चाहे वह वैदिक दर्शन हो या फिर दक्षिण भारत के संगम युग की ‘पत्नी पूजा’ नारी को सम्मानजनक ही नहीं, बल्कि देवी का स्थान दिया गया है.
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उपवास का विधान, विशेषकर महिलाओं के लिए की गई व्यवस्था में उदारवादी विचारों के प्रति भारतीय चेतना में उपस्थित विरोधाभासी मूल्यों को व्यक्त करने वाला एक सर्वोंत्तम उदाहरण जान पड़ता है. वैसे तो यथार्थवादी स्तर पर व्रत का सीधा संबंध स्वास्थ्य की देखभाल से है, जिसकी वैज्ञानिक व्याख्या आसानी से की जाती है. इस लिहाज से इसकी व्यवस्था स्त्री और पुरुष दोनों के लिए की गई है. चाहे नवरात्र हो या एकादशी का व्रत, ये सभी दोनों द्वारा रखे जाते हैं. यह बात समझ में भी आती है. लेकिन गड़बड़झाला वहां दिखाई देता है, जहां इसका विधान केवल नारी के लिए किया गया है.
चाहे वह वैदिक दर्शन हो या फिर दक्षिण भारत के संगम युग की ‘पत्नी पूजा’ नारी को सम्मानजनक ही नहीं, बल्कि देवी का स्थान दिया गया है. प्रथम भारतीय सामाजिक संविधान के निर्माता मनु ने स्वयं ही स्पष्ट रूप से कहा है, जो हमारे समाज में बहुत ज्ञात भी है कि ‘‘जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं’’. वहीं दूसरी ओर इन्हीं मनु के द्वारा नारी के लिए जो अन्य नियम बनाए गए, वे उन्हें देवी के पद से गिराकर दासी के स्तर पर ला देते हैं. एक ही संविधान के इन परस्पर विरोधाभासी स्वरूप को नारी की व्रत-व्यवस्था में देखा जा सकता है.
इसके बारे में मैं विशेषकर करवा चौथ और छठ जैसे उन विशेष व्रतों का उल्लेख करना चाहुंगा, जो विवाहितों द्वारा अपने पति और संतानों के स्वास्थ्य व दीघायु होने की कामना के लिए की जाती है. यहां परेशान करने वाला प्रश्न यह उभरता है कि जो स्वयं में देवी है, उसे फिर अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए क्यों किसी अन्य देवी-देवता की आराधना करनी पड़ रही है? यहां यह भी तथ्य उल्लेखनीय है कि नवरात्र के दौरान कन्या पूजा एवं कन्या भोज का भी लोकप्रिय विधान है, जो उन्हें देवी के रूप में प्रतिष्ठित करता है, तो क्या यहां यह माना जाए कि विवाहित होने के बाद उनका वह देवीय तत्व नष्ट हो जाता है. इसीलिए उन्हें अन्य देवी की आराधना करनी पड़ती है? यहां तक कि बहुत से समुदायों में अच्छे वर की प्राप्ति के लिए भी कुंआरी लड़कियों द्वारा व्रत रखे जाने एवं अन्य कुछ धार्मिक विधानों की व्यवस्था की गई है.
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यहां दिमाग में फिर से एक सवाल यह उठता है कि ऐसी ही व्यवस्था पुरुषों के लिए क्यों नहीं की गई? क्या इसका उत्तर यह हो सकता है कि नारी के समान उसमें वह दैवीय क्षमता या गुण है ही नहीं, जिसके माध्यम से वह अपनी पत्नी और अपनी संतानों के स्वास्थ्य एवं दीघायु का माध्यम बन सके. यदि इनके उत्तर हां में हैं, तो यह इस बात को प्रमाणित करता है कि नारी की पराभौतिक शक्तियां पुरुष की तुलना में अधिक परिष्कृत हैं. हां, जहां तक भौतिक शक्तियों की बात है, निश्चित रूप से उसमें पुरुष उसकी तुलना में कुछ आगे हैं. और शायद इसी विशिष्टता से उसने स्वयं ही यह अधिकार हासिल कर लिया कि वह इस तरह के सारे उपायों को नारी के ऊपर थोपे.
उपवास का दुर्भाग्यजनक भयावह परिणाम हाल ही में आई राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2016 की रिपोर्ट में देखने को मिलती है. यह रिपोर्ट बताती है कि इस देश की हर तीसरी महिला खून की कमी की शिकार है. यह संकट केवल गरीब परिवारों का ही नहीं, बल्कि धनी परिवारों का भी है, जहां महिलाओं के लिए व्रतों के साथ-साथ घर में सभी के भोजन कर लेने के बाद भोजन करने की एक अतार्किक व्यवस्था की गई है. हास्यास्पद स्थिति यह है कि जिसे अपेक्षाकृत अधिक भोजन करना चाहिए, उसे ही सबसे कम भोजन उपलब्ध है. व्रत इसी का एक अंग है. और मजेदार बात यह है कि यह भूखी रहने वाली महिला देवी है, अन्नपूर्णा है.
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क्या इन दोनों तथ्यों में कोई सामंजस्य दिखाई देता है? क्या इस रिपोर्ट को देखकर यह कहा जा सकता है कि व्रतों का संबंध स्वास्थ्य की देखभाल से है? दरअसल, जब तक हम इन सारे प्रश्नों पर एक साथ विचार नहीं करेंगे, तब तक न तो इसके धार्मिक समाधान निकाले जा सकेंगें और न ही सामाजिक. धार्मिक उत्सव शायद हमें ऐसे प्रश्नों पर विचार करने का सर्वोत्तम अवसर प्रदान करते हैं.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)