डॉक्टरी! कभी नोबेल रहा प्रोफेशन, अब 'धंधा' बन गया है
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डॉक्टरी! कभी नोबेल रहा प्रोफेशन, अब 'धंधा' बन गया है

निजी अस्पताल लूटने पर आमादा हैं तो सरकारी अस्पताल खाना-पूर्ति करना चाहते हैं.

साल 2015 में अक्षय कुमार की एक फिल्म आई थी- 'गब्बर इज बैक', शायद आपने देखी होगी. अक्षय की फिल्म थी इसलिए मसाले की कोई कमी नहीं थी लेकिन साथ ही कुछ काम की बातों को भी इसमें उठाया गया था. फिल्म एक ऐसे नायक की है जो भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए खुद की एक फोर्स तैयार करता है क्योंकि उसे सिस्टम पर कतई भी भरोसा नहीं है. फिल्म के एक हिस्से को काफी पसंद भी किया गया जिसमें हीरो एक प्रायवेट अस्पताल के मैनेजमेंट को मजा चखाता है. एक महिला के पति की मौत हो जाती है और सरकारी अस्पताल वाले उसे मृत्युप्रमाण पत्र भी दे देते हैं. हीरो उसे मृत हालत में ही एक निजी अस्पताल में भर्ती कराता है. अस्पताल प्रबंधन मरीज की मौत से पूरी तरह अंजान है और सोचता है कि यही मौका है बेवकूफ बनाने का. इसके बाद अस्पताल में मरे हुए आदमी का इलाज शुरू कर दिया जाता है.

ऑपरेशन थियेटर में जब एक डॉक्टर बोलता है कि आदमी की मौत तो काफी देर पहले हो चुकी है तो सीनियर डॉक्टर उससे बोलता है ये बात तो सिर्फ हमें मालूम है. तो क्यों न इसके इलाज के बहाने कुछ पैसा कमा लिया जाए. डॉक्टर एक कुशल अभिनेता की तरह अफरा-तफरी दिखाते हैं और मरीज का ऑपरेशन करने के लिए बोलते हैं. साथ ही हीरो को काउंटर पर पैसा जमा करने के लिए बोल देते है. काफी नाटक के बाद डॉक्टर अफसोस जताते हुए मरीज के मरने की खबर सुनाते हैं. साथ में यह भी बोल देते हैं कि लाश लेने के लिए उन्हें इलाज के पैसे चुकाने होंगे जो दो लाख रुपए के आस-पास होते हैं. अक्षय कुमार उन्हें मरीज का मृत्यु प्रमाण पत्र दिखाता है जिसे देखकर पूरे अस्पताल महकमे को सांप सूंघ जाता है. और फिर उनके हश्र की कल्पना की जा सकती है. अगर हम आज अस्पतालों के रवैये को देखें तो फिल्म के इस सीन पर भरोसा करने का मन हो जाता है.

अभी हाल ही में खबर आई थी कि इंदौर के प्रसिद्ध एम वाय अस्पताल में ऑक्सीजन सप्लाई रुक जाने की वजह से 11 मरीजों की मौत हो गई. इसे पूरी तरह से लापरवाही का नतीजा कहा जा सकता है. इससे बड़ी डॉक्टरी चूक की खबर इसी साल फोर्टिस अस्पताल से आई थी जहां दो डॉक्टरों ने मिलकर एक मरीज के गलत पैर का ऑपरेशन कर दिया था. बाद में उन्होंने इस बात को ढांकने की भी कोशिश की लेकिन खबर बाहर आ चुकी थी. खास बात यह थी कि इसके एवज में दोनों डॉक्टरों का महज छह महीने के लिए लाइसेंस निलंबित किया गया था.

लगातार कॉरपोरेट में तब्दील होते जा रहे अस्पतालों में अब डॉक्टर इलाज नहीं कर रहे हैं, ग्राहकी कर रहे हैं. अब डॉक्टरों का टारगेट सेट किया जाता है जिसके तहत उन्हें हर महीने इतनी सर्जरी, इतनी माइनर सर्जरी और अलग-अलग तरह के इलाज करने होते हैं.

आज से चार साल पहले दिल्ली के एक नामी गिरामी निजी अस्पताल में अपने पहले गर्भ की देख-रेख कराने के लिए संजना पहुंची थी. उन्होंने बताया कि गर्भ के दौरान उसका प्लेजेंटा नीचे की तरफ था जिसकी वजह से सातवां महीना लगते-लगते डॉक्टर ने उसे बोल दिया था कि प्रीमेच्यौर डिलेवरी करनी पड़ेगी और उसके बाद बच्चे को एक हफ्ते तक नियो वार्ड में रखा जाएगा. कुल मिलाकर पूरी प्रक्रिया में चार लाख रुपए का खर्च बता दिया गया. इतनी बड़ी रकम किसी के लिए भी एक झटका होती है. संजना और उनके पति को कुछ समझ में नहीं आ रहा था. ऐसे में उनकी एक परीचित ने एम्स में उनका इलाज शुरू करवाया. जहां वह आगे के दो महीने तक जाती रही और मजेदार बात यह थी कि निजी अस्पताल के मुताबिक जो बच्चा कभी भी पैदा हो सकता था, वह नौ महीने के बाद पूरी तरह मैच्योर होकर दुनिया में आया.

सिज़ेरियन करने की जल्दी में रहने वाले निजी अस्पताल की एक ओर पीड़ित महिला जब अपने दूसरे बच्चे की डिलेवरी के लिए एम्स पहुंची तो वहां के डॉक्टर ने उससे पूछा की पहली बार ऑपरेशन क्यों हुआ. महिला ने बताया कि डॉक्टर ने उससे बोला था कि बच्चे के गले में अंबलिकल कॉर्ड (गर्भ नाल) उलझ गई है, इसलिए उसका ऑपरेशन करना पड़ेगा. गले में अंबलिकल कॉर्ड का फंसना, पेट में बच्चे का पोट्टी कर देना, प्लेंजेंटा का नीचे सरक जाना, यह वे ‘जुमले’ बन गए हैं जो आपको आए दिन किसी भी निजी अस्पताल से इलाज कराने वाली महिला के मुंह से सुनने को मिल जाएगा. जबकि जानकार बताते हैं कि ऐसी परिस्थिति में भी सामान्य डिलेवरी करवाई जा सकती है.

अहम बात यह है कि डॉक्टरों के पास अपनी लापरवाही के बदले में वाजिब तर्क होता है जिसकी बदौलत वे यह साबित कर देते हैं कि उनकी कोई गलती नहीं थी. पिछले साल की ही बात है डिलेवरी कराने के लिए एक निजी अस्पताल पहुंचे राजेश की पत्नी को लेबर रूम ले ले जाया गया. जहां थोड़ी ही देर बाद उसे और उसकी बच्चे को मृत घोषित कर दिया गया था जबकि पूरे नौ महीने वह पूरी तरह स्वस्थ थी. यहां तक कि उसकी डिलेवरी भी सामान्य होने की ही स्थिति बन रही थी. सकते में आया परिवार तो समझ ही नहीं पाया था कि आखिर हुआ क्या है. डॉक्टर के पास अपनी लापरवाही छिपाने के वहां पर भी कोई तर्क था, थोड़ी देर परिवार ने उस तर्क के आगे विरोध किया फिर चुप हो गए.

साल 2008 की बात है. भोपाल के रहने वाले प्रदीप को एक निजी अस्पताल के डॉक्टर ने बताया कि उसकी कॉर्निया पूरी तरह से खराब हो चुकी है और अगर दो दिन में वह ऑपरेशन नहीं करवाता है तो उसके आंखों की रोशनी पूरी तरह जाने का खतरा है. बुरी तरह से घबराए प्रदीप के परिवार ने दिल्ली में सरकारी अस्पताल में जांच करवाने का फैसला किया. डॉक्टरों ने आंखों की जांच करने के बाद प्रदीप से पूछा कि उसे तकलीफ क्या है. इस सवाल ने प्रदीप को हैरत में डाल दिया. उसने बताया कि भोपाल के डॉक्टरों ने उससे बोला है कि अगर वह जल्दी से जल्दी ऑपरेशन नहीं करवाता तो उसके अंधे होने का खतरा है. डॉक्टर सिर्फ मुस्कुराए और उन्होंने उसे एक कॉंटेक्ट लेंस लगाने के लिए लिख दिया. इस बात को आज लगभग दस साल बीत गए हैं. प्रदीप की आंखे पूरी तरह से स्वस्थ हैं.

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वहीं, कमर दर्द से लगातार परेशान रहने वाली काजल को जब आए दिन चक्कर आने लगे और रीढ़ में लगतार तकलीफ बढ़ गई तो उसने भी एक नामी गिरामी डॉक्टर से जांच करवाई. एमआरआई कराने के बाद काजल को स्पाइन सर्जरी के लिए कह दिया गया. दो छोटे बच्चों की मां काजल के लिए कम उम्र में स्पाइन सर्जरी कराना किसी सदमे से कम नहीं था. उसके करीबी ने उसे सेकेंड ओपीनियन के लिए कहा, जहां एक अन्य डॉक्टर ने उसकी रिपोर्ट देखकर और जांच करके कुछ दवाएं लिख दीं. दिलचस्प यह है कि इस डॉक्टर की सलाह में ‘स्पाइन सर्जरी’का इस्तेमाल दूर-दूर तक नहीं किया गया. फिलहाल काजल पूरी-पूरी तरह ठीक है और ऑपरेशन की मुसीबत से बच चुकी है.

इसी तरह सुदीप के लीवर में घाव हो गए थे जिसका इलाज करवाने के लिए उसने जब प्राइवेट अस्पताल का रुख किया तो उन्होंने एक छोटी सी प्रक्रिया को खींच-खींच कर पहले बड़ा किया. और फिर वही काम किया जो उन्हें पहले दिन कर देना था यानि घाव से मवाद निकालना. इस तरह अपने सेट टारगेट के तहत अस्पताल ने एक छोटे से काम के लिए सुदीप के इलाज का बिल एक लाख रुपए बना दिया.

ऐसे न जाने कितने उदाहरण है जो कॉरपोरेट में तब्दील होते डॉक्टरी के पेशे को उजागर करते हैं. कभी नोबेल कहा जाना वाला प्रोफेशन अब एक धंधा बन कर रह गया है. निजी अस्पताल लूटने पर आमादा हैं तो सरकारी अस्पताल खाना-पूर्ति करना चाहते हैं. ऐसे में इंसान की जान बस तब तक ही है जब तक वो किसी अस्पताल के बोर्ड को पढ़ नहीं लेता है. एक सामान्य आदमी प्राइवेट अस्पताल का रुख दो कारणों से करता है. एक तो उसे लगता है कि वहां उसकी देख-रेख ज्यादा अच्छे से होगी, दूसरी वो कतार के झंझटों से बच जाएगा. होटल बनते जा रहे अस्पताल भी उसके सामने इसी तरह की झांकी पेश करते हैं और बदले में उससे तगड़ी फीस वसूल लेते हैं. जबसे मेडीक्लेम का फैशन आया है तबसे दोगुना तीन-गुना पैसा देकर इलाज करवाना किसी को अखरता भी नहीं है. लेकिन इन्हीं अस्पतालों में आए दिन हमें लापरवाही की अलग-अलग कारनामे सुनने को मिल जाते हैं.

ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’याद है आपको. उसमें डॉ भास्कर (अमिताभ बच्चन) का साथी डॉक्टर प्रकाश कुलकर्णी (रमेश देव) एक अमीर महिला का इलाज करने पर आमादा होता है जिसे कुछ हुआ ही नहीं है. भास्कर इस बात से चिढ़ जाता है. महिला के जाने के बाद डॉ. कुलकर्णी अपने दोस्त भास्कर को समझाता है कि- इन अमीरों के पास पैसा तो है लेकिन रिश्ते नहीं है इसलिए ये मेरे पास आते हैं. मैं तसल्ली से उनकी बात सुनता हूं, उनकी फिज़ूल की बात पर गंभीरता जाहिर करते हुए उन्हें लापरवाही न करने की चेतावनी देता हूं. डांट-फटकार औऱ चिंता करने के एवज में वो मुझे मोटी फीस देते हैं जिससे मैं उन लोगों को मुफ्त इलाज कर पाता हूं जिन्हें तुम मेरे पास भेजते हो जिनके पास दवा खरीदने तक के पैसे नहीं होते हैं.’

‘आनंद’ से लेकर ‘गब्बर इज़ बैक’ तक समय भी बदल गया है. इलाज करने का तरीका भी और सोच भी बदल गई है. आनंद के ‘रॉबिनहुड’ सोच वाले डॉक्टर की जगह गब्बर के उस मुनाफाखोर डॉक्टर ने ले ली है जिसके लिए मदर इंडिया के सुक्खीलाला की तरह सिर्फ वसूली ही अहम है. ऐसा लगता है अब तो निजी अस्पताल सोचते हैं कि कैसे भी करके ये EWS का बोझ उनके सिर से हट जाए तो पच्चीस फीसद और मुनाफा कमाया जा सके.

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