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हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन ने हिंसक रूप अख्तियार कर लिया है। खट्टर सरकार के जाट नेता व मंत्री, पुलिस और सेना को निशाना बनाते हुए यह आंदोलन अब पूरी तरह से समाज विरोधी रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। पूरे प्रदेश में जातीय टकराव की खतरनाक स्थिति बन गई है। निश्चित रूप से इस आंदोलन ने एक साथ कई सवाल खड़े किये हैं? पहला ये कि जाट आरक्षण आंदोलन किसी साजिश का हिस्सा तो नहीं है? क्या जाटों ने आंदोलन की परिभाषा को बदल दिया है? और अंतिम सवाल यह कि आंदोलन का इतने कम समय में इतना हिंसक रूप अख्तियार कर लेना सरकारी मशीनरी की विफलता नहीं है?
दरअसल जाटों का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता में समुह बनाकर खेती करने वालों से लेकर सत्ता सुख के लिए राजनीति के दौर में समूह बनाकर ब्राहमणवाद और पूंजीवाद से लड़ने और मरने तक का है। इस लेख को लिखने के दौरान जब जाटों के बारे में कुछ तथ्य ढूंढने निकला तो एक बड़ी ही रोचक कहानी से रू-ब-रू हुआ--
जाट ने एक दिन भगवान से कहा : मुझे खुशियां दे दे!
भगवान बोले : ठीक है, पर सिर्फ चार बार ही दूंगा।
वे चार बार तू बता?
जाट ने कहा : ठीक है, गर्मियों, सर्दियों, बरसात और वसंत में।
भगवान हैरान रह गए! और बोले : नहीं, सिर्फ तीन बार दूंगा।
जाट ने कहा : ठीक है, आज, कल और परसों दे दे।
भगवान फिर हैरान रह गए और बोले : सिर्फ दो बार ही दूंगा।
जाट ने कहा : ठीक है, दिन और रात दे दे।
भगवान फिर से हैरान रह गए! और बोले : सिर्फ एक दिन ही दूंगा।
जाट ने कहा : हर दिन।
फिर भगवान हंसने लगे और बोले : रै जाट, तेरे रहेंगे हमेशा ठाठ।
कहने का मतलब यह कि आप कुछ भी कीजिए, लेकिन जाट के ठाठ में किसी तरह की कोई कमी आई तो जाट बिरादरी इसे कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता। इस छोटी सी कहानी को पढ़ने के बाद मैं क्या, शायद आप भी इस नतीजे पर जरूर पहुंचे होंगे कि हरियाणा में कहीं न कहीं जाट के ठाठ में सरकार या सियासत के स्तर पर दखलंदाजी हुई है जो उसे नागवार गुजरा। आरक्षण की मांग तो एक बहाना भर है, एक साजिश भर है। असली कहानी तो कुछ और ही है। हरियाणा के सियासी पंडित बताते हैं कि असली निशाना तो जाटों के गढ़ में मनोहर लाल खट्टर के रूप में गैर जाट मुख्यमंत्री हैं।
आरक्षण मांग रही जाट समुदाय का यह आंदोलन इतना बड़ा और हिंसक हो जाएगा, इसका अंदाजा हरियाणा की खट्टर सरकार को भी नहीं रहा होगा। कहीं न कहीं इस हिंसक आंदोलन को सरकार की विफलता के तौर पर भी देखा जा रहा है। सरकार की इंटेलिजेंस यह पता लगाने में पूरी तरह से विफल रही कि इतने बड़े पैमाने पर आंदोलन की तैयारी है क्योंकि इतना बड़ा आंदोलन एक-दो दिनों की कवायद तो नहीं हो सकती है। इसके लिए काफी लंबा वक्त लगा होगा। गांव-गांव में जाट नेताओं ने बैठकें की होंगी और आंदोलनकारियों को सर पर कफन बांधकर निकलने के लिए ब्रेनवाश भी किया गया होगा।
दरअसल, पिछली हुड्डा सरकार का आरक्षण देने का फैसला कोर्ट के आदेश पर रद्द हो गया था। इसके बाद से जाट समुदाय खट्टर सरकार पर नया रास्ता तलाशने का दबाव बढ़ा रही थी। लेकिन खट्टर सरकार को यह समझ में नहीं आया कि वह जाटों को कैसे मनाएं। हरियाणा में 30 प्रतिशत आबादी रखने वाली जाट बिरादरी अपने लिए ओबीसी कैटेगरी में आरक्षण चाहती है। और यह संभव नहीं है।
हुड्डा सरकार ने 2012 में स्पेशल बैकवर्ड क्लास (एसबीसी) के तहत जाट, जट सिख, रोड, बिश्नोई और त्यागी समुदाय को आरक्षण दिया। यूपीए सरकार ने भी 2014 में हरियाणा समेत नौ राज्यों में जाटों को ओबीसी में लाने का ऐलान किया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को पिछड़ा मानने से इनकार कर यूपीए सरकार का आदेश रद्द कर दिया। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद 19 सितंबर 2015 को खट्टर सरकार को भी जाटों सहित पांच जातियों को आरक्षण देने की अधिसूचना को वापस लेना पड़ा। यह अधिसूचना हुड्डा सरकार के वक्त जारी हुआ था। इसके बाद से जाट समुदाय खट्टर सरकार पर नया रास्ता तलाशने का दबाव बना रही थी।
हरियाणा में कुल 67 प्रतिशत आरक्षण पहले से ही लागू है। अनुसूचित जाति को 20 प्रतिशत, बैकवर्ड क्लास-ए को 16 प्रतिशत, बैकवर्ड क्लास-बी को 11 प्रतिशत, स्पेशल बैकवर्ड क्लास को 10 प्रतिशत और आर्थिक रूप से बैकवर्ड क्लास-सी को 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। जाट नेता अपनी बिरादरी के लिए अब ओबीसी कैटेगरी में आरक्षण चाहते हैं। लेकिन हरियाणा सरकार इसपर राजी नहीं है। कहने का तात्पर्य कि आरक्षण का जो गणित है वह जाट आरक्षण आंदोलन के नेताओं को भी पता है कि यह संभव नहीं है लेकिन वह इसे भावनात्मक मुद्दा बनाकर गैरजाट मुख्यमंत्री को सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं। जाट बहुल प्रदेश में कोई गैरजाट नेता मुख्यमंत्री बन जाए यह जाट समुदाय को पच नहीं रहा है। इसलिए जाट आरक्षण आंदोलन नहीं एक साजिश है कहने या मानने में कोई संदेह नहीं है।
जहां तक आंदोलन की अवधारणा की बात है तो इस कसौटी पर भी जाट आरक्षण आंदोलन को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। आंदोलन समाज और देश के हित में होता है। यह आंदोलन की पहली शर्त होती है। लेकिन जाट आरक्षण आंदोलन से किस समाज और देश का भला हो रहा है? खुद जाट समाज के लिए भी यह आंदोलन जानलेवा साबित हो रहा है। लोगों की जानें जा रही हैं। सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। पीने का पानी और दूध का संकट पैदा हो गया है। लोग कहीं आ-जा नहीं सकते हैं। स्कूल कॉलेज, सरकारी दफ्तर सब बंद हो गए हैं। खाने-पीने के जरूरी सामान नहीं मिल रहे हैं। पेट्रोल पंप, सरकारी कार्यालय, सर्किट हाउस, मंत्रियों के घर, रेलवे स्टेशन, पुलिस चौकी और सरकारी व सार्वजनिक वाहनों में आग लगाई जा रही है। पूरे प्रदेश में अराजकता का माहौल है।
बड़ा सवाल यह है कि संवैधानिक स्थिति एवं सामाजिक औचित्य को दरकिनार कर विपक्ष में रहते हुए देश और प्रदेश की तमाम सियासी पार्टियां आरक्षण जैसी मांगों को हवा देती हैं और सत्ता में आने पर उसकी कीमत चुकाती हैं। यह सवाल उठाने का साहस कोई राजनीतिक दल नहीं कर पा रहा है कि क्या आरक्षण ही तमाम आर्थिक-सामाजिक कठिनाइयों का समाधान है? गुजरात में पटेल समुदाय आरक्षण की मांग करे, हरियाणा में जाट समुदाय आरक्षण की मांग करे तो इससे ज्यादा हास्यास्पद बात कुछ और हो नहीं सकती। इसलिए आज जरूरत है इस तरह की मांगों से प्रेरित आंदोलन की रणनीति या मंशा को सरकार समझे और समय रहते इसका उचित समाधान करे।