Gujrat Election: सियासत में क़िस्मत आज़माने का हक सभी है, हालांकि सभी की वजहें अलग-अलग हो सकती हैं. किसी का शौक़ किसी को सियासत का हिस्सा बना देता है तो किसी को सियासत विरासत में मिल जाती है. लेकिन कुछ लोग हैं जो मजबूरी में सियासत का दामन थाम लेते हैं. आज हम आपको बताएंगे एक ऐसे शख़्स के बारे में जो पेशे से मज़दूर हैं और मजबूरी के चलते सियासत के मैदान में उतरे हैं. 


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इनका नाम है महेंद्र पाटनी, जो गुजरात विधानसभा में अपनी किस्मत आज़माने निकले हैं. ये मामला ना सिर्फ़ मजबूरी में सियासी रास्ता अपनाने का है बल्कि ज़मानत की रक़म की अदायगी के तरीक़े ने इसे चर्चा का मौज़ू भी बना दिया है. दरअसल गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान ये अजीबो ग़रीब मामला सामने आया है. महेंद्र पाटनी नाम का एक मज़दूर जो इस चुनाव में एक आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर मैदान में है, उसने ज़मानत के तौर पर 10 हज़ार की रक़म सिक्कों की शक़्ल में चुनाव कमीशन को दी है. इन सिक्कों की रक़म को ज़मानत की रकम के तौर पर हासिल करने के बाद आयोग के अफ़सरान भी परेशान हो गए.


1-1 रुपये लेकर इकट्ठा किए 10 हजार रुपये
दरअसल महेंद्र पाटनी से तीन साल पहले गांधीनगर में महात्मा मंदिर के पास एक झुग्गी बस्ती में मौजूद 521 झुग्गियों के विस्थापित निवासियों ने अपने नुमाईंदे (प्रतिनिधि) के तौर पर चुनाव लड़ने की ग़ुज़ारिश की थी. जिसके बाद महेंद्र पाटनी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया और आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर नॉमिनेशन दाख़िल कर दिया. जानकारी के मुताबिक़ पाटनी ने अपने हामियों (समर्थकों) से दान के तौर पर ये सिक्के जुटाए हैं. उन्होंने समर्थकों से एक-एक रुपये के सिक्के लिए और इस तरह से कुल मिलाकर उन्होंने 10,000 रुपये जुटाए. इसके बाद इसे ज़मानत राशि के तौर पर इस हफ्ते की शुरूआत में इलेक्शन कमिशन के पास जमा कराया ताकि वो रियासत में अगले महीने होने जा रहा असेंबली चुनाव लड़ सकें.


क्यों आए महेंद्र पाटनी सियासत में?
अब बात करते हैं महेंद्र के सियासत में आने की. महेंद्र पाटनी के मुताबिक़ तीन साल पहले गांधीनगर में एक झुग्गी बस्ती में मौजूद 521 झुग्गियों के विस्थापित निवासियों ने उनसे अपील की कि वो उनके प्रतिनिधि के रूप में चुनाव लड़ें. महेंद्र पाटनी बताते हैं कि वो बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं और वो मज़दूर परिवार से ताल्लुक़ रखते हैं. उनके इलाक़े में 521 झुग्गियां थी, जिन्हें होटल बनाने के लिये उजाड़ दिया गया. उनमें से कई लोगों की नौकरी चली गयी और वो लोग पास के इलाक़े में चले गये, लेकिन वहां न तो पानी और ना ही बिजली थी. दरअसल पाटनी उसी बस्ती में रहने वाले मज़दूर हैं, जिसके बाशिंदों को दो बार विस्थापित किया गया. पहली बार ऐसा 2010 में किया गया, जब सरकार ने महात्मा गांधी को वक़्फ़ एक दांडी कुटीर म्यूज़ियम की तामीर करवाई. वहीं, दूसरी बार 2019 में झुग्गी बस्ती में रहने वालों को फिर से पास के इलाक़ में जाने के लिए मजबूर किया गया, ताकि वहां होटल की तामीर की जा सके.


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