बंद करिए ये लिखना कि 'लड़की की इज्जत लूट ली गई'
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बंद करिए ये लिखना कि 'लड़की की इज्जत लूट ली गई'

बेटियां घरों में सुरक्षित नहीं हैं. बेटियां सड़कों, स्कूलों, बाज़ारों, अस्पतालों कहीं सुरक्षित नहीं हैं. कहीं न कहीं कोई वहशी दरिंदा ताक में बैठा होता है कि कब वो किसी लड़की को अपना निशाना बना ले.

चंडीगढ़ की घटना में बच्ची के साथ उसके ही मामा ने लगातार बलात्कार किया. (प्रतीकात्मक फोटो)

निदा रहमान

सुबह अख़बार हाथ में आते ही खबर देखी, चंडीगढ़ में 10 साल की बलात्कार पीड़ित बच्ची ने एक बेटी को जन्म दिया है. बच्ची को पता ही नहीं था कि उसके साथ क्या हुआ? उसका पेट लगातार बढ़ता क्यों जा रहा था. माता-पिता को जब बच्ची के गर्भवती होने की खबर लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी. सुप्रीम कोर्ट से अबॉर्शन की इजाज़त मांगी तो कोर्ट ने मेडिकल कंडीशन को देखते हुए अपील को ठुकरा दिया, जिसका नतीजा ये हुआ कि दस साल की बच्ची मां बन गई.

बच्ची के साथ उसके ही मामा ने लगातार बलात्कार किया. इस मामले का खुलासा तब हुआ जब बच्ची के पेट में दर्द हुआ. डॉक्टर ने बताया कि बच्ची गर्भवती है. बलात्कार का आरोपी मामा जेल में है और बच्ची अब अस्पताल में. परिवार के लिए ये किसी आपदा से कम नहीं है. उनकी बेटी की ज़िंदगी को ऐसा नासूर मिला है जिसका भरना नामुमकिन है.

10 साल की बच्ची को उसके माता-पिता ने बताया कि पेट में दर्द की वजह से उसका ऑपरेशन किया गया है. पीड़ित बच्ची के माता-पिता ने नवजात का मुंह देखने से भी इंकार कर दिया है और वह उसकी परवरिश भी नहीं करेंगे. नवजात बच्ची अब सरकार की ज़िम्मेदारी है.

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10 साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया गया, उसे पता नहीं उसके साथ क्या हुआ था और आज भी क्या हो रहा है. शायद कुछ साल बाद जब उसे बलात्कार, गर्भ, मां जैसे शब्दों के मायने पता चलें, तो वो खुद से नफ़रत करने लगे. क्या वह बड़ी होकर ये सब भूल पाएगी. या सामान्य जिंदगी जी पाएगी. वो नवजात कल ही दुनिया में आई है उसकी पहचान क्या होगी? क्या होगा उसका वजूद? क्या वो बलात्कार का सबूत बनकर रह जाएगी. सवाल बहुत सारे हैं और जवाब कहीं तैर रहे हैं, जिन्हें तलाशने की ज़रूरत है.

ये पहला मामला नहीं है, जब किसी बच्ची को उसके करीबी रिश्तेदार ने अपना शिकार बनाया हो. हम रोज़ाना ऐसी खबरें पढ़ते हैं, लेकिन फिर भूल जाते हैं. ये खबरें भूलने वाली खबरें नहीं हैं बल्कि सबक लेने वाले मामले हैं. समाज भले ही बेटियों को देवी का स्वरूप मानने का दावा करता हो लेकिन सच्चाई यही है कि बेटियां सुरक्षित नहीं हैं.

बेटियां घरों में सुरक्षित नहीं हैं. बेटियां सड़कों, स्कूलों, बाज़ारों, अस्पतालों कहीं सुरक्षित नहीं हैं. कहीं न कहीं कोई वहशी दरिंदा ताक में बैठा होता है कि कब वो किसी लड़की को अपना निशाना बना ले. रातें तो सुरक्षित हैं ही नहीं. सरेआम दिन में भी बच्चियां नहीं बच पाती हैं. 15 अगस्त को आज़ादी का जश्न मनाकर लौट रही 12 साल की बच्ची के साथ चंडीगढ़ में बलात्कार होता है. क्या वो बच्ची अब कभी आज़ादी का जश्न मनाएगी? क्या उसे 15 अगस्त का दिन खुशी का दिन कभी लगेगा. नहीं वह तमाम उम्र इस दिन को कोसेगी और दुआ करेगी कि काश, उसकी ज़िंदगी में 15 अगस्त जैसी कोई तारीख़ होती ही नहीं.

शुक्रवार को दिल्ली के एक फाइव स्टार के होटल से खबर आई कि सिक्योरिटी मैनेजर ने महिला से छेड़छाड़ की. घटना सीसीटीवी में क़ैद हो गई, जिसकी वजह से इसका खुलासा हुआ. हालांकि होटल प्रबंधन ने मामले को दबाने की कोशिश ज़रूर की.

इंसान के रूप में बैठे गिद्ध अपने शिकार पर मौका देखते ही टूट पड़ता है. लड़कियां खुद तो सचेत रहने की कोशिश करती हैं लेकिन क्या समाज की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वो हमें सुरक्षित माहौल मुहैया कराए. जैसे लड़कों के लिए रातें सुरक्षित हैं लड़कियों के लिए भी सड़कें सेफ़ हों.

बलात्कार को लेकर समाज की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि इसे लड़की और परिवार की इज्ज़त से जोड़ दिया गया है. बलात्कार एक ऐसा अपराध है जिसमें अपराधी या आरोपी के साथ नहीं, बल्कि पीड़ित के साथ भेदभाव किया जाता है. बहुत से मामले बदनामी के डर से सामने नहीं आते हैं. छेड़छाड़ के ज्यादातर मामलों में परिवारवाले ही लड़की का साथ नहीं देते हैं कि लोग क्या कहेंगे. समाज को क्या मुंह दिखाएं. कौन उससे शादी करेगा, टाइप बातें की जाती हैं. यही हमारे समाज का सच है कि वो बलात्कार पीड़ित लड़की को स्वीकारता नहीं है. उसके साथ ऐसा व्यवहार करता है कि सारा दोष उसका है.

बलात्कार के बाद पीड़ित कोलेकर आने वाले बयान भी इसी समाज की सोच का हिस्सा होते हैं कि लड़की है तो रात क्यों निकली? लड़की ने छोटे कपड़े पहने होंगे या फिर लड़की चरित्रहीन होगी. हालांकि इन सारी बातों का बलात्कार से कोई संबंध है ही नहीं. क्योंकि जो 10 साल की बच्ची मां बनी उसको उसके मामा ने ही अपना शिकार बनाया. वो बच्ची तो सड़क, रात, चरित्र किसी के मायने तक नहीं जानती थी.

लोगों को बलात्कार को लेकर सोच बदलनी होगी. समाज को यही मानना होगा कि एक अपराधी है और दूसरा पीड़ित. औरत को अबला, बेचारी नहीं मानना होगा, क्योंकि उसके साथ अपराध हुआ है. उसके साथ कोई जबर्दस्ती करता है तो वो पीड़ित हुई, न कि आरोपी. मीडिया को भी अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए इस तरहकी हेडलाइन या खबरों से बचना चाहिए, जिसमें वह लिखते हैं कि लड़की की इज्जत लूट ली गई... ये निहायत ही घटिया लाइन है. वास्तव में बलात्कार से उसके वजूद का एक हिस्सा ज़रूर ज़ख्मी होता है, लेकिन पूरा वजूद ज़िंदा रहता है. बलात्कार पीड़ित बच्चियों, लड़कियों को लेकर सोच बदलने की ज़रूरत है तभी बलात्कार पीड़ित खुलकर सामने आएंगी और अपनी ज़िंदगी सामान्य तरीके से जी सकेंगी. उम्मीद है कि 10 साल की मासूम बच्ची जो अब मां बन चुकी है वह अपना भविष्य संवारेगी और समाज की सोच में बदलाव का कारण बनेगी.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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