इंदिरा गांधी ने भारत में इमरजेंसी क्‍यों लगाई?
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इंदिरा गांधी ने भारत में इमरजेंसी क्‍यों लगाई?

अरुण जेटली ने चार दशक पहले के इतिहास के इस काले अध्‍याय को याद करते हुए फेसबुक पर लिखा है, ''यह इस घोषित नीति के आधार पर एक अनावश्यक आपातकाल था कि इंदिरा गांधी भारत के लिए अपरिहार्य थीं और सभी विरोधी आवाजों को कुचल दिया जाना था.''

25-26 जून, 1975 की मध्‍य रात्रि को देश में आपातकाल लगा दिया गया और विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया.(फाइल फोटो)

नई दिल्‍ली: 1971 के आम चुनाव में 'गरीबी हटाओ' के नारे के साथ प्रचंड बहुमत (518 में से 352 सीटें) हासिल करने वाली इंदिरा गांधी ने जब उसी साल के अंत में पाकिस्‍तान को युद्ध में शिकस्‍त दी और बांग्‍लादेश दुनिया के नक्‍शे पर आया तो किसी दौर में 'गूंगी गुडि़या' कही जाने वाली इंदिरा गांधी को 'मां दुर्गा' कहा गया. उनको 'आयरन लेडी' कहा गया. उसी साल उनको भारत रत्‍न से भी नवाजा गया. लेकिन अगले कुछ वर्षों के भीतर ही इंदिरा गांधी की सत्‍ता का इकबाल जाता रहा. लिहाजा 25-26 जून, 1975 की दरम्‍यानी रात को देश में आपातकाल (इमरजेंसी) की घोषणा कर दी गई.

  1. इमरजेंसी को भारतीय लोकतंत्र का सबसे विवादित दौर कहा जाता है
  2. 21 माह के उस दौर में लोगों के अधिकारों पर अंकुश लगाए गए
  3. विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया, ज्‍यादतियां की गईं

तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन 'आंतरिक अशांति' के तहत देश में आपातकाल की घोषणा कर दी. 26 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक की 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल था. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह अब तक का सबसे विवादित दौर माना जाता है. आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए थे. आपातकाल में लोगों के मूल अधिकार ही निलंबित नहीं किए गए, बल्कि उन्‍हें जीवन के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया? यहीं से बड़ा सवाल उठता है कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार ने लोकतंत्र को संवैधानिक तानाशाही में क्‍यों तब्‍दील कर दिया?

किन घटनाओं ने बदला माहौल
1971 के बाद से ही सियासत में इंदिरा युग के आगाज के साथ ही उनकी पर्सनालिटी कल्‍ट बनाने की शुरुआत हुई. उसी कड़ी में इंदिरा सरकार, न्‍यायपालिका और प्रेस पर नियंत्रण की कोशिश में भी लग गई. 1967 में गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट ने व्‍यवस्‍‍था देते हुए कहा कि संविधान के बुनियादी तत्‍वों में संशोधन का अधिकार संसद के पास नहीं है. इस फैसले को बदलवाने के लिए 1971 में 24वां संविधान संशोधन पेश किया गया.

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इंदिरा गांधी के नेतृत्‍व में सरकार की यह कोशिश भी उस वक्‍त विफल हो गई जब केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 7-6 बहुमत के आधार पर 1973 में फैसला दिया कि संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती. न्‍यायपालिका के साथ कार्यपालिका का विवाद इस हद तक बढ़ गया कि एक जूनियर जज को कई वरिष्‍ठ जजों पर तरजीह देते हुए चीफ जस्टिस बना दिया गया. नतीजतन कई सीनियर जजों ने इस्‍तीफा दे दिया.

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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली करने का दोषी ठहराया था (फाइल फोटो)

छात्र आंदोलन
1973 में अहमदाबाद में एलडी इंजीनियरिंग कॉलेज में हॉस्‍टल मेस के शुल्‍क में बढ़ोतरी के बाद छात्रों ने आंदोलन शुरू कर दिया. राज्‍य के शिक्षा मंत्री के खिलाफ शुरू हुए इस नव निर्माण आंदोलन ने बाद में भ्रष्‍टाचार और आर्थिक संकट के खिलाफ उग्र रूप धारण किया और इसका नतीजा यह हुआ कि मुख्‍यमंत्री चिमनभाई पटेल को इस्‍तीफा देना पड़ा और राज्‍य में राष्‍ट्रपति लगाना पड़ा.

इसी तरह उसी दौर में बिहार छात्र संघर्ष समिति के आंदोलन को गांधीवादी समाजवादी चिंतक जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने समर्थन दिया. 1974 में जेपी ने छात्रों, किसानों और लेबर यूनियनों से अपील करते हुए कहा कि वे अहिंसक तरीके से भारतीय समाज को बदलने में अहम भूमिका निभाएं. इन सब वजहों से इंदिरा गांधी की राष्‍ट्रीय स्‍तर पर छवि प्रभावित हुई.

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राज नारायण केस
समाजवादी नेता राज नारायण ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव (1971) में जीत को चुनौती दी. इंदिरा गांधी ने 1971 के चुनाव में राज नारायण को रायबरेली से हराया था. राज नारायण ने आरोप लगाया कि चुनावी फ्रॉड और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के चलते इंदिरा गांधी ने वह चुनाव जीता. इस पर 12 जून, 1975 को फैसला देते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्‍हा ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध ठहरा दिया. इंदिरा गांधी ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. 24 जून, 1975 को जस्टिस वीके कृष्‍णा अय्यर ने इस फैसले को सही ठहराते हुए सांसद के रूप में इंदिरा गांधी को मिलने वाली सभी सुविधाओं पर रोक लगा दी. उनको संसद में वोट देने से रोक दिया गया. हालांकि उनको प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की छूट दी गई.

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जपप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया.(फाइल फोटो)

'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'
25 जून, 1975 को दिल्‍ली के रामलीला मैदान में जेपी ने इंदिरा गांधी के पद नहीं छोड़ने की स्थिति में उनके खिलाफ अनिश्चितकालीन देशव्‍यापी आंदोलन का आह्वान करते हुए रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्तियों को दोहराया-'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.' उसी रात 'आंतरिक अशांति' का हवाला देते हुए देश में आपातकाल की घोषणा कर दी.

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अरुण जेटली ने कहा कि लोकतंत्र को संवैधानिक तानाशाही में बदलने के लिए संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल किया गया.(फाइल फोटो)

जब आपातकाल के खिलाफ अरुण जेटली बने पहले सत्‍याग्रही
केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ बीजेपी नेता अरुण जेटली ने चार दशक पहले के इतिहास के इस काले अध्‍याय को याद करते हुए फेसबुक पर लिखा है, ''यह इस घोषित नीति के आधार पर एक अनावश्यक आपातकाल था कि इंदिरा गांधी भारत के लिए अपरिहार्य थीं और सभी विरोधी आवाजों को कुचल दिया जाना था. लोकतंत्र को संवैधानिक तानाशाही में बदलने के लिए संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल किया गया.''

अरुण जेटली ने आपातकाल के बारे में ''इमरजेंसी रिविजिटेड'' शीर्षक से तीन भागों वाली सीरीज का पहला हिस्सा 24 जून को फेसबुक पर लिखा है. जेटली ने कहा कि वह इंदिरा गांधी सरकार के कठोर कदम के खिलाफ पहली सत्याग्रही बने और 26 जून 1975 को विरोध में बैठक आयोजित करने पर उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया था. 25-26 जून, 1975 की मध्य रात्रि में विपक्ष के कई प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था.

उन्होंने कहा, ''मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के प्रदर्शन का नेतृत्व किया और हमने आपातकाल की प्रतिमा जलाई और जो कुछ हो रहा था, उसके खिलाफ मैंने भाषण दिया. बड़ी संख्या में पुलिस आई थी. मुझे आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था कानून के तहत गिरफ्तार किया गया और दिल्ली की तिहाड़ जेल ले जाया गया था.''

उन्होंने कहा, ''इस प्रकार मुझे 26 जून 1975 की सुबह एकमात्र विरोध प्रदर्शन आयोजित करने का गौरव मिला और मैं आपातकाल के खिलाफ पहला सत्याग्रही बन गया. मुझे यह महसूस नहीं हुआ कि मैं 22 साल की उम्र में उन घटनाओं में शामिल हो रहा था जो इतिहास का हिस्सा बनने जा रही थी. मेरे लिए, इस घटना ने मेरे जीवन का भविष्य बदल दिया. शाम तक, मैं तिहाड़ जेल में मीसा बंदी के तौर पर बंद कर दिया गया था.''

जेटली ने कहा कि वर्ष 1971 और 1972 में इंदिरा गांधी अपने राजनीतिक करियर की बुलंदियों पर थीं और उन्होंने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और विपक्षी पार्टी के महागठबंधन को चुनौती दी थी. जेटली ने लिखा है, "उन्होंने 1971 के आम चुनाव में बेहतरीन जीत शामिल की. वह अगले पांच साल तक राजनीतिक सत्ता का मुख्य केंद्र थीं. अपनी पार्टी में उन्हें कोई चुनौती नहीं थी.''

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उन्होंने कहा कि 1960 और 70 के दशक में सकल घरेलू उत्पाद की औसत वृद्धि दर सिर्फ 3.5 प्रतिशत थी. 1974 में मुद्रास्फीति 20.2 प्रतिशत तक और 1975 में 25.2 प्रतिशत तक पहुंच गई. श्रम कानूनों को और अधिक कठोर बना दिया गया और इससे लगभग आर्थिक पतन हो गया.

उन्होंने कहा कि बड़े पैमाने पर बेरोजगारी थी और अभूतपूर्व महंगाई आई. अर्थव्यवस्था में निवेश पीछे रह गया. इस बीच फेरा लागू किया गया जिससे चीजें और खराब हो गयीं. उन्होंने कहा कि 1975 और 1976 में विदेशी मुद्रा संसाधन सिर्फ 1.3 अरब अमेरिकी डॉलर था.

जेटली ने कहा, "श्रीमती इंदिरा गांधी की राजनीति की त्रासदी यह थी कि उन्होंने ठोस और सतत नीतियों के मुकाबले लोकप्रिय नारों को तरजीह दी. केंद्र और राज्यों में भारी जनादेश के साथ सरकार उसी आर्थिक दिशा में बढ़ती रही जिसका प्रयोग 1960 के दशक के अंत में उन्होंने किया था.'' उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी का मानना था कि भारत की धीमी प्रगति का कारण तस्करी और आर्थिक अपराध हैं.

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