंग्रेजी पढ़ाने का ख्याल एक बहुत बड़ी गलती है. इसमें कोई शक नहीं कि हमारे कौम में अंग्रेजी जुबान एवं अंग्रेजी तालीम की निहायत ही ज़रुरत है. हमारे समुदाय के सरदारों एवं शरीफों की ज़िम्मेदारी है कि अपने बच्चों को अंग्रेजी जुबान की ऊंची तालीम दिलवाएं. मुझ से ज्यादा कोई आदमी ऐसा नहीं होगा जो मुसलमानों में अंग्रेजी तालीम और इल्म को बढ़ावा देने का ख्वाहिशमंद और हिमायती हो. लेकिन सभी कामों के लिए वक़्त और हालात को देखना भी ज़रूरी है. उस वक़्त मैंने देखा कि आपकी मस्जिद के सेहन में, जिसके नज़दीक आप मदरसा बनाना चाहते हैं, 75 बच्चे पढ़ रहे हैं. जिस वर्ग एवं जिस स्तर के यह बच्चे हैं उनको अंग्रेजी पढ़ाने से कोई फायदा नहीं होने वाला. उनको उसी पुरानी तालीमी निजाम में ही मसरूफ रखना उनके और मुल्क के मफाद में ज्यादा अच्छा है. बेहतर यह है कि आप ऐसी कोशिश करें कि उन लड़कों को कुछ पढ़ना-लिखना और ज़रुरत के मुताबिक गुणा-गणित आ जाये और ऐसी छोटी-छोटी पत्रिकाएं पढ़ा दी जाएं जिन से नमाज और रोज़े की बुनियादी बातें जिनसे रोजाना सामना होता है और इस्लाम से जुडे अकीदे का पता चल जाये.”

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इस ख़त के ज़रिये यह समझा जा सकता है कि सर सैयद निचले तबके के मुसलमानों के लिए पढ़ाई को जरूरी नहीं समझते थे. उनका मानना था कि उस वर्ग के एक मुसलमानों को उतनी ही तालीम दी जानी चाहिए कि वे नमाज पढ़ सकें और गणित का गुण-भाग जान सकें. 

सैयद साहब की नजर में औरतों की तालीम की अहमियत
मर्द और औरत जो इस समाज में बराबरी के हकदार हैं. सैयद की नजर में उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं मिलना चाहिए था. लड़कियों की तालीम को लेकर उनके विचार काफी अलहदा थे. वे लड़कियों को उतनी ही तालीम देने के लायक समझते थे, कि मर्दों की औरतों पर हुकूमत बनी रहे. लड़कियों को तालीम दिए जाने के के बारे में सैयद का मानना था कि इतनी ही तालीम उनके दीन और दुनिया दोनों की भलाई के लिए काफी थी और अब भी यही तालीम काफी है. मैं नहीं समझता कि औरतों को अफ्रीका और अमरीका का भूगोल सिखाने और अलजेब्रा, ज्योमेट्री के कवायद बताने और अहमद शाह और मुहम्मद शाह और मरहट्टों और देहलियों की लड़ाईयों के किस्से पढ़ाने से कोई ख़ास फायदा है. सैयद मानते थे कि लड़कियों को उतनी ही तालीम दी जानी चाहिए कि जिससे वे घर के काम और लोगों की अदब करना सीख सकें. 
वे कहते थे, “औरतों की तालीम, नेक अखलाक, नेक खसलत(अच्छी आदत), खाना-दारी के उमूर (घर के काम), बुजुर्गों का अदब, पति की मोहब्बत, बच्चों की परवरिश, धर्म का जानना होनी चाहिए. इसका मैं हामी हूं, इसके सिवा और किसी तालीम से बेजार हूं.”  

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बदर शाही निज़ाम के थे हिमायती 
सैयद साहब ने जब भी लड़कियों की शिक्षा की बात की, तो वे उसके माध्यम से भी मर्दों को ही मजबूत करना चाहते थे. उनकी नजर में लड़कियों को ऐसी पढ़ाई की ज़रूरत बिल्कुल नहीं थी, जिससे उन्हें उनके वजूद का एहसास हो. सैयद साहब लड़कियों की तालीम को लेकर कहते थे, “ हमारी मंशा यही है कि ये तालीम जो हम दिला रहे हैं, लड़कों की नहीं है बल्कि लड़कियों की है जिनके वो बाप होंगे.”  वे मर्दों के बिना औरत के वजूद को पूरी तरह से नकार देते थे. उनका कहना था, “ जब मर्द लायक हो जाते हैं, औरतें भी लायक हो जाती हैं. जब तक मर्द लायक न हों औरतें भी लायक नहीं हो सकतीं. यही सबब है कि हम कुछ औरतों की तालीम का ख्याल नहीं करते हैं.”  वे मर्द को औरत का खुदा मानते थे. उनका मानना था कि इस जमीन पर एक औरत का खुदा उसका मर्द ही है और हर औरत को अपने मर्द की अकीदत करनी चाहिए. सैयद साहब का नज़रिया औरतों के वजूद को सिरे से नकारता था. वे औरतों की तालीम को लेकर मानते थे कि खुदा की बरकत जमीन से नहीं आती बल्कि आसमान से उतरती है. सूरज की रौशनी भी नीचे से नहीं आती बल्कि ऊपर से आती है. इसी तरह मर्दों की तालीम से औरतों की तालीम होती है.”

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